इस जगत में आ करके भगवान के विषय में सुनकर प्रत्येक व्यक्ति भगवान का दर्शन करना चाहता है जबकि भगवान अनेक रूपों में संसार में व्याप्त हैं ! माता , पिता , गुरु के अतिरिक्त भगवान का एक रूप भी है *जिसे डॉक्टर या चिकित्सक कहा जाता है* ! यह सत्य है कि :---
*माना जाता जगत में , डॉक्टर को भगवान !*
*रोगी का हित देखकर करता रोग निदान !!*
*कड़वी मीठी औषधि का नहिं देता ध्यान !*
*लक्ष्य एक ही रहता है होवे रोग निदान !!*
(स्वरचित)
एक सद्वैद्य का एक ही लक्ष्य होता है अपने रोगी के रोगों का निदान करना ! वह अपने रोगी को वही औषधि देता है जो उसके रोग का नाश करने वाली होती है ! चिकित्सक यह कभी नहीं देखता कि वह दवा कड़वी है या मीठी ! रोगी के मन के अनुकूल है या प्रतिकूल ! रोगी की इच्छा की वह कोई परवाह नहीं करता ! रोगी यदि कोई कुपथ्य चाहता है तो डॉक्टर उसे डांट भी देता है ! उसके बकने - झकने की और कोई ख्याल नहीं करता और उसके मन के सर्वथा विपरीत उसके लिए कड़वे क्वाथ की व्यवस्था करता है ! वह दूसरे दवा बेचने वालों की भांति मूल्य प्राप्त होते ही मंहगी दवाई नहीं देता ! उसे चिंता रहती है रोगी के हिताहित की , और उसका एक ही उद्देश्य होता है *रोग को समूल नाश कर देना* !
ठीक उसी प्रकार भगवान अपने भक्तों में जिसके जैसा रोग देखते हैं उसके लिए वैसी ही औषधि की व्यवस्था करते हैं ! अन्य देवताओं की भाँति मुँहमांगा वरदान नहीं देते ! उसकी इच्छा क्या है , इसका भी कोई ध्यान नहीं करते बल्कि कोई समय तो उसके मन के सर्वथा विपरीत कर देते हैं ! *एक बार भक्तराज नारद ने माया से मोहित होकर विवाह करना चाहा , भगवान से प्रार्थना भी की परंतु भगवान जानते थे कि इससे इसका अहित होगा , यह भव रोगी के लिए कुपथ्य है इसलिए विवाह नहीं होने दिया ! जिसके परिणाम स्वरूप नारद जी को बड़ा क्रोध आया और भगवान को श्राप दे दिया , भगवान ने भक्तों की इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए श्राप को भी स्वीकार किया परंतु नारद को कर्तव्य से विमुख नहीं होने दिया !* यह भगवान भक्त के ऊपर विशेष *भगवत्कृपा* है !
रोगमुक्त होकर रोगी जब बल को प्राप्त कर लेता है तब उसे सभी कुछ खाने पीने का अधिकार मिल जाता है ! *इसी प्रकार भवरोग से मुक्त होकर भगवत्प्राप्ति कर लेने पर उसको जब भगवान के सर्वस्व का स्वामित्व प्राप्त हो जाता है तब फिर उसे किसी बात की कमी नहीं रहती और ना ही कोई बाधा रहती है !* मनुष्य भूल कर सांसारिक धन-ऐश्वर्य के लिए लालायित रहता है यदि वह चेष्टा करके अतुल ऐश्वर्यशाली परमात्मा को - जिसके एक अंश में यह सारे ऐश्वर्यों से भरा हुआ संसार महान समुद्र में एक बालू के कण के समान स्थित है प्राप्त कर ले तो फिर उसे समस्त पदार्थ आपसे आप प्राप्त हो जाए और यह तभी हो सकता है जब मनुष्य पर *भगवत्कृपा* हो ! *भगवत्कृपा* को समझने के लिए भगवान के प्रत्येक कार्य को विश्वास करके स्वीकार करना ही होगा अन्यथा *भगवत्कृपा* का अनुभव कदापि नहीं हो सकता !
भगवान के प्रत्येक निर्णय में मंगलकामना ही होती है ! भगवान के प्रत्येक विधान का स्वागत राजा बलि की भाँति करना चाहिए ! भगवान के विराट रूप को देखकर राजा बलि बिल्कुल भी नहीं डरे बल्कि भगवान के इस विधान का भी हृदयं खोलकर स्वागत किया :--
*भगवत्कृपा विकट हुई , डरा नहीं बलिराज !*
*हरण हुआ ऐश्वर्य सब , तबहुँ न आई लाज !!*
*बंधन में जकड़ा हुआ , बलि दोनों कर जोर !*
*कृपा नाथ की जानकर , देखत प्रभु की ओर !!*
*भगवत्कृपा बरस पड़ी , मिला सुतल का राज !*
*दैत्यराज अब हो गया , भक्तों का सरताज !!*
(स्वरचित)
राजा बलि ने जब भगवान के विकट स्वरूप को देखा तो घबराया नहीं बल्कि उसका स्वागत किया ! बलि का समस्त धन ऐश्वर्य हरण कर लिया गया , अग्नि परीक्षा हुई परंतु उस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर के वह भक्तराज उस रमणीय और समृद्धि संपन्न सुतल लोक को प्राप्त हुआ जिसकी अभिलाषा देवता भी किया करते हैं ! जहां पर *भगवतकृपा* से कभी आधि - व्याधि , भ्रांति , तंद्रा , पराभव और किसी प्रकार का भी भौतिक उपद्रव नहीं होता ! इतना ऐश्वर्य देकर ही भगवान चुप नहीं रह गए ! *बलि पर भगवत्कृपा निरंतर बरसती रही* और भगवान ने बलि को सावर्णि मन्वंतर में इंद्र होने के लिए वरदान तक दे दिया ! यही तो *भगवत्कृपा* की विशेषता है कि जब भगवान देते हैं तो खूब देते हैं और जब लेते हैं तो सब कुछ ले लेते हैं परंतु इन दोनों स्थितियों में ही *भगवत्कृपा* को स्वीकार करके उसका स्वागत करना चाहिए !