पिछले दिनों मेरी रूह और मेरा जिस्म दोनों अ’लील थे। रूह इसलिए कि मैंने दफ़अ’तन अपने माहौल की ख़ौफ़नाक वीरानी को महसूस किया था और जिस्म इसलिए कि मेरे तमाम पुट्ठे सर्दी लग जाने के बाइ’स चोबी तख़्ते के मानिंद अकड़ गए थे।
दस दिन तक मैं अपने कमरे में पलंग पर लेटा रहा। पलंग... उस चीज़ को पलंग ही कह लीजिए जो लकड़ी के चार बड़े बड़े पायों, पंद्रह-बीस चोबी डंडों और डेढ़ दो मन वज़नी मुस्ततील आहनी चादर पर मुश्तमिल है, लोहे की ये भारी भरकम चादर निवाड़ और सुतली का काम देती है। इस पलंग का फ़ायदा ये है कि खटमल दूर रहते हैं और यूं भी काफ़ी मज़बूत है, या’नी सदियों तक क़ायम रह सकता है।
ये पलंग मेरे पड़ोसी सलीम साहब का इनायत करदा है। मैं ज़मीन पर सोता था चुनांचे उन्होंने मुझे ये पलंग जो उन्हीं के कमरे के साथ मिला था, मुझे दे दिया। ताकि में सख़्त फ़र्श पर सोने के बजाय लोहे की चादर पर आराम करूं। सलीम साहब और उनकी बीवी को मेरा बहुत ख़याल है और मैं उन का बहुत ममनून हूँ। अगर मैं मा’मूली से मा’मूली चारपाई भी बाज़ार से लेता तो कम अज़ कम चार या पाँच रुपय ख़र्च हो जाते।
ख़ैर, छोड़िए इस क़िस्से को। मैं ये बात कर रहा था कि पिछले दिनों मेरी रूह और मेरा जिस्म दोनों अलील थे। दस दिन और दस रातें मैंने ऐसे ख़ला में बसर कीं जिसकी तफ़सील मैं बयान ही नहीं कर सकता। बस ऐसा मालूम होता था कि मैं होने और न होने के बीच में कहीं लटका हूँ। लोहे के पलंग पर लेटे लेटे यूं भी मेरा जिस्म बिल्कुल शॅल हो गया था। दिमाग़ वैसे ही मुंजमिद था जैसे ये कभी था ही नहीं। मैं क्या अ’र्ज़ करुँ, मेरी क्या हालत थी।
दस दिन इस हैबतनाक ख़ला में रहने के बाद मेरे जिस्म की अ’लालत दूर हो गई।
दस का अमल था। धूप सामने कारख़ाने की बलंद चिमनी से पहलू बचाती कमरे के फ़र्श पर लेट रही थी। मैं लोहे के पलंग पर से उठा, थके हुए जिस्म में अंगड़ाई से हरकत पैदा करने की कोशिश के बाद जब मैंने कमरे में निगाह दौड़ाई तो मेरी हैरत की कोई इंतहा न रही।
कमरा वो नहीं था जो पहले हुआ करता था। मैंने ग़ौर से देखा, दाएं हाथ कोने में ड्रेसिंग टेबल थी। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसा मेज़ हमारे कमरे में हुआ करता था मगर उसका पालिश इतना चमकीला कभी नहीं था और बनावट के ए’तबार से भी उसमें इतनी खूबियां मैंने कभी नहीं देखी थीं। कमरे के वस्त में जो बड़ा मेज़ पड़ा रहता था वो भी मुझे नामानूस मालूम हुआ। उसका बालाई हश्त पहलू तख़्ता चमक रहा था। दीवार पर पाँच छः तस्वीरें आवेज़ां थीं जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थीं।
इनमें से एक तस्वीर मेरी निगाह में जम गई। मैं बढ़ा और उसको क़रीब से देखा। जदीद फोटोग्राफी का बहुत उम्दा नमूना था। हल्के भोसले रंग के काग़ज़ पर एक जवाँ-साल लड़की की तस्वीर छपी हुई थी। बाल कटे हुए थे और कानों पर से इधर को उड़ रहे थे, सीना सामने से नाफ़ के नन्हे से दबाओ तक नंगा, इस नर्म-ओ-नाज़ुक उ’रियानी को उसकी गोरी बाहें जो उसके चेहरे तक उठी हुई थीं, छुपाने की दिलचस्प कोशिश कर रही थीं।
