*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए किसी विशेष साधन की आवश्यकता नहीं होती , क्योंकि *भगवत्कृपा* साधन साध्य नहीं होती बल्कि:--
*यमेषैव वृणुते तेन लभ्य:*
जिन पर सर्वेश्वर श्यामसुंदर स्वयं *कृपाकटाक्ष* कर दें वे ही उनके *कृपाभाजन* हो सकते हैं ! फिर भी जो प्राणी अत्यंत दैन्यभाव से उनकी अनन्य शरण हो जाता है वह उनकी *कृपा का विशेष पात्र* हो सकता है दैन्यभाव ही *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सरल साधन है ! यथा:--
*कृपास्य दैन्यादियुजि प्रजायते*
के अनुसार *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सुलभ साधन दैन्यभाव ही है ! वस्तुतः जिन भक्तों में दीनता , प्रपन्नता , सरलता साधुता है वे ही यथार्थ भक्त हैं ! ऐसे भक्त सर्वदा विनम्रता धारण किए प्रतिक्षण अपनी प्रेमास्पद को पाने के लिए उत्कण्ठित रहते हैं और वे सतत् अपने उपास्य देव के चिंतन में संलग्न रहते हुए उन्हें प्राप्त भी कर लेते हैं ! ऐसे ही स्वाराध्यनिष्ठ भक्तों की दिव्य अवस्था का निरूपण *श्रीब्रह्मपुराण* में बड़ी ही कमनीयता से किया है:--
*कृष्णे रता: कृष्णमनुस्मरन्ति ,*
*रात्रौ च कृष्णं पुनुरुत्थिता ये !*
*ते$भिन्नदेहा: प्रविशन्ति कृष्णे ,*
*हविर्यथा मन्त्रहुतं हुताशो !!*
*अर्थात्:-* जो सदा ही श्याम सुंदर श्री कृष्ण में अपने मन को लगाए रहते हैं और प्रातः सायं प्रतिक्षण उन्हीं का स्मरण करते हैं ! वे दिव्यात्मा रसिक भक्त जिस प्रकार मंत्रप्रयुक्त हवि अग्नि स्वरूप का को प्राप्त कर लेती है वैसे ही अपने प्राण धन जीवन सर्वेश्वर को पा लेते हैं ! यही बात *अनंत कृपापयोधि* भगवान श्रीकृष्ण *श्रीमद्भगवतगीता* में कहते हैं:--
*तेषामहं समुद्धर्ता मृत्यु संसारसागरात् !*
*भवामि नचिरात्यार्थं मय्यावेशितचेतसाम् !!*
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं :- हे प्रिय अर्जुन ! मेरे प्रति अपने अंतर्मन को जो भक्त अर्पित कर देता है अर्थात अपने अनन्य चित्त से मेरी निश्छल भक्ति करता है उनका मैं बहुत शीघ्र ही इस मृत्युस्वरूप भवार्णव से सहज ही समुद्धार कर देता हूं ! ऐसा करने में तत्पर हो जाना मेरा स्वाभाविक स्वरूप है ! वस्तुतः उन अनंतकोष सर्वेश्वर *श्रीहरि की कृपा* ही स्पष्ट परिलक्षित होती है ! अतः साधक भक्तों को उपर्युक्त दैन्यभाव से संचलित होकर निरंतर अपने उपास्य की आराधना में तत्पर रहना ही *भगवत्कृपा* प्राप्ति का सर्वोत्तम सर्व सुलभ साधन है ! कुल मिलाकर *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष न करके दैन्यभाव से भगवान का सुमिरन ही करना है ! यह भगवान की मनुष्यों पर विशेष *भगवत्कृपा* है !
अतः प्रेम से कहो
*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*