यह रचना "बेटियाँ" प्रतियोगिता में सम्मलित की गयी है। इस पर वोट करने के लिए इस रचना के अंत में दिए गए वोट के बटन पर क्लिक करें।रचनाकार- Ravindra Singh Yadavविधा- कविता बीसवीं सदी में,प्रेमचंद की निर्मला थी बेटी ,इक्कीसवीं सदी में,
कल आज और कल की चिंता में गुज़र गयी ज़िंदगीकभी इस पल को जी कर देखो दुख तकलीफें बहुत है ज़िंदगी मेंसुख के पल, कम ही सहीउन्हें खुल कर जी कर तो देखोलोग मिलते बिछुड़ते बहुत हैं ज़िंदगी मेंसाथ में जो हैं उन के साथ जी कर तो देखो नफ़रत दुश्मनी करने वालों की कमी नहींमोहब्बत करने वाले, कम ही सहीवक़्त उनके साथ
चाहें ना चाहें हमको ज़मानातुम चाहते हो हमको, यही काफ़ी है याद रखे ना रखे हमको ज़माना तुम्हारी यादों में रहूँ, यही काफ़ी है करे ऐतबार या ना करे, ज़माना तुम्हारा भरोसा बनकर रहूँ, यही काफ़ी है मिले ना मिले यह ज़माना हो तुझ पर इख़्तियार, यही काफ़ी है करे ना करे पूरी ख़्वाहिश यह ज़माना तुम्हारी मुराद बनक
सोचता हूँ आज फिर बच्चा बन जाऊ,बड़ो की इस दुनिया से आजाद हो जाऊ| आज फिर दोस्तों की महफ़िल सजाउ,वही पुराने किस्से दोहराउ, बड़े होकर कुछ बनने की कहानी सुनाऊ,सोचता हूँ आज फिर बच्चा बन जाऊ...आज फिर उन पुराने दोस्तों के बिच खेल ने जाऊ,और फिर सुबह से शाम बस खेलता जाऊ, माँ क
ऐ यार ! तू मदद कुछ इस तरह से कर,कि तेरी उधारी और मेरा कर्ज एक साथ चुकता हो जाये|
लिखें प्रेम कविताएँ...लिखें देशप्रेम लिखें दया... लिखें वफा लिखें हरियाली... लिखें जीवन लिखें व्यंजन... लिखें रंग लिखें भाईचारा... लिखें सुकून लिखें अमन... लिखें बसंत लिखें औरत का मान... लिखें ख्वाब लेकिन बार्डर पे छलनी सीनों पे.. सड़क किनारे भिखमंगो पे अखबारों की मैली
क्यूँ कल पर अपने रोता है क्यूँ कल में भागा करता है कल बीता ना बदलेगा ना कल पर तेरा वश है , सुनले मिला वक़्त बस आज का है खुशियाँ बाट , जी भर के जीलेकोई रंक हुआ है राजा शहजादे भी हुए फटीचर मिट्टी की ही पूजा
अगर पौधा लगाया है उसे पानी तो देना है धूप मिलती रहे उसको सभी लोगों से कहना हैअगर तुम भूल जाओगे तो वो फ़िर जड़ फैलाएगा जिधर से मिलती होगी धूप उधर ही झुकता जाएगाजड़े जब दूर तक उस वॄक्ष की सब फैल जाएँगी लाख कोशिश करो वो कभी वापस ना आएँगीअगर शाखें भी उस पेड़ की तुम काट डालोगे उसकी फैली हुई हर जड़ को कहो
माना के बदल रही है दुनिया पर तुम न बदलजाना मेरे दोस्त। खजाना भरा होगा दोस्तो से तेरा मेरे पास बचे है चन्द पुराने दोस्त। वो बीते हुए दिन वो पुरानी यादें अब वही अनमोल खजाना है मेरा दोस्त।. बदलते जमाने ने बदलदी काय
लो गई..उतार चढ़ाव से भरीये साल भी गई...गुजरता पल,कुछ बची हुई उम्मीदेआनेवाली मुस्कराहटों का सबब होगा,इस पिंदार के साथ हम बढ़ चले।जरा ठहरो..देखोइन दरीचों से आती शुआएं...जिनमें असिर ..इन गुजरते लम्हों की कसक, कुछ ठहराव और अलविदा कहने का...,पयाम...नव उम्मीद के झलककुसुम के महक का,जी शाकिर हूँ ..कुछ चापों
