*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य उच्च कुल में जन्म लेकर के सुंदर आकृति वाला हो , गुणवान हो , धनवान हो , बलवान हो या फिर बुद्धिमान हो *भगवत्कृपा* कभी गुणों का अर्थ नहीं ग्रहण करती ! यदि ऐसा होता तो निम्न कुल में पैदा हुई माता शबरी को *भगवत्कृपा* न प्राप्त होती , सब प्रकार के गुणों से रहित वानर भालू को *भगवत्कृपा* न प्राप्त होती हनुमान जी स्वयं कहते हैं :---
*न जन्म नूनं महतो न सौभगं ,*
*न वाक्य न हुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतु: !*
*तैर्यद्विसृष्टानपि नो वनौकस-*
*श्चकार सख्ये बत लक्ष्मणाग्रज: !!*
(भागवत /५/११/७)
*अर्थात्:-* हनुमान जी कहते हैं कि:- जब सर्वगुण विहीन बंदर , जिसके नाम से रोटी मिलने में भी बाधा उपस्थित हो सकती है , उस सर्वविधि हीन को भी सजल नयन होकर गुणग्राम सुनने से प्रभु ने *भगवत्कृपा* करके अपना बना लिया तब फिर औरों की बात ही क्या है ! सीता जी के अन्वेषण में जब हनुमान जी लंका में भक्तराज विभीषण से मिलते हैं तो परिचय के आदान-प्रदान में हनुमान जी ने *भगवत्कृपा* का बहुत ही सुंदर भाव प्रदान किया ! *भगवत्कृपा* का सुंदर वर्णन करते हुए हनुमान जी कहते हैं कि :- हे विभीषण ! मेरे जैसे कुलहीन पर भी *भगवत्कृपा* हुई है तो यह कृपानिधान की कृपा ही है ! *भगवत्कृपा* कभी भी कुल एवं धर्म का विचार करके नहीं होती क्योंकि आप स्वयं विचार करें:-
*कहहु कवन मैं परम कुलीना !*
*कपि चंचल सबही विधि हीना !!*
*प्रात लेइ जो नाम हमारा !*
*तेहि दिन ताहि न मिलइ अहारा !!*
*अर्थात्:-* हनुमान जी कहते हैं कि :-हे विभीषण ! सुनिये ! प्रभु की यही रीति है कि वे अपने सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं ! स्वयं विचार कीजिए कि मैं ही कौन सा बड़ा कुलीन (जाति ) का , चंचल बंदर हूं , और सब प्रकार से नीच भी हूँ ! प्रातः काल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उसे दिन भर भोजन नहीं मिलता है ! ऐसे हम बंदरों पर भी *भगवत्कृपा* हुई क्योंकि मैं तो अधम हूँ ! हनुमान जी कहते हैं:--
*अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर !*
*कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर !!*
*अर्थात:-* हे सखा ! सुनो मुझ जैसे अधम पर भी श्री रामचंद्र जी ने कृपा की है ! भगवान के गुणों का स्मरण करके हनुमान जी के दोनों नेत्रों में जल भर आया ! अनेक लोग दु:ख के सागर में डूबते रहते हैं और अनेकानेक दोष ईश्वर पर लगाते रहते हैं ! दु:ख आने पर मनुष्य को शांतचित्त होकर विचार करना चाहिए कि इस दुख का कारण क्या है ? हम पर *भगवत्कृपा* क्यों नहीं हो रही है ! हनुमान जी कहते हैं :- मनुष्य के दुख का एक ही कारण है कि वह सृष्टि में विस्तारित सतत् *भगवत्कृपा* के मूल स्रोत भगवान को ही भूल गया है ! जब मनुष्य भगवान को ही भूल जायेगा तो *भगवत्कृपा* कैसे प्राप्त हो सकती है !
*जानतहूँ अस स्वामि बिसारी !*
*फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी !!*
जो भी प्राणी कृपानिधान प्रभु श्री राम को भुलाकर विषयों के पीछे भटकते रहते हैं वे दुखी क्यों नहीं रहेंगे ? *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान की शरण में आना ही पड़ेगा |