पतली पतली, लंबे लंबे नाखुनों वाली उंगलियों में से चेहरे की हया छन छन कर बाहर आरही थी। कोहनियों ने नन्हे से पेट के इख़्तितामी ख़त पर आपस में जुड़ कर एक दिलकश तिकोन बना दी थी जिसमें से नाफ़ का गुदगुदा गढ़ा झांक रहा था। अगर इस छोटे से गढ़े में डंडी गाड़ दी जाती तो उस का पेट सेब का बालाई हिस्सा बन जाता।
मैं देर तक इस नीम उ’रियां-ओनीम मस्तूर शबाब को देखता रहा। मुझे हैरत थी कि ये तस्वीर कहाँ से आगई। इसी हैरत में ग़र्क़ मैं गुस्लख़ाना की तरफ़ बढ़ा। कमरे के चौथे कोने में नल के नीचे फ़र्श में सिल लगी हुई है। उसके एक तरफ़ छोटी सी मुंडेर बना दी गई है।
ये जगह जहां जस्त की एक बाल्टी, साबुन-दानी, दाँतों के दो ब्रश। दाढ़ी मूंडने के दो उस्तुरे, साबुन लगाने की दो कूचियां, मंजन की बोतल और पाँच छः इस्तेमाल शुदा और ज़ंग-आलूद ब्लेड पड़े रहते हैं, हमारा गुस्लख़ाना है। नज़ीर साहब जिनका ये कमरा है, अलस्सुबह बेदार होने के आ’दी हैं। चुनांचे दाढ़ी मूंड कर वह फ़ौरन ही ग़ुस्ल से फ़ारिग़ हो जाते हैं। मैं सोया रहता हूँ और वो मज़े से नंगे नहाते रहते हैं।
इस ग़ुस्लख़ाने की तरफ़ जाते हुए मैंने एक बार फिर तमाम चीज़ों पर निगाह दौड़ाई। अब मुझे वो किसी क़दर मानूस मालूम हुईं। मुंडेर पर मेरा उस्तुरा और घिसा हुआ ब्रश उसी तरह पड़ा था जिस तरह मैं रोज़ देखा करता था। बाल्टी भी बिला शक-ओ-शुबहा वही थी जो हर रोज़ निगाहों के सामने आती थी। उसमें डोंगा भी वही था जिसमें जा-ब-जा गढ़ों में मैल जमा रहता था।
मुंडेर पर बैठ कर जब मैंने ब्रश से दाँत घिसने शुरू किए तो मैंने सोचा कमरा वही है जिसमें एक सौ बीस रातें मैं गुज़ार चुका हूँ... रातें, मैंने ग़ौर किया, मुआ’मला साफ़ हो गया। कमरे और उसकी अशिया के नामानूस होने की सबसे बड़ी वजह ये थी कि मैंने उसमें सिर्फ़ एक सौ बीस रातें ही गुज़ारी थीं।
सुबह सात या आठ बजे जल्दी जल्दी कपड़े बदल कर जो मैं एक दफ़ा बाहर निकल जाता तो फिर रात को ग्यारह बारह बजे के क़रीब ही लौटना होता था। इस सूरत में ये क्यों कर मुम्किन था कि मुझे कमरे की साख़्त और उसमें पड़ी हुई चीज़ों को देखने का मौक़ा मिलता और फिर न कमरा मेरा है और न उसकी कोई चीज़ मेरी मिल्कियत है और ये भी तो सच्ची बात है कि बड़े शहर इंसानियत के मर्क़द-ओ-मदफ़न होते हैं।
मैं जिस माहौल में चार महीने से ज़िंदगी बसर कर रहा हूँ, इस क़दर यकसाँ और यक-आहंग है कि तबीयत बारहा उकता गई है। जी चाहा है कि ये शहर छोड़ कर किसी वीराने में चला जाऊं। सुबह जल्दी जल्दी नहाना, फिर उ’जलत में कपड़े पहन कर दफ़्तर में काग़ज़ काले करते रहना, वहां से शाम को फ़ारिग़ होकर एक और दफ़्तर में छः सात घंटे उसी उकता देने वाले काम में मसरूफ़ रहना और रात के ग्यारह बारह बजे अंधेर ही में कपड़े उतार कर सलीम के दिए हुए आहनी पलंग पर सोने की कोशिश करना... क्या ये ज़िंदगी है?
