भद्गाचार्य महाशयके पैर छूकर मैंने शपथ की कि इस मामले मै बिलकुछ निर्दोष हूँ। क्या आज तक जो उन्होंने अपने पुत्र ही की भाँति दो बरस मुझे पाला था वह सब इस.घृणित और .जघन्य पापकी डालको मेरे सिर पर जमाने ही के लिए ! राम ! राम | सरला लो मेरी बहिन है! वह तो“झुझकों मन्मथ दादाके नामसे पुकारा आरती है। भद्गाचाय॑ महाशय मेरे सिर में दर्द रहने के कारण ही इन “दिनो मेरे पढ़ने लिखनेको कुछ शिथिल देख रहे थे। तब क्या मैं इसी बात से नार की नाराज हो गया छि: छि: कैसी घृणा और कैसी लज्जाकीः बात है!
'कहावत है कि भूत मरकर ओंझा होता है। परेश बाबू सौघे- सादे और धर्म:प्राण होने पर भी काफी बुद्दधिमान् थे और इस संसार के: उन्होंने देखा भी खूब ही था। इसीसे उन्होंने घृणा से महक सवरमें कहा-“ मैया ! मैंने जिस दिन से तुम्हारे बाकुं की मूँयू के ढँग को देखा था उसी दिनसे जान लिया जा 'कि तम गये; किन्तु मुझको यह नहीं सूझ पड़ा था कि तुम भट्टाचाय महाशय उस समय घर पर नहीं थे |
मलिन वेशा और शड़ित केशा विधवा सरठा अपना बायाँ हाथ फैलाये और सिर झुकाये बैठी थी। उसके पास ही उसकी माँ, साक्षात् सावित्री, स्थिर : मेरे हैसे बैठी हुईं मेरी गणनाशाक्तिकी परीक्षा कर रही थी | वे माँ बेटी दोनों मेरे ज्योतिष पर मोहित हो रही थीं। मोहित होना ही चाहिए भी था, क्यों कि सरला के जीवनकी कोई बात भी. तो मुझसे छिपी हुईं नहीं थी । उसके संगका सुख जितनी देर भी उठाया जा सके उतनाही उत्तम है | इसीसे सरलाका हाथ देख कर मैं उसके जीवनको पिछली बातोंमेंसे एक एकको बतछाता जा रहा था । इन सब बातोंकी सरला अन्यमनस्क हो कर सुन रही थी ।
उसने भाँति दर तन तो नहीं पाया था किन्तु यह बात मैं भली भौति समझ गया था कि पुरानी स्मृति उसके हृदयमें उधल-पथल मचा रही थी। सरलाने अन्य मनस्कतासे पुछा--“ क्या आप कह सकते हैं के . मरूँगी कब ? ” 6 मरूंगी कब ? मरूँगी कब?” यह प्रश्न मेरे कानोमें ४ जने लगा ! मैंने सोचा---सरला तेरी यह दशा किसके कारण हो रही है? हाय । तूने केसी कुघड़ीमें मुझसे प्रेम किया था! और सरलाकी माता !? जी में आ रहा था कि इस बनावटी वेष को फ्रेंक कर इसके दोनों पैर पकड़ रोकर कहूँ---“ मॉ-मुझको क्षमा करो ! ” मुझको चुप देखकर सरठा बोली--“क्यों। कया नहों बतला सकते हो ? ” मेंने सोचा नारी जीवन धन्य है ! मृत्यु तो उसकी बहुत पहले ही हो जानी चाहिए थी | फिर उससे प्रकटठमें कहा--“ इनके सामने. सब बातें कह दूँ!”
