*भगवत्कृपा* बहुत ही गूढ़ है इसे प्राप्त करने के लिए किसी भी मार्ग से भगवान की भक्ति करने की आवश्यकता होती है ! भगवान ने अपनी *कृपा* से अनेकों पापियों का उद्धार किया है परंतु इन पापियों ने भी जाने अनजाने में भगवान की भक्ति की तब उनका उद्धार हुआ ! यही तो *भगवत्कृपा* की गूढ़ता है :- कहा गया है :--
*अनुग्रहो लोकसिद्धो गूढ़भावान्विरूपित: !*
*देवगुह्यत्वसिद्ध्यर्थं नामध्यानार्चनादिकम् !!*
*पुरस्कृत्य हरेर्वीयं नामादिषु निरूप्यते !!*
*अर्थात्:-* लोक में समझा जाता है कि भगवान्नाम लेने से अजामिल की मुक्ति हुई , परंतु वस्तुतः केवल अनुग्रह अथवा *भगवत्कृपा* से ही उसका उद्धार हुआ था ! लोक में मर्यादा का पूर्ण लोप ना हो जाय इसलिए भगवान मर्यादा मार्गीय साधनों (नवधा भक्ति आदि) की स्थिति रखे हुए हैं ! इसी से अनुग्रह को देवगुह्य - गूढ़भाव बताया है ! यही *भगवत्कृपा* की गूढ़ता है ! भगवान अपने भक्तों को अनेक प्रकार से *कृपा* प्रदान करते हैं ! मनुष्य के कौन से कर्म पर *भगवत्कृपा* हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता ! अनेकों उदाहरण ऐसे पड़े हैं की जीव ने न पूजा किया है न पाठ फिर भी उसे *भगवत्कृपा* प्राप्त हो गई ! *सूरदास जी* ने लिखा है :--
*दीन न दुख हरन देव संतन सुखकारी !!*
*अजामील गीध ब्याध , इनमें कहो कौन साध ,*
*पंछीहूं पद पढ़ात , गनिका सी तारी !!*
*दीनन०----*
*ध्रुव के सिर छत्र देत , प्रहलाद को उबार लेत ,*
*सीता हेतु बांध्यो सेत , लंकपुरी जारी !!*
*दीनन०------*
*तंदुल देत रीझ जात , साग पात सों अघात,*
*गिनत नहीं झूठे पल , खट्टे मीठे खारी !!*
*दीनन०-----*
*गज को जब ग्राह ग्रस्यो , दु:शासन चीर खस्यो ,*
*सभा बीच कृष्ण कृष्ण , द्रौपदी पुकारी !!*
*दीनन०----*
*इतने हरि आय गये बसनन अारुढ़ भये ,*
*सूर कूर द्वारे ठाढ़ो आँधरो भिखारी !!*
*दीनन दुख हरन देव संतन सुखकारी !!*
*अर्थात्:--* सूरदास जी महाराज कहते हैं :- हे भगवन ! आपकी *कृपा* बड़ी गूढ़ है ! इस *भगवत्कृपा* की गूढ़ता को सभी लोग नहीं जान सकते हैं ! हे दीनजनों के दुखों को हरने वाले एवं संतजनों को सुख देने वाले बताइए :- कदचारी अजामिल , गीध योनि में उत्पन्न जटायु और आपके चरणों में बाण मारने वाले ब्याध , इन्होंने कौन सी साधना की थी जो इन पर *भगवत्कृपा* हुई ! आपने तोते को भगवान्नाम का अभ्यास कराने वाली पतित गणिका को भी तार दिया ! भक्तराज बालक ध्रुव को आपने आश्रय एवं वैभव प्रदान किया तथा भागवत रत्न बालक प्रहलाद को घोर कष्टो से उबारकर रक्षा की ! सीता जी के लिए सेतुबंधन करके लंकापुरी को जीत लिया ! आप निर्धन सुदामा के मुट्ठी भर चावलों के उपहार पर ही रीझ गए और इसी प्रकार विदुर के घर साधारण भोजन से ही संतुष्ट हो गये ! आपने शबरी के खट्टे मीठे और कसैले फल की प्रशंसा करके प्रेम से खाए ! *भगवत्कृपा* की सुंदर झलक तब देखने को मिली जब गजेंद्र को ग्राह ने अपना ग्रास बनाना चाहा तब हे श्रीहरि आप तत्काल आ गए , तथा जब दु:शासन द्रौपदी का चीर हरण करना चाह रहा था और उस भरी सभा में द्रोपदी ने कृष्ण कृष्ण पुकारा तो भा आप तत्काल आ गये और उसके वस्त्रों में आरूढ़ होकर उन्हें ही बढ़ा दिया | *सूरदास जी कहते हैं* कि जब इन लोगों पर आपकी *विशेष भगवत्कृपा* हो सकती है तो हे दीनजनों के दुखों को हरने वाले एवं संतजनों को सुख देने वाले भगवन ! यह निर्दय अंधा भिखारी सूरदास आपके द्वार पर खड़ा है हम पर भी *भगवतकृपा* की कुछ बूंदे गिरा दीजिए ! हम पर भी कृपा कीजिए !
*भगवत्कृपा* की याचना करते हुए
प्रेम से कहो
*!! भगवत कृपा ही केवलम् !!*