जब मनुष्य पर दु:ख आ जाय तब यह समझना चाहिए कि यह *भगवत्कृपा* है ! क्योंकि सुख और दु:ख दोनों में *भगवत्कृपा* बराबर मिलती है ! परंतु लोग अपने अनुसार ही *भगवत्कृपा* का भी आंकलन करते है ! आज देखने को मिल रहा है :---
*सुख सम्पत्ति लक्ष्मी पाकर ,*
*लोग बहुत इतराते हैं !*
*कोई पूछे तो खुश होकर ,*
*भगवत्कृपा बताते हैं !!*
*दुख की तनिक झलक देखी तो ,*
*अपना होश गँवाते हैं !*
*बड़ा निर्दयी है ईश्वर तो ,*
*पिर यह आरोप लगाते हैं !!*
(स्वरचित)
यह मनुष्य की मानसिकता होती है परंतु हमें इतिहास - पुराणों से कुछ सीखना चाहिए ! *श्रीमद्भागवत महापुराण* के अन्तर्गत वामनावतार की कथा में *भगवत्कृपा* की सुंदर झलक देखने को मिलती है ! जब भगवान ने वामन अवतार धारण करके बलि के ऐश्वर्य का हरण किया , जिसमें भगवान ने भक्त बलि को बांध लिया और उन बंधनों को बलि ने *परम भगवतकृपा* मानी ! उस समय बलि के पितामह *परम भक्त प्रह्लाद जी* वहां आए ! *भगवत्कृपा* का मर्म जानने वाले *प्रह्लाद जी* ने आते ही भगवान से कहा कि हे भगवन:-
*त्वयैव दत्तं पदमैन्द्रमूर्जितं ,*
*हृतं तदेवाद्य तथैव शोभनम् !*
*हृतं महानस्य कृतो ह्यनुग्रहो ,*
*विभ्रंशतो यच्छ्रिय आत्ममोहनात् !!*
(भागवत/८/२२/१६)
*अर्थात्:-* प्रहलाद जी कहते हैं कि हे प्रभु आपने ही बलि को यह परिपूर्ण इंद्रपद दिया था अब आज आपने ही उसे छीन लिया ! *आपका देना जैसा सुंदर है वैसा ही सुंदर लेना भी है* मैं समझता हूं यह आपकी बहुत भारी *भगवत्कृपा* है जो आत्मा को मोहित करने वाली राजलक्ष्मी से इसे अलग कर दिया आगे *प्रह्लाद जी* ने पुनः कहा:-
*यया हि विद्वानपि मुह्यते यत-*
*स्तत् को विचष्टे गतिमात्मनो यथा !*
*तस्मै नमस्ते जगदीश्वराय वै ,*
*नारायणायाखिललोकसाक्षिणे !!*
(भागवत/८/२२/१७)
*अर्थात्:-* प्रह्लाद जी कहते हैं :- लक्ष्मी की प्राप्ति से तो विद्वान पुरुष की भी मतिभ्रष्ट हो जाती है ! उस लक्ष्मी के रहते कौन पुरुष आत्मतत्व को यथार्थ रूप को कैसे जान सकता है ! उस लक्ष्मी को छीन कर महान उपकार करने वाले , *विशेष भगवत्कृपा करने वाले* समस्त जगत के महान ईश्वर , सबके हृदय में विराजमान और सबके परम साक्षी श्री नारायण देव को नमस्कार करता हूं ! भगवान ने भी प्रह्लाद की इस कथन का समर्थन करते हुए कहा कि :- *मैं जिस पर कृपा करता हूं उसका धन वैभव पहले हर लेता है क्योंकि मनुष्य धन-संपत्ति और ऐश्वर्य के मद से मतवाला होकर जीवो का और मेरा निरादर करता है* जिस धन-संपत्ति से इतना अनर्थ होता है केवल उसी की प्राप्ति को ही *भगवत्कृपा* मानना कितनी बड़ी भूल है , परंतु उपर्युक्त भगवान के वचनों से कोई यह समझकर न तो काँप उठे कि भगवान तो अपने भक्तों के धन ऐश्वर्य का ही नाश किया करते हैं ! यह बात नहीं है ! *भगवतकृपा* के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं:- *विभीषण की लंका का अटल राज्य , ध्रुव को अचल संपत्ति और दरिद्र सुदामा को अतुल ऐश्वर्य भगवान ने ही दिया है* जैसी अवस्था होती है उसी प्रकार की व्यवस्था करके भगवान अपनी कृपा बरसाते हैं ! उद्देश्य एक ही होता है कि भक्तों का कल्याण ! यह है *भगवत्कृपा* का रहस्य ! भगवान कृपासिंधु की कृपालुता का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कवितावली में कहते हैं :--
*जहाँ जमजातना घोर नदी ,*
*भट कोटि जलच्चर दंत टेवैया !*
*जहाँ धार भयंकर वार न पार ,*
*न वोहितु नाव न नीक खेवैया !!*
*तुलसी जहँ मातु पिता न सखा ,*
*नहिं कोउ कहूँ अवलम्ब देवैया !*
*तहाँ बिनु कारन राम कृपाल ,*
*बिसाल भुजा गहि काढ़ि लेवैया !!*
(कवितावली /७/५२)
इस प्रकार कृपा निधान की कृपा अपने भक्तों पर बरसती है !