सरलाके प्राण सूख गये, वह बोली--“ हाँ, क्या हानि है !!? मेरा उद्देय सफल नहीं हुआ | सोचा था एकान्त मिल जाने पर 'सरलाको अपना परिचय देदूँगा ! मेंने कहा---“ कुसंगमें पड़कर तुम्हारा जीवन विषमय हो गया। ” दोनों आश्वर्यसे मेरे मुखको द्वेखने लगीं | में कहने लगा---“तुमने तो मरनेकी चेष्टा की थी, किन्तु वह विफल हो गई |” यह बात मैंने केवल अटकल्से कही थी। एक निष्टर अधर्मी पुरुष जिसके करनेके लिए तत्पर हो गया था, क्या उसके लिए एक लज्जा से झुकी हुईं महिला तैयार न हुई होगी ? अपने जीवनकी एक 'बात उसको सुनाई । माँ और बेटी आश्चर्यके साथ मेरे पेरोंकी घूलि भक्तिपूर्वक लेने लगीं । सरहा बोली कि-आप अन्तरयामी हैं | मेरा प्राण पत्थरं का बना हुआ था। में बहुतेश रो चुका था-; साझाकों अपने छाभ में साझा न बॉटना अपर्म है | लड़केने मुझे बहु- तैरा रुढाया था |
यदि वह अपनी गर्भधारणीको नहीं रुछा पाया तो इस कलिकाल में उसका जन्म ही बथा है। मैंने कहा--“ यदि तुम बुरा न मानो तो एक और छक्षणका फल भी कह ही डाहूँ। ” सरला ने मेरी ओरको निहार कर कहा---“ क्या १ अच्छा, कहिए॥ मेंने कहा, “तुम्हारे एक पुत्र है किन्तु जान पड़ता है कि इर. जीवनमें तुझारा और उसका मिलाप न होगा |” इस संवादका फल बहुतही बुरा हुआ । सरलाने श्थिर दृष्टिसे एक वार अपनी मौका मुख देखा ओर फिर वह मूच्छित होकर गिर पड़ी मेंने उसकी माँसे कहा---“ आप जल्द जल ले आवें |” माँ उठकर चली गई |में वस्लष के अंचलसे सरलाके हवा झलने लगा । सरलाने नेत्र मूँद लिए । मेंने भरे हुए कण्ठ में कहा---“सरछा | प्यारी ! क्या मुझे पहँचानती नहीं हो ? ” सरला बोली, “ प्राणाधिक,आप हो ? मुझको सन्देह हुआ था।” युवती फिर मूच्छित हो गई। उसी समय में चल दिया । बाहर आकर मेंने कपड़ेके अंचलसे अपनी आँखें पोंछ डालीं | कहीं कोई संन्यासीके नेत्रोंमे जल न देख ले ? संन्यासी बेचारे को जी भर रो लेनेका भी अधिकार नहीं है ।
वधवान के सीनियर डिपुटी मजिस्ट्रेट की कोठी आज छोगों की भीड़ से खचाखच भरी हुई है | बालकों की एक टोलीने “ कृष्ण सागर” के किनारे .. बैठकर सलाह की कि आज स्कूल से भाग चलकर बालक के चोरका / मुकदमा देखना चाहिए । आज धर्म-द्वेषी लोगों में बड़ी चेतनता आई है। बे तो समझते ही हैं कि धर्म अधर्म सब झूठ है। गेरुए वस्त्र वाले साधु लुचे होते हैं, चुपचाप चोरी किया करते हैं । जो लोग घरमें निकम्मे थे और दूसरोंकी कमाई खाते थे उनके लिए एक काम मिल- गया, देखो इस चोरीका क्या रंग खुलता है। ग्राण्डटंक रोड से पश्चिम ओर को चले जाते हुए मैंने राहमें एक जगह पर अपने जीवन के सववस्व पुत्रकों खेलते हुए देखा था। जीमें आया कि जब ईश्वरने एक ऐसा अवसर सौंपा है तब व्यथे कष्ट उठाते फिर- नेकी क्या आवश्यकता है ? उसकी उस सुन्दर और संसारको मोहित करने वाली सूरत को देखकर मेरा हृदय एक बार फ़िर पितृस्नेहसे भर- गया । सोचा कि हाथ में पाये हुए इस रतनको अब छोड़ देना मूर्खता हैं ।