यह आज से पन्द्रह वर्ष पहले की बात है---” दो दिन बराबर वृष्टि होते रहनेसे घाट सब डूब गये थे, घरसे बाह निकलना कठिन हो गया था | काम धन्धा सब बन्द था। नहीं कह सकता कि यदि संयोगसे मित्र अमरनाथ न आगये होते और उनका साथ न होजाता तो ये दो दिन कैसे कटते | अमर कल प्रातःकाल : आये थे | थोड़ी ही देरमें बड़े वेगसे वृष्टि होने लगी । उनके घरको कहला भेजा कि यदि वृष्टि नहीं रुकेगी तो अमरनाथ यहीं रहेंगे | संध्यास पूर्व वादलोंको मानों कुछ आल्स्य सा आ गया और मेह भी कुछ मन्द पड़ गया | मित्र अमरनाथ और मैं दो कुर्सियें उठा छेजाकर बरामदेमें जा बेठे | रास्तेका जल कलकल राब्द करता हुआ नदीके स्रोतकी भाँतिसे दौड़ रहा था और छोगों के दल जलकों चीौरते हुए अपनी अपनी जानेकी जगहोंको जारहे थे | मेरे मनमें अकस्मात् एक पुरानी कहानी जाग उठी |
मैंने कुर्सीको और भी अमरनाथके अधिक पास खींच ले जाकर कहा---“यह आजसे पन्द्रह वषे पहलेकी बात है, उस दिन भी समस्त दिन आज से अधिक मूसल्धार वर्षा होने के पीछे ऐसे ही संध्यासे पूर्व वृष्टि रुकी थी | दादाके विवाहमें में समोला बना था और बहूके साथ एक ही पालकीमें बैठा हुआ मैदानमें होकर घरको आरहा था | मेदान का जल कलछकलछ राब्द करता हुआ एक धारसे दूसरी धारमें जा रहा था पालकीके दोनों ओर हरे रंगके घने नाजके पौधे हवाके झोकों से झूम रहे थे | बहू समस्त दिन रोते रोते चुप होरही थी । याद पड़ती है कि उस अवसर पर मेंने उसको कितनी ही बातें सुनाई थीं ठीक उन्हीं दिनोंमें में कछकत्तेके एक स्कूलमें भर्ती हुआ था । क्रिकेट मेच, फुटबाल का खेल, ओर ईडन गार्डेनकी सैर आदि अपनी छोटी मोटी बहादुरी की सारी बातें उसको एक सांस में ” मुनाता जारहा था और मोरी बहू भी अपने छाल दुपट्टेमें होकर आँखें फेलाकर मेरे मुँहको देखती हुईं मेरी बातोंकी तृप्ति प्रृक सुन- रही थी ।
उससे पहले किसीने मेरी इतनी बातें नहीं सुनी थीं और न उनको सुनने ही योग्य समझा था । उस दिन मुझको श्रोता मिल गया । इस कारण बड़ा आनन्द हुआ | धीरे धीरे हमारी पाठलकोने गाँवके भीतर प्रवेश किया | उस समय संध्या होगई थी और ताछाबके किनारे पर आतिशबाज फुलझड़ी ओर गोले तथा बाजे- वाले ढोल और झाँझ आदि लिए हुए दूल्हा और दुलूहिनको लेजानेके लिए राह देख रहे थे। स्मरण होता हैं ॥ केि आतिशबाजसे मैंने भी एक फुलझड़ी लेली थी और पाठकीके एक ओरको हाथ बढ़ाकर उसको छोड़ रहा था। जब फुछझ्नडीका गुल झड़कर नाछेके जलके ऊपर गिरता और पटाखा छूटनेकासा शब्द होता था तब में उत्सुक होकर यह देखनेके लिए बहुके मुखकी ओरको देखने लगता था कि मेरी ' बहादुरी देखती जाती है या नहीं ।
इसके बाद वैशाख मासमें जब ग्रीष्म की छुट्टियोंमें में घरको गया तों भाभी कुछ ही पहले हमारे घर आई थी। उसने आकर मुझसे चुपकेसे कहा- “ देवर, मुझको यहाँ आये हुए पन्द्रह दिन होगये । मैं रोज यही विचारती थी कि तुम कत्र आवोगे | भोजन करके एक बार ऊपर अवश्य आना, में तुम्हें कितनी ही चीजें दिखाऊँगी। दादाके घर जाकर देखा कि भावजने पोतके बहुतसे खिलोने टे- बिल पर सजा रक्खे थे मुझको देख कर वह हँसकर बोढीं---“अच्छा- देवर, टीक ठीक बतलछाओ कि यह गाडी कैसी लगती है । इन सबको मैंने अपने आपही बनाया है । माने मुझसे कहाथा कि इस सब रद्दी खातेको वहाँ ले जाकर क्या करेगी; किन्तु मैंने उनका मना करना नहीं माना और तुमको दिखानेके लिए ये सब चीजें यहाँ ले आई |
वास्तवमें वे बहुत ही अच्छे ढंगके बने हुए थे। मेंने कहा कि भाभी, तुम ऐसा सुन्दर खिलोना बना लेती हो । अब प्रूजाकी छुट्ठीमें जब घर आउऊँगा तब तुम्हारे लिए बहुत सा पोत और तार छेता आउऊँगा। भावजने उसीदम हँसकर उत्तर दिया---“ नहीं देवर, पोत नहीं लाना, किन्तु थोड़ासा काले रंगका ऊन लेते आना | में गलेबन्द बुनना सीख रही हूँ एक तुमको बुन दूँगी। ” अमर, वह गलेबन्द आज भी मेरे गलेमें पड़ा हुआ है किन्तु हाय ? इसकी बनानेवाली नहीं है। कुछ वर्षके लिए इस प्रथ्वीके रंग मंच पर एक दुःख भरे हुए नाठककों खेलकर कौन कह सकता है कि वह कहौंको चढी गई ! वह विजलीकी चमक जैसी रूपराशे और सर- लतामयी हँसी सदाके लिए मेरी आँखोंसे ओझल होगई | हाय ! भाभी, हाय ! करुणाकी प्रतिमा और दयामयी भाभी, तुम इस आभागेके, स्पृतिमन्दिरमें इस निष्ठुर चिह॒को क्यों छोड़ गई !
