हम लोग उनकी बातोंको बिलकुल ही नहीं समझ रहे थे.। क्योंकि उनकी बातचीत फारसीमें हो रही थी। हम उनकी अंगभंगीको देख रहे थे। मजीद ओर ईरानी स्त्री दोनों पुराने परचित जान पड़ते थे । वे पर- स्पर एक दूसरेकी बात पर हँसते थे बातें करते ही करते दोनोंके नेत्र ज्योतिमेय हो पड़ते थे और बीच बीच में ईरानी रमणीका मुख सिन्दूरी रँंगका हो जाता था। बीचमें मजीदने कुछ कहा कि जिसमें “शादी! शब्द समझमें आया | उनके भावोंको देखकर जीमें जो सन्देह हुआ था अब शादी शब्द कानमें पड़ते ही उसने जड़ पकड़ ली | अब निश्चयसे समझमे आगया कि ये दोनों रसकी बातें कर रहे हैं । क्योंकि “शादी !* का जिकर आते ही लड़कीके मुखपर लाली आ गई थी। मेंने कहा---
मजीद साहब! कया ऐसी बातोंके सुखसे हम लागेंको वंचित रखना ठीक है ? ब्याहकी क्या बातें हो रही हैं ” मजीदने हँसकर कहा---“ यह बड़े ही अफ़सोसकी बात है कि यह अँगरेजी नहीं जानत…
असर बात यह है कि ऐसा साथी छोड़ते हुए हमको बड़ा कष्ट हो रहा था | किन्तु उसका चिन्तासे ग्रसित मुख ओर उसका आग्रह और संकल्पकी इढ़ता देखकर उसके साथ तर्क करनेको जी नहीं हुआ । यह समझनेमें देर नहीं लगी |के वह किसी बड़े व्रतका ब्रती हो गया है। छड़ाईमें जानेसे पूर्व जैसे कि सेनापति चिन्तामें व्याकुल होता है वेसे ही इस विषयमें मजीद भी जान पड़ रहा था | यह बात सप्तमें भी नहीं विचारी थी कि हास्यरसका प्रेमी सदा आनन्दमें रहने- वाला युवक इतना इढ़ प्रातिज्ञ निकलेगा | उसके भावोंकी गति देख- कर ऐसा जान पड़ रहा था ककि यदि वह हम लोगोंको आज ही दिल्लीसे चलागया हुआ नहीं देखलेगा तो दिल्लीका सिंहासन ही उसके हाथसे निकल जायगा !
मेंने कहा---“ क्यें ? कालराके रक्षण तो इस प्रान्तमें दीख नहीं पड़ रहे हैं | तब फिर इतनी भागाभागका क्या कारण है? ” वही पहिलेकासा बिना जँचा हुआ उत्तर देकर ही मजीद साहब हम लोगोंसे अनुरोध करने छगे ॥कि आप छोग आज ही रातको दिल्लीसे चले जायेँ। ” मणीन्द्रने कहा---“ भाई पहले भी तो आज ही दिललीसे चल देनेका वचार था, तब फिर चछो आज चल ही दें।” मैंने कहा--“ चढ्देनेमें मुझको: कोई भी आपत्ति नहीं है, किन्तु यदि मजीदकों साथ लेलिया जाता तो रखनऊमें सुविधा रहती। ” यह बात मेंने मजीदकों भी बतलाई | वह बोला, “ आपलोग तो कुछ दिन ल्खनऊमें ठहंरेहीगे | वहाँ फिर मिलना हो जायगा । मेरा पता लिख लेजाइए और दो तीन दिन पीछे वहीं खोज लीजिए | ”
हमने मजीदका ठिकाना छिख लिया और फिर उसको यथेष्ट धन्य- वाद दिया | यह बात भी ठहर गई कि छखनऊमें हमारा और उसका मिलना होगा। इसके अनन्तर मणीन्द्रने उसके दिल्लीके ठिकानेके- संबंधमं बहुत कुछ पछा, किन्तु चाहे किसी कारणसे भी क्यों न हो, वह हम छोगोंसे अपना दिल्लीका ठिकाना छिपाना चाहता था। इस लिए शिश्ताके विचारसे हमने भी उसको अधिक तंग करना उचित, नहीं समझा |
चीज वस्तु सँभाल कर हम दोनों दिल्लीसे चलदेनेको तैयार हो गये | गाड़ी खड़ी हुईं इन्तजार कर रही थी । होटल का मैनेजर तोताराम अपना हिसाब किताब साफ करानेके लिए पंजाबी भाषामें कुछ गिैड़ाबेड़ गिड़ावेंड़ कर रहा था और मणीन्द्र एक चारपाई पर लेठा हुआ उस वक्त का सारसंग्रह करनेको चेशमें लगा हुआ था। वह मुझसे कहने लगा---
तोताराम इस पुस्तकमें एक: सार्टिफिकट लिखालेजाना चाहता है ।”
मेंने कहा--“ इसमें क्या लगता है? लिख दो कि होटलका रसोइया तरकारीमें नमक नहीं डालता है, बिछोनोंमें खटमल भरे हैं ओर यहँंकि नोकर काछीघाटके भिखारियोंकी भाँति पग पग पर पैसा मोगते हैं । मणीन्द्र थोड़ासा हँसकर उसकी पुस्तकमें आडंबरके साथ लिखने लगा | इतनेहीमें नीचे बड़ा कोछाहल हुआ जिसकी भाषा कि समझमें नहीं आती थी। चौीखें आरही थी । हम सब यह देखनेको उठ बेठे. कि क्या बात है | इतने ही में वह भीड़ हमारे ही यहां चली आई |