ज़िंदगी क्या है? ये भी मेरी समझ में नहीं आता। मैं समझता हूँ कि ये ऊनी जुराब है जिसके धागे का एक सिरा हमारे हाथ में दे दिया गया है। हम इस जुराब को उधेड़ते रहते हैं, जब उधेड़ते उधेड़ते धागे का दूसरा सिरा हमारे हाथ में आ जाएगा तो ये तिलिस्म जिसे ज़िंदगी कहा जाता है, टूट जाएगा।
जब ज़िंदगी के लम्हात कटते महसूस हों और हाफ़िज़े की तख़्ती पर कुछ नक़्श छोड़ जाएं तो इसका यह मतलब है कि आदमी ज़िंदा है और अगर महीनों गुज़र जाएं और ये महसूस तक न हो कि महीने गुज़र गए हैं तो इसका ये मतलब है कि इंसान की हिसिय्यात मुर्दा हो गई हैं।
ज़िंदगी की किताब में अगर ऊपर तले ख़ाली औराक़ ही शामिल होते चले जाएं तो कितना दुख होता है। दूसरों को भी इसका एहसास होता है या कि नहीं, उसकी बाबत मैं कुछ नहीं कह सकता, लेकिन मैं तो इस मुआ’मले में बहुत हस्सास हूँ। ज़िंदगी की ये ख़ाली कापी जो हमारे हाथ में थमाई गई है, आख़िर इसीलिए तो है कि इसके हर वर्क़ को हम इस्तेमाल करें, इस पर कुछ लिखें। लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मुझे कोई ऐसी बात ही नहीं मिलती जिसके मुतअ’ल्लिक़ मैं कुछ लिखूं।
ले दे के मेरी इस कापी में सिर्फ़ दो तीन वरक़ ऐसे हैं जिन पर में नक़्श-ओ-निगार बने देखता हूँ। ये वरक़ मुझे कितने अ’ज़ीज़ हैं। अगर आप इनको नोच कर बाहर निकाल दें तो मेरी ज़िंदगी एक ब्याबां बन जाएगी।
आप यक़ीन कीजिए, मेरी ज़िंदगी वाक़ई चटियल मैदान की तरह है जिसमें उन बीते हुए दिनों की याद एक ख़ूबसूरत क़ब्र की तरह लेटी हुई है। चूँकि मैं नहीं चाहता कि अच्छे दिनों की ये सुहानी याद मिट जाये इसलिए मैं इस क़ब्र पर हर वक़्त मिट्टी का लेप करता रहता हूँ।
मेरे सामने दीवार पर एक पुराना कैलेंडर लटक रहा है जिसके मैले काग़ज़ पर चीड़ के लंबे लंबे दरख़्तों की तस्वीर छपी है। मैं इसे एक अ’र्से से टकटकी बांधे देख रहा हूँ। उसके पीछे, दूर, बहुत दूर मुझे अपनी ज़िंदगी के इस खोए हुए टुकड़े की झलक नज़र आरही है।
मैं एक पहाड़ी के दामन में चीड़ों की छाओं में बैठा हूँ। बेगू बड़े भोलेपन से घुटने टेक कर अपना सर मेरे क़रीब लाती है और कहती है, “आप मानते ही नहीं... सच, मैं बूढ़ी हो गई हूँ। अब भी यक़ीन न आएगा, ये लीजिए मेरे सर में सफ़ेद बाल देख लीजिए।”
