*भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सबसे सरल साधन भगवान से प्रेम ! जो भगवान से प्रेम करता है वह यह नहीं देखता कि हमको सुख मिल रहा है कि दुख ! कैसी भी परिस्थिति हो उसके प्रेम में कमी नहीं आती ! जो ऐसा करता है उसे ही *भगवत्कृपा* प्राप्त होती है ! अपने फायदे के लिए भगवान की पूजा करना भगवान से प्रेम करना नहीं हो जाता है ! जिस प्रकार चातक पर यदि उसका प्रियतम मेघ पत्थरों की वर्षा करें तो क्या मेघ से वह प्रेम करना छोड़ देता है ? क्या उसके प्रेम में कुछ भी अंतर पड़ता है ? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं :--
*उपल बरषि गरजत तरजि डारत कुलिस कठोर !*
*चितव कि चातक मेघ तजि , कबहुँ दूसरी ओर !!*
भयानक बज्रापात से चातक के प्राण भले ही चले जायं परंतु प्रेमी चातक दूसरी तरफ नहीं ताकता ! इसी प्रकार भक्त भी नित्य निरंतर निश्चिंत होकर रहता है ! उसे ना तो दुखों से उद्वेग होता है और ना ही सुखों से प्रसन्नता ! ऐसे ही लोग भगवान को प्यारे होते हैं गीता में भगवान ने कहा है:-
*यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति !*
*शुभाशुभ परित्यागो भक्तिमाने य: स मे प्रिय: !!*
(गीता १२/१७)
*अर्थात:-* भगवान कहते हैं जो न कभी हर्षित होता है , ना द्वेष करता है , ना शोक करता है और ना किसी प्रकार की आकांक्षा करता है ! जो शुभाशुभ दोनों का त्यागी है वह भक्तिमान (पुरुष) मुझको प्रिय है ! इस प्रकार भक्त जैसे संपत्ति में उसी की मूर्ति देखकर संदेहशून्य रहता है वैसे ही विपत्ति में भी उसी की मनमोहिनी मधुर छवि का दर्शन कर नि:संशय रहता है ! इसमें कोई संदेह नहीं कि लौकिक की दृष्टि से समय-समय पर *भगवत्कृपा* का स्वरूप बड़ा ही भीषण होता है यथा:-
*अग्नि में डाले गये प्रह्लाद ,*
*मीरा ने पाया है विष का प्याला !*
*सदन कसाई को हाथ कट्यो ,*
*हरिदास की पीठ से खून निकाला !!*
*मान इसे भगवान कृपा ,*
*भक्तों ने सहा है दुष्टों का भाला !*
*सुख में हंसी नहिं दुख में रुदन ,*
*बस भजते रहो यशुदा जी को लाला !!*
(स्वरचित)
भक्तों के ऊपर कभी - कभी ऐसी भीषण *भगवत्कृपा* भी होती है ! प्रह्लाद को अग्नि में डाला जाता है , मीरा को विष का प्याला दिया जाता है , सदन के हाथ काटे जाते हैं और हरिदास की पीठ से बेतों की मार से खून बहने लगता है परंतु धन्य है उन प्रेमी और प्रेम के उपासक भक्तों को कि जो प्रत्येक अवस्था में शांत और निश्चित देखे जाते हैं ! उनकी स्थिति में तिल भर भी अंतर नहीं पड़ता ! कितने प्रगाढ़ विश्वास और भरोसे की बात है ! एक जरा सा कांटा गड़ जाय तो चिल्लाहट मच जाती है , अग्नि की जरा सी चिंगारी का स्पर्श होते ही मन तलमला उठता है , परंतु वे भक्तगण जो परमात्मा के प्रेम के लिए अपने आप को खो चुके हैं बड़े चाव से सारी यातनाओॉ और क्लेशों को सहते हैं ! उन ईश्वरगतप्राण भक्तों को प्रेम के लिए न सूली पर चढ़ने में भय लगता है और ना धड़कती अग्नि में कूदने से प्रेम के लिए मस्तक को तो वे हाथों में लिए फिरा करते हैं :-
*प्रेम न बाड़ी ऊपजै , प्रेम न होट बिकाय !*
*राज परजा जेहि रुचै , शीश देइ लै जाय !!*
जब भक्तों पर कट जाता है तो सांसारिक लोग कहते हैं कि - देखो बेचारे को कितना कष्ट हो रहा है , बेचारे ने सारे जीवन राम का नाम लिया परंतु कभी सुख की नींद नहीं सोया ! लोग तो यह भी कह देते हैं कि आजकल भगवान के यहां न्याय नहीं रह गया है , यह तो बेचारा चौबीसों घंटा भजन ही किया करता था और इसी पर दुखों का पहाड़ टूट रहा है ! परंतु जो भक्त होता है वह दुखों को भी *भगवत्कृपा* मानकर के ऐसे लोगों की बातों पर हंसता हैं क्योंकि ऐसे भक्त विपत्ति - संपत्ति को लात मारकर ऊंचे उठे हुए हैं ! सांसारिक लोग जिसे कष्ट मानते हैं भगवान का प्रेमी भक्त उसे भी *भगवत्कृपा* ही मानता है , क्योंकि वह जानता है कि यदि आज हमको कष्ट मिला है तो इसमें भी *भगवत्कृपा* निहित है क्योंकि *भगवत्कृपा* निरंतर सब पर बरस रही है , बिना उसके संसार में पत्ता तक नहीं हिलता |