समस्त सृष्टि में ब्रह्म एवं माया का ही विस्तार है ! ब्रह्म की अनुगामिनी माया सबको अपने वश में करके नचाती रहती हैं ! जहां ब्रह्म चराचर जगत में व्याप्त है वहीं माया के लिए भी लिखा गया है कि :-
*गो गोचर जहँ लगि मन जाई !*
*सो सब माया जानेहुँ भाई !!*
*अर्थात :-* जहां तक इंद्रियां पहुंचें , जहां तक मन सोच सकता है वह सब माया ही है और इस माया से पार पाने के लिए अनेकों साधन बताए गए हैं परंतु सत्य यह है कि *भगवत्कृपा* के बिना भगवान की माया को पार पाना असंभव है ! प्रायः लोग माया के पीछे भागा करते हैं ! माया के प्रपंचों में भ्रमित होकर के ब्रह्म को भूल जाते हैं उनको शायद यह नहीं पता होता है कि:-
*सो माया रघुवर कै दासी !*
वह माया तो भगवान की दासी है यदि भगवान को पकड़ लिया जाय तो माया स्वयं दासी बन जाएगी , परंतु मनुष्य इस बात पर विचार नहीं कर पाता ! यह स्पष्ट है कि संपूर्ण प्राणी सर्वान्तरात्मा सर्वाधिष्ठान भगवान के ही अंश है , *जैसे जल से तरंग , अग्नि से चिंगारियां , महाकाश से घटाकाश , उदंचनाकाश आदि उत्पन्न होते हैं वैसे ही संपूर्ण चेतन वर्ग की उत्पत्ति भगवान से होती है !* वस्तुतः अत्यंत निरूपाधिक तत्व में वास्तविक अंशांशिभाव भी नहीं बन सकता क्योंकि निरवयव , निरंश में अवयव एवं अंश की भावना सर्वथा असंभव है ! जैसे अविकृत कौन्तेय (कर्ण) में भ्रम से ही राधासुत होने की भ्रांति हो गई वैसे ही प्रत्यकचैतन्याभिन्न स्वप्रकाश चिद्रूप में ही भ्रम से जीवभाव भासित होता है ! यह तभी होता है जब मनुष्य माया के भंवर जाल में फंसा होता है ऐसे में *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान की शरण ग्रहण करने से ही यह *भगवतकृपा* प्राप्त हो पाती है ! इसलिये कहना है कि :-
*छोड़ो माया की गली , चलो ब्रह्म की ओर !*
*भगवत्कृपा बरस रही , सकल सृष्टि चहुँ ओर !!*
माया का प्रपंच ऐसा ऐसा थे कि वह मनुष्य को दीन हीन अवस्था में पहुंचा देती है ! मनुष्य माया के प्रपंचों से भयभीत हो जाता है , उसका साहस टूट जाता है , ऐसे में वह विचार करने लगता है कि : अब इस (माया) से निकलकर *भगवतकृपा* प्राप्त करना बिल्कुल असंभव ! परंतु सत्य तो यह है कि *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए कभी भी देर नहीं होती ! *सुबह का भूला यदि शाम को घर आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते हैं* भगवान के ऊपर दृढ़ श्रद्धा और विश्वास बना करके निरंतर प्रयास करने से *भगवत्कृपा* को प्राप्त कर पाना भी संभव हो जाता है ! इसीलिए कहना है :--
*भय मत करो न साहस छोड़ो ,*
*रक्खो प्रभु पर दृढ़ विश्वास !*
*प्रभु की कृपा सहज कर देगी ,*
*सब बाधा विघ्नों का नाश !!*
*करते रहो सदा श्रद्धा से ,*
*प्रभु के ही प्रीत्यर्थ प्रयास !*
*जा पहुंचोगे सुख पूर्वक तुम ,*
*परम लक्ष्य भगवत के पास !!*
कहने का तात्पर्य है कि निरंतर भगवान के ऊपर श्रद्धा भक्ति के साथ विश्वास करके अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहने से *भगवत्कृपा* प्राप्त हो जाती है क्योंकि भगवान कृपा के सागर हैं !