चौदह बरस की देहाती फ़िज़ा में पली हुई जवान लड़की, मुझसे कह रही थी कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ। मालूम नहीं वो क्यों इस बात पर ज़ोर देना चाहती थी। इससे पहले भी वो कई मर्तबा मुझसे यही बात कह चुकी थी।
मेरा ख़याल है कि जवान आदमियों को शबाब के दायरे से निकल कर बुढ़ापे के दायरे में दाख़िल होने की बड़ी ख़्वाहिश होती है। ये मैं इसलिए कहता हूँ कि मेरे दिल में भी इस क़िस्म की ख़्वाहिश कई बार पैदा हो चुकी है। मैंने मुतअद्दिद बार सोचा है कि मेरी कनपटियों पर अगर सफ़ेद सफ़ेद बाल नुमूदार हो जाएं तो चेहरे की मतानत और संजीदगी में इज़ाफ़ा हो जाएगा। कनपटियों पर अगर बाल सफ़ेद हो जाएं तो चांदी के महीन महीन तारों की तरह चमकते हैं और दूसरे स्याह बालों के दरमियान बहुत भले दिखाई देते हैं, मुम्किन है बेगू को यही चाव हो कि उसके बाल सफ़ेद हो जाएं और वो अपनी कम-उम्री के बावजूद बूढ़ी दिखाई दे।
मैंने उसके ख़ुश्क मगर नर्म बालों में उंगलियों से कंघी करना शुरू की और कहा, “तुम कभी बूढ़ी नहीं हो सकतीं।”
उसने सर उठा कर मुझ से पूछा, “क्यों? मैं क्यों बूढ़ी नहीं हो सकती?”
“इसलिए कि तुम में आस पास के दरख़्तों, पहाड़ों और उनमें बहते हुए नालों की सारी जवानी जज़्ब हो गई है।”
वो क़रीब सरक आई और कहने लगी, “जाने आप क्या ऊट-पटांग बातें करते हैं... भई मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आया, दरख़्तों और पहाड़ों की भी कभी जवानी होती है।”
“तुम्हारी समझ में आए न आए पर मैंने जो कुछ कहना था कह दिया।”
“बहुत अच्छा किया आपने... पर आप मेरे बालों में इस इस तरह करते रहें।” बेगू ने अपने हाथ से सर को खुजलाते हुए कहा, “मुझे बड़ा मज़ा आता है।”
“बहुत अच्छा जनाब।” कह मैंने उंगलियों से उसके बालों में कंघी करना शुरू करदी और आँखें बंद कर लीं। उसको तो मज़ा आ ही रहा था, मुझे ख़ुद मज़ा आने लगा। मैं ये महसूस करने लगा कि उस के बाल मेरे उलझे हुए ख़याल हैं जिनको मैं अपने ज़ेहन की उंगलियों से टटोल रहा हूँ।
देर तक मैं उसके बालों में उंगलियां फेरता रहा। वो ख़ामोशी से सर झुकाए मज़ा लेती रही। फिर उस ने अपनी ख़ुमार-आलूद निगाहें मेरी तरफ़ उठाईं और नींद में भीगी हुई आवाज़ में कहा, “मैं अगर सो गई तो?”
