अच्युतानन्दने कहा-“बेटा, तुम घरको छीट जाओ । कठोर कत्तेन्य तो अब भी तुम्हारे सामने पडा हुआ है । अभी कमंयोगका पालन करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, ज्ञानयोगमें तुम्हारा अधिकार नहीं है। ”
दूसरा संन्यासी बोला, “ प्रभु, घर पर मुझको शांति नहीं मिलती है। में ज्ञानद्वारा शांति छाभ करना चाहता हूँ ।” अच्युतानन्द गोस्वामी ने हँसकर कहा, “ बेटा, आँखें मूँद कर देखो, अभी तुम्हारे सामने कितना बड़ा कर्तव्य पड़ा है । पुत्रके शोकसे व्याकुल माता सन्तानके आनेकी प्रतीक्षा करती हुई सड़क पर आँखें लगाये है | लंवे विरहसे कातर, पतिमें प्राण छगाये रहनेवाली सती स्वामीके दर्शन करनेकी छाल्सासे जीवन धारण किये हुए है। बेटा, अन्धे न बनो, तुम्हारी सब वासनायें अभी प्रबल ही हैं, जाओ गृह- स्थीके धर्मको पालो | मनको शांति हो जायगी । ” इस बातको कहकर महापुरुष प्रस्थान कर गये । शशिशेखर ध्यानमें भँखें मूँदे हुए, अनेक चितायें करता हुआ बैठा रहा ।
असलमें घरसे बाहर निकलनेके बादसे शशिशेखरका मन ओर भी अधिक अस्थिर हो गया था। वह शांतिकी आशासे जितनी दूर भी जाता था उसको प्राणके भीतर उतना ही किसीका अभावसा जान पड़ता था| शांतिकी आशासे शशिशेखर कठोर आत्मप्यमका अम्यास करने लगा था, किन्तु ऐसा कर नहीं पाता था,
हृदयमें एक स्थान सूना था और उस सूने स्थानमें कोई अधिकार करनेकी चेष्टासी करता था | शेखर निद्रामें स्वप्न देखता था कि कोई आँसुओंसे उसके दोनों पेरोंको धो रहा है---कितने ही मना करने पर भी मानता नहीं है--पैरों पड कर कितनी ही साधना करता है।
शेखर उठाना चाहता था किन्तु उठा नहीं पाता था, क्योंके कोई उसको हाथ पकड़ कर रोक लेता था । इन्दावनमें जानेसे शेखर पागल्सा हो गया था, उसकी हृदयकी ज्वाला और भी बढ़ने लगी थी। इसी- लिए अच्युतानंद गोस्वार्मके पास आकर उसने शिष्यत्व ग्रहण कर लिया था | इसके पीछे उसको कितनी शांति हुई थी सो पाठक जान ही गये हैं | आज सारे दिनभरकी थकावटके बाद शेखरको घोर निद्राने घेर लिया; किन्तु निद्रासे भी उसके मनको शांति नहीं मिली ।
शेखरने एक विचित्र स्वप्त देखा । इस प्रकार अशांतिमें कितने दिनातक पड़े रहोगे ? सुधाकी लेकर सुखी होओ।
शेखरने कहा---“ शेछ | तुझे छोड़कर सुखी केसे हो पाऊँगा ?”
शैल बोली---. रमणी स्वार्थपर नहीं होती हैं | में मर भले ही गई हूँ किन्तु तुमको असुखी नहीं होने दूँगी । इसी लिए तुमको सुधाके हाथों सोंप दिया है।
” शैल अदृश्य हो गई । किन्तु फिर वही दृश्य ! कोई उसके दोनों पैरोंको नयनोंके अश्रुओंसे धोने छगा--जाने कितने प्रेमके साथपमें पैरोंमें छोटने छगा। शशिशेखर चौंक पड़ा और चिल्लाकर बोला---
सुधा, सुधा |” उसको नींद जाती रही। उसने देखा कि वास्तवमें कोई उसके दोनों पैरोंको आँसुओंस सींचकर चुप चाप चला गया है |
चिन्ता ही चिन्ता में शशि शेखर का शरीर गलने लगा | उसको विष- मज्वर चढ़ा | अच्युतानन्दस्त्रामी उसकी सेवा करने छगे | उसको उस अवस्थामें देखकर उसकी माता और पत्नी चिन्तित न हों, यह सम. झकर फिर उन्होंने उन दोनोंको कुछ जानने नहीं दिया | जब बादमें ज्वरका कोप बराबर बढ़ता ही गया तब वे उनको लानेको लाचार हो गये ।
पति में प्राण लगाये रहने वाली सुघा पैंताने बैठी रहकर दिनरात उसकी सेवा में छगी रहने ठगी | आहार और निद्रा छोड़कर साध्वी- सती गोविन्द के चरणारविद में प्रार्थना करती थी-“ प्रभु, मेरे स्वामीकी रक्षा करो | ” कितनी ही रातें चुप्चाप बीत गई; शाशे शेखरकी अवस्था नहीं सँभली । विकारके धोर प्रछापमें वह बकता था “ शैल, अब मेरा अन्त आगया। मुझे अपने पास बुछाले | ” माता और सुधा मुख से शब्द निकाले विना ऑसू बहा रहीं थीं। अच्युतानन्दने कहा '' तुम लोग अधीर न होओ | इससे रोगी की अवस्था और भी बिगड़ जायगी ” बड़े कष्ट से उन बेचारियोंने अपने आपको रोका, किन्तु जी नहीं मानता था । शेखरकी दशा ऋमसे बिगड़ती ही गई। जब कुछ भला माद्म होता था, तब सुधाके मुखकी ओर एक टक देखता रहता था । एक दिन चिल्ला उठा--“ शैल में आगया | चल प्राणे- श्वरी, में ओर तू दोनों हाथ पकड़ कर अनन्त धामके मार्ग पर चले जावें | हमें कोई रोक नहीं पावेगा ।”? सुधा निदारुण शोक और नीरब यातनासे रोपड़ी । जान पड़ता है ककि उस रोनेसे शेखरकों ज्ञान हुआ। शेखरने कंहा, “ सुधा, तू रोती है | रो मत। अपने तप्त अँसु- ओंसे मेरे हृदय को जलावे मत | मुझको जाने दे। इस जीवनमें तो में तुझसे मिछ नहीं पाया, किन्तु मरने बाद जीवन होगा तो फिर हमारा मिलना होगा और इस जीवन बाद तुझकों और शैलको लेकर सुखी होऊँमा । ” शेखर चुपहो रहा | रोती हुई सुधा पास ही मूछित होकर गिर बड़ी ।