बहुत से लोगों का ऐसा मानना है कि जब *भगवान की कृपा* होती है तब धन , ऐश्वर्य , स्त्री - पुत्र , मान - कीर्ति और शरीर संबंधी अनेकानेक भोगों की प्राप्ति होती है ! जिन लोगों के पास भोगों का बाहुल्य है बस , केवल उन्हीं पर *भगवत्कृपा* है जिनकी भी विपत्ति भगवान टाल देते हैं ! *भगवत्कृपा* का इस प्रकार क्षुद्र अर्थ करने वाले लोग बड़े ही दया के पात्र हैं , ऐसे लोगों को *भगवत्कृपा* का यथार्थ अनुभव नहीं है | वास्तव में संपत्ति या विपत्ति से *भगवान की कृपा* का पता नहीं लग सकता ! *भगवत्कृपा* नित्य है , अपार है और संसार के समस्त प्राणियों पर उस *कृपा सुधा* की अनवरत वर्षा हो रही है | जो लोग उसका यथार्थ अनुभव ना कर केवल विषयों की प्राप्ति को ही *भगवत्कृपा* समझते हैं वही लोग विषयों के नाश या अभाव में भगवान पर पक्षपात और अन्याय तथा कृपालु ना होने का कलंक तक लगा देते हैं ! सत्य तो यह है कि भगवान का कोई भी विधान *कृपाशून्य* नहीं होता !
*भगवत्कृपा बिना न होता ,*
*जग में कोई एक विधान !*
*विषय - वासनाओं में डूबे ,*
*जान न पाते हम अन्जान !!*
*सुख में दुख में नित्य निरन्तर ,*
*कृपा का मिलता हमें प्रसाद !*
*समझ न पाते मूढ़ कृपा को ,*
*घेरे सांसारिक अवसाद !!*
(स्वरचित)
*कृपा* करना तो उनका साधारण स्वभाव है ! पापी प्राणी के दंड के विधान में भी वह *अपनी कृपा का समावेश* कर देते हैं ं यह दूसरा प्रश्न है कि उनकी *कृपा का स्वरूप* कैसा होता है ? इसमें कोई संदेह नहीं कि *कृपा का भीतरी स्वरूप* सदा मनोहर और मधुर होता है परंतु बाहर से वह कभी *सुंदरम् सुंदराणाम्* अर्थात:- सुंदर से भी सुंदर स्वरूप में दर्शन देती है तो कभी *भीषणम् भीषणानाम्* अर्थात्:- भयानक से भयानक रूप में प्रकट होती है ! किसी समय उसका रूप *मृदूनि कुसुमादपि* अर्थात्:- पुष्प से भी अधिक कोमल होता है तो किसी समय *वज्रादपि कठोराणि* अर्थात्:- वज्र से भी अधिक कठोर होता है ! जिन विवेकी की और कल्याणकामी पुरुषों ने विषयों की प्राप्ति के लिए भगवान को साधन नहीं बना रखा है , जो सच्चे त्यागी और प्रेमी हैं वे तो इन दोनों रूपों में उस अनूपरूप की अनोखी अनुकंपा का दर्शन कृतार्थ होते हैं परंतु जो अल्प बुद्धि प्राणी केवल आपात रमणीय विषयों को ही एकमात्र सुख का साधन मानते हैं वे अपरिणामदर्शी और अविवेकी मनुष्य *भगवत्कृपा* के मनोहर रूप को देखकर तो अत्यंत आह्लादित होते हैं और उस भीषण रूप को देख कर भय से काँप जाते हैं ! *भगवत्कृपा* बहुत ही गूढ़ है इसे समझने के लिए *भगवत्कृपा* के रहस्य को समझना बहुत आवश्यक है !
नाना प्रकार के संकल्प विकल्पों और चिंताओं से सांसारिक प्राणी दुखी रहते हैं परंतु *भगवत्कृपा* से एक ही क्षण में उनके सारे दुख एवं चिंताएं नष्ट हो जाती है ! अत: *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए हम को भगवान की शरण में जाना चाहिए ! जब तक अहंकार रहता है तब तक भगवान नहीं आते ! गजेंद्र ने सहस्र दिव्य वर्षों तक अपने बल के अहंकार पर ग्राह से युद्ध किया ! जब उत्साह भंग हुआ , बल समाप्त हो गया तब वह प्रभु की शरण में गया और उस पर *भगवत्कृपा* हुई तथा वह संकट से छूट गया ! दो वस्तुयें ही प्राणी को इस संसार सागर में डूबने से बचाती हैं ! *प्रथम तो अपना पुण्य और दूसरी भगवत्कृपा* ! इसलिए प्रत्येक मनुष्य को शुभ कर्मों द्वारा पुण्य कर्म करते रहना चाहिए और *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए *अकारणकरुणावरुणालय* की शरण में जाना चाहिए ! इस संसार में लोग धनवालों की कृपा चाहती हैं! वे यदि धनवानों के बदले *भगवत्कृपा* का अनुभव करें तो उनके समस्त बंधन छूट जायं क्योंकि *भगवान के बल और कृपा का अनुमान नहीं लगाया जा सकता* जिसे जितना विश्वास होता है उसे उतनी ही शक्ति सिद्धि मिल जाती है और वह *भगवतकृपा* से कृतकृत्य हो जाता है !