चन्द्रमाकी सफेद किरणेसि शांत रात्रिमें नीछा आकाश अपूर्व शोभा धारण कर रहा था । वह होलीका दिन था। मधुर वसन्तमें दिशाओंको कंपित करता हुआ पपीहा प्राणभरके गा रहा था। फ़रूछोंकी सुगंधिसे सब दिशायें आमोदित हो रही थीं ।अकेले सूने कोनेमें बेठ कर शशी- झेखर सोच रहा था--“भैने कैसा अन्यायका कार्य किया! ”
ऊपर शैलका तैल चित्र था। ऊपरको दृष्टि करके शशीशेखर कहने छगा---“ शैछ, अब भी तुझको जीौँसे भुछा नहीं पाया हूँ । यह भी मनमें सोच नहीं पाता हूँ कि इस जन्ममें भूढेँगा | सदा जिस प्रका- रसे प्रूजा करता रहा हूँ रोष जीवन भर भी वैसे ही परूजता रहूँगा। उसके बाद-- उसके बाद क्या तू मुझको अपने पास बुलालेगी तेल चित्र मुखसे कुछ कहे बिना ही उसकी ओरको देखता रहा । उस दृष्टिमें तिरस्कारकी कठोरता नहीं थी और न तानेकी मीठी मुस्कु- राहट ही थी। वह दृष्टि स्थिर और अचग्चल थी, किन्तु उसमें कोई अज्ञात करुणाका भाव प्रृणमात्राम विराज रहा था। शशिशेखर उस दृष्टिका अर्थ समझ गया । वह उँचे कंठसे बोल उठा--“ शैल, तू मुझको व्यर्थ दोष देती है; मेंने अपनी इच्छासे ब्याह नहीं किया था| माताने अपना हठ पूरा किया, “ किन्तु तुझको मेरे अन्त:करणसे दूर नहीं कर सकीं | भेरे भीतरबाहर तूही है । इस हृदयमें सुधाकों तिल मात्र भी स्थान नहीं है |”
फिर कोमल मधुर कंठसे कोई बोल उठा--- प्रियतम, में आई।”
घर में चन्द्रमाका उजाला था--मधुर ज्योत्स्ना से पुकारने वाली का सारा शरीर और मुख मंडल दिखाई दे रहा था।
शेखरका विचार टूटा और उसने पीछेको फिर कर निर्दोष कान्ति- वाली रमणी मूर्त देखी | देखते ही कहने लगा, “ सुधा, तू यहाँ कैसी आई ? माँ के पास जा | ?
सुधाने आँखें नीचे करके बहुत धीरेसे कहा---“ प्रभो, आज भर के लिए अपराधिनीको क्षमा कर दीजिए, आज होलिकाका दिन है। आज मेरी भी इच्छा पूर्ण हो जाने दोजिए । मुझको आप प्रायः ही पैर से हटाते रहे हैं यही समझ कर आजकी भिक्षा पूरी होने दीजिए | ”
शेखर चुप रहा | तब सुधाने अपने हाथके अबीर कुंकुम से उसके दोनों परोंको रंग दिया | बहुत दिनों पाँछे सुधा स्वामीके पेरोंतले पड़ गई, फिर अंतमें कहने छगी, “हृदयदेवता, मेरी पूजा पूरी हो गई । अब में जाती हूँ । ” सुधा चढी गई | शेखर ऊपरको टकटकी बाँध अटल अचल बैठा रहा ।