बिना *भगवतकृपा* के इस संसार में कुछ भी नहीं हो सकता , कोई भी सिद्धि करनी हो , कुछ प्राप्त करना तो उसके लिए *भगवत्कृपा* का होना बहुत आवश्यक है क्योंकि *भगवतकृपा* के बिना इस संसार में पत्ता तक नहीं हिलता है ! लिखा गया है :--
*तेरी सत्ता के बिना हे प्रभु मंगल मूल !*
*पत्ता तक हिलता नहीं खिले न कोई फूल !!*
इस संसार में जब तक *भगवतकृपा* नहीं होगी तब तक न तो एक पत्ता हिल सकता है और ना ही कोई फूल खिल सकता है ! *भगवत्कृपा आखिर है क्या ?* यदि इस पर विचार किया जाए तो हमारे उपनिषदों में पढ़ने को मिलता है कि *भगवान की इच्छा थी भगवत्कृपा है* यथा:--
*ईश्वरोच्छया तृणमपि वज्रीभवति*
(केनोपनिषद ३/१)
अर्थात्:- श्री भगवान की इच्छा या लीलाशक्ति के बिना एक तृण या पत्ता तक नहीं हिल सकता ! अथवा तृण भी *भगवत्कृपा* से वज्र बन जाता है ! इस सृष्टि में जितने भी प्राणी है है उनका सबका जीवन *भगवत्कृपा* पर ही आश्रित है क्योंकि मनुष्य बिना प्राणवायु के जीवित नहीं रह सकता और प्राणवायु तभी प्राप्त हो सकती है जब इस सृष्टि में पवन देवता की कृपा हो ! पवन देवता की कृपा भी *भगवत्कृपा* के बिना नहीं हो सकती ! क्योंकि :- *भगवत्कृपा* के बिना जब एक पत्ता तक नहीं हिल सकता तो पवन देवता की कृपा कैसे मिल सकती है ! यही तो बताया जा रहा है :-
*न प्राणेन नपानेन मर्त्यो जीवति कश्चन !*
*इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपीश्रितौ !!*
*अर्थात्:-* प्राणी का जीवन केवल प्राण एवं अपान पर निर्भर नहीं है किंतु वह दोनों जिस पर आश्रित रहते हैं यह भगवान ही प्राण तथा अपान के व्यापारों का अर्थ हैं ! इसलिए जीवन में *भगवत्कृपा* परमावश्यक है , यह बात सब को समझना चाहिए ! जो लोग *भगवत्कृपा* को नहीं मानते हैं या जिन को यह लगता है कि हमारे ऊपर *भगवत्कृपा* नहीं है यह उनकी मूर्खता है ! यदि किसी को *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं हो रहा है या उसको *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो रही है तो यह समझ लेना चाहिए कि उस व्यक्ति ने *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का निश्चय ही नहीं किया ! क्योंकि मेरा मानना है कि:--
*कृपा कृपामय की सदा करती है कल्यान !*
*निज निश्चय अनुसार ही मिलते हैं भगवान !!*
जिसकी जैसी भावना होती है भगवान उसको उसी प्रकार प्राप्त होते हैं ! इसलिए *भगवत्कृपा* को प्राप्त करने के लिए *भगवत्कृपा* का अनुभव करने का प्रयास करना ही पड़ेगा क्योंकि इस संसार में *भगवत्कृपा* के अतिरिक्त और कुछ है हा नहीं ! भगवान समदर्शी हैं सभी जीवों पर उनकी कृपा बरस रही है ! विशेष रूप से मानव योनि पर तो *विशेष भगवत्कृपा* है क्योंकि मनुष्य भगवान को अतिप्रिय हैं इसकी घोषणा स्वयं भगवान ने की है :---
*सब मम प्रिय सब मम उपजाये !*
*सब ते अधिक मनुज मोहिं भाये !!*
*अर्थात्:-* भगवान कहते हैं कि सबको हमने ही उत्पन्न किया है इसलिए सभी हमको प्रिय हैं परंतु इन सभी में मनुष्य हमको अतिप्रिय हैं ! चौरासी लाख योनियों में सबसे प्रिय भगवान को मनुष्य है और उसी मनुष्ययोनि को प्राप्त करके भी यदि *भगवत्कृपा* का अनुभव न हो पाये तो यह जीवन व्यर्थ ही है ! यह जीवन निरर्थक न जाने पाये इसलिए *भगवत्कृपा* की प्राप्ति एवं अनुभव करते रहने का प्रयास अवश्य करना चाहिए !
अत: प्रेम से बोलो :--
*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*