इस संसार में जन्म लेने के बाद प्राय: मनुष्य को शिकायत होती है कि हमने जीवन भर पुण्य किया , धर्म किया , कर्म किया परंतु हमें *भगवतकृपा* नहीं प्राप्त हुई , न तो भगवान की झलक ही दिखाई पड़ी ! ऐसे अनेक लोग मंदिरों में जाकर भगवान से शिकायत किया करते हैं ! ऐसे ही लोगों के लिए भगवान स्वयं कहते हैं कि :- हे मानव ! मैंने विशेष *भगवतकृपा* करके तुमको यह सुंदर मनुष्य का शरीर दिया ! भगवान कहते हैं :---
*पास रहता हूं तेरे सदा मैं अरे ,*
*तू नहीं देख पाए तो मैं क्या करूं !*
*मूढ़ मृगतुल्य चारों दिशाओं में तू ,*
*ढूंढने मुझको जाए तो मैं क्या करूं !!*
भगवान कहते हैं :- मैं तो स्वयं तुम्हारे अंदर हूँ और तू मुझको ढूंढने के लिए मंदिरों में जाता है ! अपने हृदय में मेरा दर्शन नहीं कर पाता तो इसमें मेरा क्या दोष है ! मैं कहीं बाहर नहीं हूं क्योंकि तू मेरा ही अंश है !
*ईश्वर अंश जीव अविनाशी*
*भगवत्कृपा* प्रदान करने के लिए जब मनुष्य शिकायत करता है तब भगवान कहते हैं :--
*कोसता दोष देता सदा तू मुझे ,*
*मुझको यह न दिया मुझको वह न दिया !*
*श्रेष्ठ सबसे मनुज तन तुझे दे दिया ,*
*सब्र तुझको न आए तो मैं क्या करूं !!*
भगवान कहते हैं कि :- हे मनुष्य ! यह मेरी *विशेष भगवत्कृपा* ही है कि मैंने तुझको मनुष्य का शरीर दिया है ! वह मनुष्य का शरीर जिसके लिए देवता भी तरसते रहते हैं ! यह शरीर बड़े भाग्य से मिलता है ! *मानस* में बाबा जी ने लिखा है :--
*बड़े भाग मानुष तन पावा !*
*सुर दुर्लभ सदग्रंथनि गावा !!*
यह मानव शरीर पाकर भी अगर तुझे शिकायत है तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है ! जब मनुष्य को कोई रोग हो जाता है तो सारा दोष भगवान को देता है ! *भगवान कहते हैं:-* हे मनुष्य ! आज तेरा शरीर यदि रोगी हो गया है उसमें भी मेरा दोष नहीं है ! यह सारा दोष तेरे आहार ?खान-पान) का है , जिसने शरीर को रोगी बना दिया ! भगवान कहते हैं :--
*फूल फल शाक मेवा व मिष्ठान्न सब ,*
*मधुर आहार मैंने है तुझको दिये !*
*तू तंबाकू अमल मद्य मांसादि खा ,*
*रोग तन पर लगाए तो मैं क्या करूं !!*
इस प्रकार *भगवत्कृपा* सदैव मनुष्य के आसपास होती है परंतु मनुष्य उसका अवगाहन नहीं कर पाता है ! भगवान ने तो प्रतिज्ञा कर रखी है , अपनी प्रतिज्ञा को सुनाते हुए भगवान कहते हैं :--
*भक्त हमारो पग धरै , तहां धरौं मैं हाथ !*
*लारे लागो ही फिरूं , कबहु न छोड़ों साथ !!*
विचार कीजिए जब भगवान स्वयं हमारे साथ रहने के लिए तत्पर हैं तब भी हम *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं तो इसमें दोष हमारा है कि भगवान का ? देव दुर्लभ मानुष तन जब *विशेष भगवत्कृपा* होती है तभी प्राप्त होता है क्योंकि:--
*कबहुँक करि करुना नर देहीं !*
*देत ईस बिनु हेतु सनेही !!*
*अर्थात:-* बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी विरले ही दया करके जीव को मनुष्य का शरीर देते हैं फिर भी मनुष्य कहता है कि हमारे ऊपर *भगवत्कृपा* नहीं हुई तो विचार कीजिए की माया से भ्रमित हो करके मनुष्य किसका बुरा कर रहा है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए दैन्यभाव से भगवान का भजन करना ही सर्वश्रेष्ठ साधन है ! भगवान का कोई दोष नहीं है ! भगवान तो सदैव अपनी कृपा सर्वत्र लुटाते रहते हैं ! यथा:-
*नित्य निरंतर सहज रूप में ,*
*है प्रभु मंगल कृपा निधान !*
*मंगलमय होता है उनका ,*
*इसीलिए प्रत्येक विधान !!*
*देख न पाते हम अदूरदर्शी ,*
*उनकी यह कृपा महान !*
*भय निषाद में डूबे रहते ,*
*व्यर्थ इसी से दुर्मतिमान !!*
कहने का तात्पर्य है कि भगवान का प्रत्येक विधान मंगलमय है ! *भगवत्कृपा* सतत सब पर बरस रही है परंतु अपनी दुर्मति के कारण उस *विशेष भगवत्कृपा* को हम आप न जान पाते हैं न पहचान पाते हैं और सारा दोष भगवान को देते हैं ! *इस संसार में अगर कुछ है तो है कृपा ! कृपा !! कृपा !!! और भगवतकृपा ही है !* इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है !
अतः प्रेम से कहो
*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*