*भगवत्कृपा* कई रूपों में मनुष्य को प्राप्त होती है ! *गुरुकृपा , संत कृपा हनुमत्कृपा आदि अनेक रूपों में यह मानव मात्र का कल्याण करती है !* सकल सद्गुण के आगार अंजनानंदन श्री हनुमान जी दया के धाम हैं ! कृपा की मूर्ति है ! जो पवन कुमार अपने परम प्रभु का दर्शन करते ही आनंदसिंधु निमग्न हो जाते हैं वे श्री रामचरणानुरागी कल्पान्त तक इस भूतल पर क्यों रहना चाहते हैं ? इसका एक ही कारण है कि वे अनवरत श्री राम की कथा का श्रवण करना चाहते हैं ! इसके साथ ही पृथ्वी के नर नारियों के प्रति उनकी *सहज कृपा* सबसे बड़ा हेतु है ! गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने अपनी कालजयी रचना श्रीरामचरितमानस श्री हनुमान जी की प्रेरणा एवं उनकी *कृपा* से ही प्रारंभ की ! रामचरितमानस की रचनाक्रम में हनुमान जी पद - पद पर तुलसीदास जी की सहायता करते गये ! तुलसीदास जी ने प्रेम से अभिभूत होकर लिखा :--
*तापर सानुकूल गिरिजा हर ,*
*लखन राम अरु जानकी !*
*तुलसी कपि की कृपा विलोकनि ,*
*खानि सकल कल्यान की !!*
(विनय पत्रिका ३०/३)
*अर्थात्:-* तुलसीदास जी कहते हैं :- जिस पर सब प्रकार के कल्याणों की खानि *श्री हनुमान जी की कृपा दृष्टि है* उस पर पार्वती , शंकर , लक्ष्मण , श्री राम और जानकी जी की सदा कृपा बरसती रहती है ! तुलसीदास जी पर आजीवन *हनुमत्कृपा* बनी रही ! मानस मर्मज्ञ बताते हैं कि श्रीरामचरितमानस की रचना के समय तुलसीदास जी को जहां भी कठिनाई का अनुभव होता था वह हनुमान जी का सुमिरन करते थे और हनुमान जी अविलंब प्रकट होकर उनकी सहायता किया करते थे ! यह *हनुमत्कृपा* विशेष रुप से तुलसीदास जी को इसलिए प्राप्त थी क्योंकि उन पर विशेष *भगवत्कृपा* थी ! तुलसीदास जी महाराज मानस लिखते समय कहीं-कहीं पर भ्रमित हो जाते थे तब हनुमान जी स्वयं उनकी सहायता किया करते थे , क्योंकि हनुमानजी बुद्धिमानों में श्रेष्ठ *बुद्धिमतां वरिष्ठम्* कहे गए हैं ! मानस में हनुमान जी की सहायता उनकी कृपा स्पष्ट झलकती है ! दो स्थान तो जगत प्रसिद्ध हैं !
*प्रथम स्थान :-* श्री शंकर जी के तप के समय कामदेव के व्यापक प्रभाव का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी ने लिखा:-
*धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे*
लिखने को तो तुलसीदास जी ने आधा सोरठा लिख दिया , लेकिन यह लिख देने पर उनको चिंता हो गयी ! क्योंकि *काहूँ* और *सब के* मैं तो श्रीनारदादि कि देवर्षि और विरक्त भक्त भी आ गए जिन्हें काम विकार स्पर्श भी नहीं करता ! तुलसीदास जी को चिंता हुई कि हमने गलत लिख दिया तब उन्होंने हनुमान जी का स्मरण किया ! तुलसीदास जी पर *हनुमत्कृपा* हुई ! हनुमान जी प्रकट हुए और उन्होंने सोरठे की दूसरी लाइन पूरी करते हुए लिख दिया:---
*जे राखे रघुवीर ते उबरे तेहि काल महुँ*
*अर्थात:-* उस समय कामदेव के प्रभाव से वही बचा जिसके हृदय में श्री रघुवीर थे ! इस प्रकार पहले स्थान पर स्पष्ट *हनुमत्कृपा* देखने को मिलती है !
*द्वितीय स्थान:-* जनकपुर में धनुष यज्ञ का वर्णन करते समय श्री तुलसीदास जी ने सोरठा लिखा :--
*संकर चाप जहाज सागरु रघुबर बाहुबल !*
*बूड़ सो सकल समाज:-----*
इतना लिखकर के तुलसीदास जी की लेखनी अकस्मात रुक गई ! क्योंकि :- *"सकल समाज"* में तो महाराज जनक , महर्षि विश्वामित्र और धनुष को स्पर्श भी न करने वाले नरेश तथा न जाने कितने लोग आ गए ! तुलसीदास जी की बुद्धि भ्रमित हो गई ! उन्होंने फिर से हनुमान जी से प्रार्थना की और हनुमान जी ने प्रकट होकर के सोरठे को पूरा करते हुए लिखा :--
*चढ़ा जो प्रथमहिं मोहबस*
इतना ही नहीं ! तुलसीदास जी ने जब जब कठिनाई का अनुभव किया तब तब मंगलमूर्ति पवननंदन का स्मरण किया और *हनुमान जी की कृपा* उन पर बरसी ! *भगवतकृपा* अपने अनेकों रूप में भक्तों का कल्याण किया करती है ! *भगवतकृपा* प्राप्त करने का एक ही साधन है भगवान के चरण शरण का आश्रय लेना ! जब मनुष्य भगवान के चरणों का आश्रय ले लेता है तो अनेकों रूप में *भगवतकृपा* उस पर बरसने लगती है !