भगवान कितने *कृपालु* हैं उनकी *कृपा* कैसी है ! यह कोई कैसे बतला सकता है ! वह तो *कृपामूर्ति* हैं ! *उनमें कृपा ही कृपा है* वहां न्याय नहीं है , इंसाफ नहीं है यही कहना पड़ता है ! उनकी *कृपाशक्ति* इतनी विचित्र है कि वह जहां भी कोई न्याय का प्रसंग आता है वही उस न्याय में प्रवेश कर जाती है और न्याय को तत्काल *कृपा* के रूप में बदल देती है ! सच्ची बात तो यह है कि *भगवान सदा कृपामय ही हैं , उनमें कृपा ही कृपा है !* इसलिए उनका न्याय भी *कृपामूलक* ही है ! अतः निरंतर उनकी *कृपा* पर विश्वास रखना चाहिए और उस परमा करुणामयी *मां कृपादेवी* के चरणों पर अपने को बिना शर्त न्योछावर कर देना चाहिए और *कृपादेवी* की *कृपा* के लिए भगवान से याचना करनी चाहिए कि:--
*नयनं गलदश्रुधारया ,*
*वदनं गदगदरुद्धया गिरा !*
*पुलकैर्निचितं वपु: कदा ,*
*तव नामग्रहणे भविष्यति !!*
*अर्थात्:-* हे प्रभु ! आपकी परम स्वतंत्रा उस *कृपादेवी* की ऐसी *कृपा* मुझ पर कब होगी कि आपका नाम ग्रहण करते समय मेरे नेत्र अश्रुधार से , मेरा मुख गदगद वाणी से और मेरा शरीर पुलकावलियों से व्याप्त हो जाएगा ! भगवान का नाम दीनदयाल है अर्थात दीनों पर दया करने वाले ! जब यह पता है कि भगवान दीनों पर दयालु होते हैं तो मनुष्य को यह भी जान लेना चाहिए की *भगवतकृपा* वास्तव में तभी प्राप्त होगी जब मनुष्य दीन होगा क्योंकि:--
*भगवत्कृपा दीन का धन है ,*
*है उस पर उसका अधिकार !*
*नहीं योग्यता की आवश्यकता ,*
*नहीं देश कुल धर्म विचार !!*
*नहीं प्रश्न अधिकारी का कुछ ,*
*नहीं शर्त कुछ नहीं करार !*
*हो विश्वास परम दृढ़ केवल ,*
*दीनबंधु पर बिना विचार !!*
*अर्थात :-* इस संसार में *भगवत्कृपा* तो दीनों का धन है और उस धन पर दीनों का ही अधिकार है ! इसमें योग्यता की कोई आवश्यकता नहीं है ना ही देश , कुल और धर्म का विचार करना है ! *भगवत्कृपा* का अधिकारी हर व्यक्ति है इसलिए अधिकार का भी कोई प्रश्न नहीं उठता है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने में कोई शर्त भी नहीं है ! बिना विचार किए भगवान पर श्रद्धा एवं विश्वास बनाये रख कर के *भगवत्कृपा* प्राप्त की जा सकती है ! एक प्रश्न मन में यह हो सकता है कि *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए क्या दीन बनना आवश्यक है ? जी हां ! यदि आप दीन बन जाएंगे तो आपको *विशेष भगवत्कृपा* प्राप्त हो जाएगी क्योंकि :-
*यस्मिन् स्वयमपराधी नमति , रहस्तं सहायनिर्विण्ण: !*
*कृपयति सा जनमात्रं दैन्यावस्था महाजनं किमुत !!*
*अर्थात्:-* अपराधी यदि निस्सहाय हो , दीन भाव से उस व्यक्ति की जिसके प्रति उसने अपराध किया है शरण ग्रहण कर लेता है तो उसकी दीनता उसे उस व्यक्ति का *कृपापात्र* बना देती है ऐसा व्यक्ति यदि कोई महापुरुष हो तो फिर क्या कहना ? क्योंकि महापुरुष स्वभाव से ही दयालु होते हैं ! जब मनुष्य दीन भाव से शरण में आए हुए के अपराध क्षमा कर सकता है तो हमारे परमात्मा तो *अकारण करुणावरुणालय* उनकी तो बात ही दूसरी है ! स्वयं को दीन मानते हुए जहां भी रहे वही पर भगवान का भजन करता रहे तो भगवान स्वयं *कृपा* करने के लिए पहुंच जाते हैं ! इसका ज्वलंत उदाहरण माता शबरी हैं , जिन पर *कृपा* करने के लिए भगवान स्वयं उनके आश्रम पर पहुंचे ! भगवान ने उनके हाथों से फल तो खाए ही साथ ही *कृपासिंधु* श्री राघवेंद्र ने शबरी के देहत्याग के बाद उनको जननी की भांति अपने हाथों से जलांजलि भी प्रदान की :--
*तेहि मातु ज्यों रघुनाथ अपने हाथ जल अंजलि दई*
(गीतावली ३/१७/८)
विचार कीजिए ऐसा कृपालु स्वामी और कौन होगा और ऐसी *भगवत्कृपा* कहाँ मिलेगी !
अत: प्रेम से कहो
*‼️ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼️*