असीम *भगवत्कृपा* होने पर यह मानव शरीर मिला है ! इस मानव शरीर को पाने के बाद भी मनुष्य को इसकी उपयोगिता नहीं समझ में आती और मनुष्य विषय वासनाओं में फंसकर सब कुछ भूल जाता है ! यह शरीर मिलने के बाद ईश्वर का धन्यवाद देते हुए वूर्वकृत् जन्मों के समस्त कृताकृत पापों का विनाश करने का प्रयास करना चाहिए ! क्योंकि :--
*बड़े भाग मानुष तन पावा !*
*सुरदुर्लभ सद्ग्रन्थहि गावा !!*
(मानस)
बड़ी असीम *भगवत्कृपा* एवं भाग्य से देवताओं को भी यह जो मानव शरीर हमको मिला है ! यह है क्या ? इसके विषय में गोस्वामी जी कहते हैं :--
*साधन धाम मोच्छ कर द्वारा !*
*पाइ न जेहि परलोक संवारा !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* यह मनुष्य का शरीर अतुलनीय है जिसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता ! यह साधनों का भण्डार एवं आवागमन से मुक्ति का द्वार है ! इसलिए इसे *विशेष भगवत्कृपा* मानकर कल्याण के पथ पर अग्रसर होना चाहिए ! क्योंकि इस सृष्टि में चौरासी लाख योनियाँ है ! परंतु :--
*नर तन सम नहिं कवनिउ देही !*
*जीव चराचर जांचत तेही !!*
(मानस)
मानव शरीर के समान कोई दूसरा शरीर (योनि) है ही नहीं यह मानव शरीर की दिव्यता ही है कि चराचर के जितने जीव हैं सब मानव शरीर प्राप्त करने के लिए ईश्वर से याचना किया करते हैं ! क्योंकि चौरासी के चक्कर में पड़े जीव इस आवागमन से मुक्ति के लिए छटपटाते रहते हैं ! मुक्ति का मार्ग है मानव शरीर ! गोस्वामी जी इसे स्पष्ट करते हैं :--
*नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी !*
*ग्यान विराग भगति सुख देनी !!*
(मानस)
*भगवत्कृपा* से मिला यह मानव शरी ज्ञान , भक्ति एवं वैराग्य के साथ - साथ स्वर्ग , नर्क एवं मोक्ष प्राप्त करने की सीढ़ी भी है ! परंतु हम इसे *भगवत्कृपा* न मान करके इसे अपने ढंग से जीने का प्रयास करने लगते हैं तथा *भगवत्कृपा* का निर्धारण भी अपनी सुविधा के अनुसार करने लगते हैं | सुख मिला तो *भगवत्कृपा* और दुख मिल गया तो भगवान निर्दयी हैं ! जबकि सत्य यह है कि :- जब मनुष्य केवल संसार के अनुकूल भोग पदार्थो की प्राप्ति में *भगवत्कृपा* मानता है , तो वह बड़ी भारी भूल करता है | भगवान की कृपा तो निरन्तर है , सबपर है और सभी अवस्थाओ में हैं ; किन्तु जो ये अनुकूल भोग पदार्थ है, जिनमे अनुकूल बुद्धि रहती है , ये सब तो मनुष्य को माया के , मोह के बन्धन में बाँधने वाले होते है ! माया के मोह में बाँधकर जो भगवान से अलग कर देनेवाली चीज है, उसकी प्राप्ति में *भगवत्कृपा* मानना कहाँ की बुद्धिमत्ता है | पर होता यह है कि जब मनुष्य भगवान का भजन करता है , भगवान के नामका जप करता है , रामायण और गीतादि का पाठ करता है और संसार के भोगों की प्राप्ति में जरा-सी सफलता प्राप्त हो गयी , तो मनुष्य *भगवत्कृपा* मानने लगता है ! जहाँ मनुष्य अनुकूल भोगो में *भगवान की कृपा* मानता है , वहाँ प्रतिकूलता होने पर वह उल्टा ही सोचेगा | वह कहेगा *भगवान बड़े निर्दयी हैं* भगवान की *मुझ पर कृपा नहीं है |* अधिक क्षोभ होगा तो वह यहाँ तक कह देगा कि *भगवान हैं ही नहीं* यह सब कोरी कल्पना है | भगवान होते तो इतना भजन करने पर भी ऐसा क्यों होता | इस प्रकार प्रलाप करके मनुष्य भगवान को अस्वीकार कर देता है | *इसलिए अमुक स्थिति की प्राप्ति में भगवत्कृपा है, यह मानना ही भूल है |* पहले-पहले जब मनुष्य को सफलता मिलती है , तब तो उसमे वह *भगवान की कृपा* मानता है , पर आगे चल कर वह कृपा रुक जाती हैं , छिप जाती है, वह कृपा को भूल जाता है | फिर तो वह अपनी कृत्यों एवं अपने ही अहंकार को प्रधानता देता है | *अमुक कार्य मैंने किया , अमुक सफलता मैंने प्राप्त की | इस प्रकार वह अपनी बुद्धि का , अपने बल का , अपनी चतुराई का , अपने कला-कौशल का घमण्ड करता है , अभिमान करता है |* भगवान को भूलकर वह अपने अहंकार की पूजा करने लग जाता है | सफलता मैंने प्राप्त की है , इसलिये मेरी पूजा होनी चाहिये | मैंने धनोपार्जन किया , मैंने विजय प्राप्त किया , मैंने अमुक सेवा की , मैंने राष्ट्र का निर्माण किया , मैंने राज्य , देश तथा धर्म की रक्षा की’ इस प्रकार सर्वत्र प्रत्येक कर्म में अपना *अहम्* लगाकर वह अहंका पूजक और प्रचारक बन जाता है और जब इस ‘अहम्’ की, ‘मैं’ की पूजा नहीं होती, उसमे किसी भी प्रकार का किंचित भी व्यवधान उपस्थित होता है, तब वह बौखला उठता है , दल बनाता है और परस्पर दलबंदी होती है | राग-द्वेष एवं शत्रुता का वायुमंडल बनता है, बढ़ता है | *मनुष्य जब ऐसे किसी प्रवाह में बहने लगता है , तब भगवान दया करके ब्रेक लगाते है | उसे उस पतन से लौटने के लिए भगवान कृपा करते है |* मनुष्य के अहंकार का विनाश करने के लिए जब भगवान उसके अहम् को खींचकर उसे दीन हीन बना देते हैं तब होती है वास्तविक *भगवत्कृपा* !!