ब्याहके कोई सात वर्ष पीछे किसी एक सौदागरके आफिसमें नोकरी लछगजानेसे दादा कलकत्ते:आय | मैं उन दिनों इन्ट्रेस पास करके एफ. ए , में पढ़ने लगा था। उन्होंने मेरे ही मेसमें रहकर काये करना आरंभ कर दिया | साहबने उनकी एकाग्रता ओर दक्ष- तासे बहुत प्रसन्न होकर उनके पदकी शीघ्र ही उन्नति करदी । दादाके पास उनके आफिसके साथी निशानाथ बाबू संध्याकी प्रतिदिन ही मिलने आया करते थे; वे मुझको पहलेहीसे अच्छे नहीं छगते थे । इसी प्रकारसे दोचार महीने कट गये । इसके बाद में देखने छगा कि दादा प्रतिदिन संध्याके बाद दो तीन घण्टे बाहर बिताने ढछगे हैं । उनके बाहर जानेकी सज--धजको देखकर मेरे मनमें एक प्रकारका भय ओर सन्देह होने छगा । एक दिन मैंने उनसे पएँछा कि आप रोज संध्याके बाद कहाँको जाया करते हैं ? दूसरी ओरको मुँह करके उन्होंने उत्तर दिया कि सारे दिन परिश्रम करनेके पीछे चुप बैठे रहना अच्छा नहीं लगता, इस लिए निशानाथ बाबूके घर गानेबजानेमें जी बहछाने चछा जाता हूँ। मैंने उनके उत्तरको तो सुन लिया, परन्तु अपने मनके सन्देहको में नहीं हटा सका। इसके अनन्तर सरस्वती पूजाका दिन आया |. पढ़नासुनना बन्द था। समस्त दिन ताश पीटनेके पीछे संध्यासे धृर्ष कुछ थक कर लेट रहा था। एकाएक ध्यान आया के दादा दस बजे भोजन करके बाहर गये हैं और जलपानका समय निकल चुकने पर अब भी लोटे नहीं हैं |
मेरे मनमें बड़ी ही दुभीवनायें आई-मैं चुप हो कर सो रहा । मुझसे बाहर नहीं निकला गया। रात्रिके आठ बज गये। रमेशने आकर कहा क्यों, चुप कैसे पड़े हो? दादा कहाँ हैं? पूजाके निमंत्रणमें गये हैं न! उसके निधुर परिहाससे मुझको बहुत कष्ट हुआ; कोई उत्तर बिना दिये में पहलेहीकी भाँति पड़ा रहा । पहलेहीसे भूख नहीं थी, फिर भी कुछ खाना चाहिए, इस लिए थोड़ा सा खाकर बिछोने पर जा पड़ी । कुचिन्ता और वेदनासे मन जछा जा रहा था, और दुःखसे भरे होनेसे नेत्र घिरे और भरे जा रहे थे | में सो गया । भाई अमर, उस दिन पिछली रातको जो स्वप्त भेंने देखा वह आज भी मनमें अच्छी तरह अंकित हो रहा है, न जाने उसे कभी भूदूँगा या नहीं । उस डरावने स्वप्तकी स्पातेसे आज भी शरीर रोमाश्वित हो जाता है । मैंने देखा कि आकाश कुहरेसे भरा हुआ है | सामने जहाँ तक दृष्टि पहुँचती थी वहाँ तक समुद्र फेन उड़ाता हुआ उमड़ रहा था। समुद्रके गजनसे कान बहिरे हुए जा रहे थे। मेंने देखा कि दादा उसमें गिरकर डूबे जा रहे हैं | तट पर भावज खड़ी थीं, उनका सुनहरा शरीर काछि- मामय ओर निर्दोष सुन्दर बदन शवकी भाँति सूखा हुआ था | जलको कॉपते हुए हाथसे दिखाती हुईं वह मेरी ओरकों अति दौन और अति करुण नेत्रोंसे देखती हुईं टूटे हुए स्वरसे कह रही थीं, “ देखो देखो, मेरा सव्ेस्व जाता है | यदि तुम रक्षा कर सकते होओ तो करो | ” मैं बहुत ही ममोहत हो कर चीख पड़ा, मेरी नींद टूट गई। उठकर देखा तो दादा तब भी नहीं आये थे ।