चेहरा छिपाने, चेहरे पर लगाए रखी है दाढ़ीमाशूका की याद मे कुछ बढ़ाए रखी है दाढ़ी||दाढ़ी सफेद करके, कुछ खुद सफेद हो लिएकितने आसाराम को छिपाए रखी है दाढ़ी ||दाढ़ी बढ़ा कर कुछ, दुर्जन डकैत कहाने लगेकुछ को समाज मे साधु बनाए रखी है दाढ़ी ||चोर की दाढ़ी मे तिनका, अब कहाँ मिलता हैचोरों ने तो यहाँ कब की कटाए
सभ्यता की सीढ़ियाँ सहेजता समाज नैतिकता के अदृश्य बोझ से लड़खड़ा रहा है निजता की परिधि हम से मैं तक सिकुड़ चुकी है. उन्नत उजालों में दिखता नहीं आदमियत का भाव स्वार्थ की अँधेरी रात में अपनत्व का
तुम्हें इस बात का हक है की तू अपने गुमान करअपने सफलताओ अपने काम का गुणगान कर
मंजूर कर दो इस्तीफा मेरा,हुस्नपरस्ती की चाकरी सेअच्छी तो खूब लगती है,पर अब होती नहीं मुझसे !.और ले जाओ ये पुलिंदाकागजात का, जिसमेंलिखा है सारा हिसाबतेरा-मेरा और हमारा का !.खून-ए-दिल से भरीये दवात भी ले जाओजो एक भी हर्फ़ नहींलिखती किसी और को !.और हिसाब कर दो पूरा मेरे मेहनताने का,बची-खुची मेरी ज़िंदगीम
(1) ये मंच प्रखर ससाहित्य नूतन रंग शुद्ध परिधान रचना नवरूपा॥ (2) हैं मित्र सहज मिलें जुलें अपनापन गलियाँ गलियाँ उत्साह बढ़ाती है॥ महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी
अग्रेज चले गये, भारत के टुकड़े हो गये जनतंत्र आ गया, ७० साल बीत गये, पर आज भी बहुत कुछ बदला नहीं || मिट्टी का टुकड़ा समझ के, नया देश बनाया गया सीमाए बन गयी, दीवारे खाड़ी हो गयी पर आज भी लोगो में बेचनी तो है
सच है की तुमसे है ज़्यादा,तुम्हारा ख़्याल ख़ूबसूरत क्यूँकि इसमें हक़ीक़त के दाग़ों का शुमार नहींढल जाता है ये मेरी पसंद से …घंटो बैठता है मेरे नज़दीक ये मेरी आँखों में आँखें डाल, पकड़ कर मेरे हाथो कोदे जाता है गरमाहटठंडी अकेली शामों में अक्सर…मेरी उदासियों का गवाह बनकेचुपचाप रहता है नज़दीक मेरे बिना
समाचार पढ़ा सरकारी अस्पताल में एक नवजात को नर्स ने हीटर के पास सुलाया. राजस्थान से आयी इस खबर ने अंतर्मन को झकझोर दिया नवजात शिशु के परिजनों से नर्स को इनाम न मिला
एक मुक्त काव्य...... “यही तो सिखाते थे” सुबह शाम बाग में होती थी चहल पहल सहारे की लकड़ी हाथों में टहल टहल कुछ का दौड़ना कुछ का थकना दंड बैठक भगाड़े पर तरीके से रहना धूल में सान सान कर दांव आजमाते थे हमारे पहलवान बाबा यही तो सिखाते थे॥ अनपढ़ अखाड़े पर कुश्ती का तमगा भीगे हुये चने संग प
यूँ तो कुछ नहीं बताने को..चंद खामोशियाँ बचा रखे हैंजिनमें असीर है कई बातें जो नक़्श से उभरते हैंखामोशियों की क्या ? कोई कहानी नहीं...ये सुब्ह से शाम तलक आज़माए जाते हैंक्यूँकि हर तकरीरें से तस्वीरें बदलती नहीं न हि हर खामोशियों की तकसीम लफ़्जों में होतीरफ़ाकते हैंं इनसे