जीवन में हम अनेक प्रकार की प्रतियोगिताओं एवं परीक्षाओं से दो-चार होते रहते हैं प्रत्येक प्रतियोगिता एवं परीक्षा का सबसे पहले हमें नियम समझाया जाता है क्योंकि प्रत्येक प्रतियोगिता का नियम विशेष होता है ! जिस प्रकार जीवन में कुछ प्राप्त करने के लिए इन नियमों का पालन करना पड़ता है उसी प्रकार *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भी कुछ नियम बताए गए हैं ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान की शरण में जाना पड़ेगा और भगवान की शरण में जाने के पहले अपने हृदय से छल , कपट , ईर्ष्या , द्वेष , क्रोध , मोह , अहंकार आदि को निकालकर मन को निर्मल बनाना पड़ेगा , क्योंकि भगवान स्वयं कहते हैं :-
*निर्मल मन जन सो मोहि पावा !*
*मोहि कपट छल छिद्र न भावा !!*
अगर मन में यह सब है तो *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए कितने भी साधन कर लिए जायं *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती और जब मनुष्य इन सारे विकारों को निकाल देता है , निर्मल मन से भगवान की शरण में जाता है तो जैसे एक मां अपने बालक की रक्षा करती है उसी प्रकार भगवान अपने भक्तों की रक्षा करती हैं , उसे अपनी शरण प्रदान करते हैं ! राघवेंद्र सरकार ने नारद जी से स्वयं कहा है :--
*सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा !*
*भजहिं जे मोहिं तजि सकल भरोसा !!*
*करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी !*
*जिमि बालक राखइ महतारी !!*
भगवान कहते हैं कि :- हे नारद ! सुनो मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूं कि जो समस्त आशा भरोसा छोड़कर केवल मुझे ही भजते हैं मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूं जैसे माता अपने बालक की रक्षा करती है ! मेरे उस भक्त को कभी भी कोई संकट नहीं आ सकता !
*गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई !*
*तहँ राखइ जननी अरगाई !!*
*अर्थात :-* छोटा बच्चा जब दौड़ कर आग और सांप को पकड़ने लगता है तो वहां माता उसे अपने हाथों से अलग करके बचा लेती है !इसी प्रकार मैं अपने भक्तों की रक्षा करता हूं ! *कहने का तात्पर्य यह है कि* जब तक मनुष्य अपने विकारों का समन करके भगवान की शरण नहीं ग्रहण करेगा तब तक उसे *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती ! जब मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है तो वह सारे संसार में किसी के अहित होने की बात सोच ही नहीं सकता ! फिर चाहे वह शत्रु हो या मित्र सब के लिए मंगल कामना ही करेगा ! यह *विशेष भगवत्कृपा* होती है ! मन के निर्मल हो जाने के बाद मनुष्य समदर्शी हो जाता है | जिस समय हिरणाकश्यप का वध करने के बाद भगवान नरसिंह ने प्रहलाद से वरदान मांगने के लिए कहा तो प्रह्लाद जी ने उनसे कहा कि - हे भगवन ! यदि देना है तो यही दीजिए कि :--
*स्वस्त्यस्तु विश्वस्य खल: प्रसीदतां ,*
*ध्यायन्तु भूतानि शिवं मिथे धिया !*
*मनश्च भद्रं भजतादधोक्षजे ,*
*आवेश्यतां नो मतिरप्यहैतुकी !!*
*अर्थात् :-* प्रहलाद जी ने कहा :- हे अधोक्षज ! विश्व का कल्याण हो , खलों के मन में भी प्रसाद हो , उनकी भी उग्रता मिटे , प्राणी एक दूसरे का कल्याण चाहने लगे , मन अशास्त्रीय - अभद्र वस्तुओं का चिंतन छोड़कर भद्र चिंतन में निरत हो ! हम सब की अहैतुकी मति आप में प्रतिष्ठित हो ! यह वरदान मांगना तभी संभव हो सकता है जब निर्मल मन से भगवान की शरण को प्राप्त करके *विशेष भगवत्कृपा का पात्र* बने ! जब मनुष्य पर *भगवत्कृपा* होती है तो वह भगवान की ही भांति सबको समान रूप से देखने लगता है ! यही भगवान की कृपा का फल है |