एक दिन भोजन करते करते दादाने कहा “ सुकुमार, हमारा आफिस यहाँसे बहुत दूर चला गया है और बड़े बजारमें हीएक सुभीतेका मकान मिल रहा है | वहाँ ही जा रहनेकी इच्छा होती है। ” मैंने सोचा ये अपने पापाचारके मार्गकोी एक साथ साफ कर लेनेकी ठान बैठे हैं। छोटेसे कॉटेको निकाल कर दूर फेंक देनेकी उन्होंने इढ़ प्रतिज्ञा कर ली है। अभिमानसे मैंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । आँखेंकी फाड़ कर आँसू बाहर निकले पड़ते थे । बड़ी कठि- नाइंसे मेंने उनको रोका | यह मेरा स्वभाव है कि जब हृदयमें बड़ी बेदना होती है तब मुखसे में कुछ भी नहीं कह सकता । सर्व नाशकी सोलहों आने तेयारी होने और उनको अपने पास ही रखनेकी बड़ी इच्छा रहने पर भी स्वभावदोषसे में कोई बात नहीं कह पाया |
दो दिन बाद दादा नये घरको चले गये | उस दिन मेंने जो पत्र अपने घरको लिखा उसमें सब हाल लिख दिया, और माताको यह निषेध लिख दिया की भार्भा को इस बातका कुछ भी पता न लगने पावे | चिन्ता और मनके कष्ट से में दिन बिताता रहा | जब मिलनेको दादाके घर जाता था और वे नहीं मिलते थे, तब हार कर बीचबीचमें उनके आफिसहीमें जाकर मिल आता था । उनसे मेंने बारबार अनु- रोध किया ककि एकवार घरको चलिए ऐसा करनेसे मेंने विचारा था कि उस सरलताको प्रतिमा और पुण्यमयी भावजकों देखकर ये अपने पूर्व चरित्रपर फिर आ जायेंगे । किन्तु हाय वह सब विफल हुआ | वह प्रति सप्ताह जानेकी प्रतिज्ञा तो कर डालते थे, किन्तु वह प्रतिज्ञा _ कार्यमें परिणत नहीं होती थी वे घरको नहीं जाते थे ।
एक दिन सुना कि तहबीलमें गड़बड़ करनेसे दादा नोकरीसे हटा दिये गये | साहब उनसे आन्तरिक प्रेम करते थे इस लिए वे उनको हटा देकर ही चुप हो गये | दादा छज्जाके कारण ग्रुझलले-बीं, मिले ओर घरको चले गये ।
निष्कलड्ड बंशमें कलकका यह गहरा घाव बड़ा कष्ट दायक था, तो भी मेरे मनके एक गुप्त प्रदेश में एक प्रकार की शांति ही की छाया पड़ रही थी। मैंने सोचा अब दादा राहपर आ जायेँगे ।
पूजा की छुट्टी में घर जाकर देखा कि माताजी पहुँचानी नहीं जातीं, उनका शरीर इतना जजेर हो गया है। मैंने पूंछा कके दादा कहाँ हैं | इसपर वे रो पड़ीं और बोलीं, बेटा सुकुमार, यह मेंने कभी भावना भी नहीं की थी कि विधाताने मेरे भाग्यमें बुढ़ापे में इतना कष्ट लिख दिया है। नवकुमार दो दिनसे वर्धभान गया ह और कह गया है के मुझे छोटनेमें देर लगेगी । जान पड़ता है | कि वह तुझसे मिलना नहीं चाहता । ”
क्यों, उनको इतने लज्जित होनेकी तो कोई भी आवश्यकता नहीं थी | भूछ मनुष्य ही के लिए है पग पग पर मनुष्य से भूल होती हैं। बुरे संगत पड़कर उनका निष्कलुंक चरित्र कुछ महीनोंके लिए बिगड़ तो गया ही था, किन्तु में इसीको बड़ा लाभ समझता हूँ कि उन्होंने अपने आपको सँभाल तो लिया | ” वह सँभलेगा क्या खाक ! न जाने वहाँसे क्या पीना सीख आया है | आठों पहर वहीं पीता है ओर मेरे हाड़ जछाता है। यह बेचारी पराई लड़की, गरीब गऊ, हाय | इसके भी भाग्य में इतना कष्ट लिखा है | उसके शरीरके एक एक गहनेकों उतार ले जाता है और कढा- रकी दूकानपर जाता है। बेटा सुकुमार, और क्या कहूँ-कहनेकी बात भी नहीं है---अच्छा तू अब कपड़े उतार और हाथ मुँह धोकर कुछ खा ले ” यह सब सुनकर भावजसे मिलने जानेका मेरा साहस नहीं हुआ । हाथ पैर धोकर खानेकों बैठ गया ।