भगवान सदेव भक्तों की रक्षा के लिए , उनको अनेकों ताप ताप एवं रोगों से बचाने के लिए कष्ट दिया करते हैं ! यह उनकी *विशेष भगवत्कृपा* है जैसे किसी अबोध बालक के एक जहरीला फोड़ा हो जाय वह असहनीय वेदना में तड़प रहा हो और बालक की माता चिकित्सक को बुलाकर के उसकी चिकित्सा करवाने का प्रयास करें ! यदि चिकित्सक कह दे कि इसकी शल्यक्रिया (ऑप्रेशन) करनी पड़ेगी नहीं तो बालक मर सकता है ! तब माता बालक के हित के लिए शल्यक्रिया अर्थात चीरा लगवाना भी स्वीकार कर लेती है !
*मातु चिराव कठिन की नाईं*
(मानस)
जब चिकित्सक उस फोड़े में चीरा लगाने लगता है उस समय उसके परिणामस्वरूव अबोध बालक को असहनीय पीड़ा होती है और वह क्षणिक वेदना से व्यथित होकर जोर जोर से रोना प्रारंभ कर देता है और चीरा लगवाने वाली अपनी माता को भी प्रत्यक्ष शत्रु समझ कर भला बुरा कहने लगता है परंतु यह अपने बालक पर माता की *कृपा* ही होती है मानस में बाबाजी कहते हैं :--
*जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर !*
*व्याधि नास हित जननी गनइ न सो सिसु पीर !!*
माता ने बालक के रोने और बकने की कोई परवाह नहीं की और उसे जोर से पकड़ लिया ! शल्यक्रिया हो गयी , चीरा लगाते ही अंदर का सारा विष बाहर निकल पड़ा , बालक की समस्त पीड़ा मिट गई और वह सुख पूर्वक सो गया ! बालक अज्ञान से चीरा लगवाने में रोता है और समझदार लोग जानबूझकर चीरा लगवाते हैं !
बस इसी दृष्टांत के अनुसार :--
*तिमि रघुपति निज दास कर हरहिं मान हित लागि !*
*तुलसिदास ऐसे प्रभुहिं कस न भजहुँ भ्रम त्यागि !!*
*भगवत्कृपा* करने के लिए भगवान भी अपने प्यारे भक्तों के समस्त आंतरिक दोषों को निकाल कर बाहर फेंक देने के लिए समय-समय पर शल्यक्रिया किया करते हैं ! उस समय सांसारिक संकटों का पार नहीं रहता परंतु इस सारी रूद्र लीला में कारण होती है केवल एक - *वह है भक्त की आत्यंतिक हित कामना* ! जिस प्रकार दयामयी जननी अपने प्यारे बच्चे के अंग का सड़ा हुआ अंश कटवाकर फेंक देती है उसी प्रकार भगवान भी अपने प्यारे बच्चों की हितकामना के लिए उनके अंदर विषय को निकाल कर फेंक दिया करते हैं ! ऐसी अवस्था में परिणामदर्शी विश्वासी भक्त को तो आनंद होता है और विषयासक्त अज्ञानी मनुष्य रोया करते हैं ! *भगवत्कृपा* के इस रहस्य को न समझ पाने के कारण ही मनुष्य भगवान पर अनेकों प्रकार के दोषारोपण किया करता है , परंतु वह तो *कृपासिंधु है* और अपने भक्तों पर सतत *भगवत्कृपा* की वर्षा किया करते जिसे सभी लोग नहीं समझ पाते !
*भगवत्कृपा* की अद्भुत छटा का क्या खूब वर्णन किया गया है :--
*गर्भ बीच अर्भक की रक्षा कर जन्म देती ,*
*देख-रेख करती जवानी चढ़ती की है !*
*देती है कलत्र पुत्र कुल को बढ़ाती और ,*
*भूलें साफ माफ कर देती जिंदगी की है !!*
*भजन कराती है बिरक्ति उपजाती ,*
*चित्त शुद्ध करती भक्ति-मुक्ति अति नीकी है !*
*भींजते नहीं है वे जो तर्क के वितान ताने ,*
*बरसै हरी कि कृपा सब पै सरीखी है !!*
*अग-जग ऊपर बरसती अखण्ड रूप ,*
*सीमा पार करती जमीन आसमान की !*
*प्रेमी कवि दूरी की जरा भी मजबूरी नहीं ,*
*बिना कान सुनती है सबके जबान की !!*
*शूल बन आती कभी फूल बन बन आती ,*
*पर जानी नहीं जाती विरलों ने पहचान की !*
*भव वरुणालय के तारण को केवल ,*
*अकारण कृपा है प्रभु करुणानिधान की !!*
इस प्रकार सम्पूर्ण जीवन में *भगवत्कृपा* हम पर बरसती रहती है !