इस संसार में जन्म लेने के बाद प्रत्येक मनुष्य *भगवत्कृपा* प्राप्त करना चाहता है | *भगवत्कृपा* तो सब पर निरंतर है , सभी अवस्थाओं में है , सभी स्थान पर है | इस *भगवत्कृपा* का अनुभव हमारे पूर्वजों ने बहुत ही सूक्ष्मता से किया है | *भगवत्कृपा क्या है ?* इसका अनुभव कैसे किया जाय ? यह हमारे पूर्वजों के चरित्रों में देखने को मिलता है , जो ईश्वर प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करते हुए जो मिला उसमें संतोष कर लेता है वह भगवान की कृपा स्वयं पर मानता है | केवल भोगपदार्थों या ऐश्वर्य प्राप्त हो जाने को ही *भगवत्कृपा* मानना बहुत बड़ी मूर्खता है | भोगपदार्थ , ऐश्वर्य , संपत्ति को *भगवत्कृपा* नहीं मानना चाहिए क्योंकि यह सब मनुष्य को माया के मोह के बंधन में बांधने वाले हैं | माया के मोह में बांध कर जो भगवान से अलग कर देने वाली चीज है वह भला *भगवत्कृपा* कैसे हो सकती है ! जब मनुष्य के हृदय से काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार , मत्सर , ईर्ष्या आदि मिट जायं ! मनुष्य सबमें समभाव देखने लगे तो समझो कि *भगवत्कृपा* मिल रही है | राजा बलि ने संपूर्ण विश्व को जीत लिया , सृष्टि के समस्त ऐश्वर्या एवं भोगपदार्थ उसके पास हो गए | देवताओं को भी जीतने का प्रयोजन करने लगा परंतु इतना सब कुछ हो जाने के बाद ही उसको विशेष *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हुई | यद्यपि राजा बलि भगवान के बहुत बड़े भक्त थे और वे स्वयं पर *भगवान की कृपा* मानते थे परंतु उनको *भगवत्कृपा* तब प्राप्त हुई जब भगवान ने उनके सर्वस्व का अपहरण कर लिया | कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि जब वलि भगवान का भक्त था तो भगवान ने उसका सब कुछ क्यों ले लिया ? इसका उत्तर यही कहा जा सकता है भगवान ने अपनी कृपा प्रदान करने के लिए बलि के ऐश्वर्य का अपहरण किया , क्योंकि बलि को भी अपने विषय का अहंकार हो गया था | कहने का तात्पर्य यह है कि *भगवत्कृपा* मात्र सुख में ही ना मानकर करके सुख एवं दुख दोनों में समान रूप से मानना चाहिए ! आज के युग में बहुत से ऐसे लोग देखने को मिलते हैं जो भगवान का भजन करते हैं , भगवान के नाम का जप करते हैं , रामायण और गीता जी का पाठ करते हैं और संसार के भोगों की प्राप्ति में किंचित सफलता प्राप्त होने पर उसे *भगवान की कृपा* मान लेते हैं | जब किसी की कोई कामना पूर्ण हो जाती है , उसका कोई कार्य बन जाता है या लाभ हो जाता है तो यह समझता है कि मेरे ऊपर *भगवत्कृपा* बन गई है | परंतु ऐसे लोगों को देखा जा रहा है जो अनुकूल परिस्थितियों में तो *भगवत्कृपा* मानते है परंतु प्रतिकूल परिस्थितियों में उसके विचार भी प्रतिकूल हो जाते हैं | ऐसे अवसर पर मनुष्य सोचने लगता है कि भगवान बड़े निर्दयी हैं , भगवान की मुझ पर कृपा नहीं है , और अधिक कष्ट होगा तो वह यह भी कह देता है कि भगवान न्याय नहीं करते हैं | कई लोग तो ऐसे भी देखने को मिलते हैं जो यह भी कह देते हैं कि भगवान तो है ही नहीं ! यह सब कोरी कल्पना है , क्योंकि भगवान होते तो इतना भजन करने पर भी हमको इतना कष्ट क्यों मिलता ? ऐसा कहकर लोग भगवान को भी अस्वीकार कर देते हैं | इसलिए अनुकूल स्थिति की प्राप्ति में *भगवत्कृपा* है यह मानना भूल है , परंतु आज जब मनुष्य को सफलताएं प्राप्त होती है तब तो वह उसमें *भगवान की कृपा* मानता है परंतु कुछ दिन बाद जब जब वह अधिक सफल हो जाता है तो भगवान की कृपा को भूल जाता है और यह मानने लगता है कि यह सफलता मेरी मेहनत से मिली है | इस प्रकार मनुष्य को अपनी बुद्धि , का अपने बल का , अपने चतुराई का और अपनी कला का अहंकार हो जाता है | भगवान को भूल कर वह अपने अहंकार की पूजा करने लगता है | तो विचार कीजिए मनुष्य को *भगवत्कृपा* कैसे प्राप्त होगी ? *भगवत्कृपा* का अनुभव अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में बराबर करना चाहिए क्योंकि बिना ईश्वर की इच्छा से इस संसार में कुछ भी नहीं होता | भगवान समदर्शी हैं , *भगवत्कृपा* बराबर सब पर बनी रहती है | मनुष्य का दृष्टिकोण कैसा है यह उस पर निर्भर करता है कि वह स्वयं पर भगवत्कृपा मानता है या नहीं मानता है !*