“मैं जागता रहूँगा।”
नीम ख़्वाबीदा मुस्कुराहट उसके होंटों पर पैदा हुई और वो ज़मीन पर वहीं मेरे सामने लेट गई। थोड़ी देर के बाद नींद ने उसको अपनी आग़ोश में ले लिया।
बेगू सो रही थी मगर उसकी जवानी जाग रही थी। जिस तरह समुंदर की पुर-सुकून सतह के नीचे गर्म लहरें दौड़ती रहती हैं, उसी तरह उसके मह्व-ए-ख़्वाब जिस्म की रगों में उसकी गर्म गर्म जवानी दौड़ रही थी। बाएं बाज़ू को सर के नीचे रखे और टांगों को इकट्ठा किए वो सो रही थी। उसका एक बाज़ू मेरी जानिब सरका हुआ था।
मैं उसकी पतली उंगलियों की मख़रूती तराश देख रहा था कि उनमें ख़फ़ीफ़ सी कपकपाहट पैदा हुई जैसे मटर की फलियां इर्तिआ’श पज़ीर हो जाएं। ये इर्तिआ’श उसकी उंगलियों से शुरू हुआ और उस के सारे जिस्म पर फैल गया। जिस तरह तालाब में फेंकी हुई कंकरी उसकी आबी सतह पर छोटा सा भंवर पैदा करती है और ये भंवर दायरे बनाता हुआ फैलता जाता है, उसी तरह वो कपकपाहट उसकी उंगलियों से शुरू होकर उसके सारे जिस्म पर फैल गई। न जाने उसकी जवानी कैसे इर्तिआ’श पैदा करने वाले ख़्वाब देख रही थी।
उस के निचले होंट के कोनों में ख़फ़ीफ़ सी थरथराहट कितनी भली मालूम होती थी। उसके सीने के उभार में दिल की धड़कनें ज़िंदगी पैदा कर रही थीं। गिरेबान के निचले दो बटन खुले थे, इस तरह जिस्म से थोड़ी सी नक़ाब उठ गई थी और दो निहायत ही प्यारी क़ौसें बाहर झांक रही थीं। सीने की नन्ही सी वादी में दोनों तरफ़ के उभार बड़ी ख़ूबसूरती से आपस में घुल मिल गए थे।
मेरी निगाह उसके सीने पर कुरते की एक तरफ़ बनी हुई जेब पर रुक गई। उसमें ख़ुदा मालूम क्या क्या कुछ बेगू ने ठूंस रखा था कि वो एक गेंद सी बन गई थी। मेरे दिल में दफ़अ’तन ये मालूम करने का इश्तियाक़ पैदा हुआ कि इसमें क्या क्या चीज़ें हैं। आहिस्ता से उसकी जेब की तलाशी लेने का इरादा जब मैंने किया तो वो जाग पड़ी। सीधी लेट कर उसने धीरे धीरे अपनी आँखें खोलीं। लंबी लंबी पलकें जो आपस में मिली हुई थीं थरथराईं। उसने नीम बाज़ आँखों से मेरी तरफ़ देखा, फिर उस के होंटों पर हल्के से तबस्सुम ने अंगड़ाई ली और कहा, “आप बड़े वो हैं?”
“क्यों? मैंने क्या किया है?”
वो उठ बैठी, “अभी आपने कुछ किया ही नहीं। मैं सचमुच सो गई और आपने मुझे जगाने तक की तकलीफ़ न की। मैं अगर ऐसे ही शाम तक सोई रहती तो...?” उसने आँखों की पुतलियां नचाईं और दफ़अ’तन कुछ याद कर के कहा, “हाय मेरे अल्लाह, मैं अपनी जान हीर को भूल ही गई।”
सामने पहाड़ी पर उगी हुई सब्ज़ झाड़ियों की तरफ़ जब उसने देखा तो इतमिनान का सांस लेकर कहने लगी, “कितनी अच्छी है मेरी हीर।”
उसको अपनी भैंस की फ़िक्र थी जो हमारे सामने पहाड़ी पर घास चर रही थी।
मैंने उससे पूछा, “तुम्हारी हीर तो मौजूद है पर रांझा कहाँ है?”
“रांझा?” उसके लब मुस्कुराहट के साथ खुले। आँखों ही आँखों में उसने मुझे कुछ बताने की कोशिश की और फिर खिलखिला कर हंस पड़ी, “रांझा... रांझा... रांझा।” उसने ये लफ़्ज़ कई मर्तबा दोहराया। “मेरी हीर का रांझा... मुझे क्या मालूम निगोड़ा कहाँ है?”
मैंने कहा, “तुम्हारी हीर का कोई न कोई रांझा तो ज़रूर होगा। मुझसे छुपाना चाहती हो तो ये अलग बात है।”
“इस में छुपाने की बात ही क्या है?” बेगू ने आँखें मटका कर कहा, “और अगर कोई है तो हीर को मालूम होगा। जाके उससे पूछ लीजिए। पर कान में कहिएगा, आहिस्ता से कहिएगा, बताओ तो तुम्हारा रांझा कहाँ है?”
“मैंने पूछ लिया।”
“क्या जवाब मिला?”
“बोली, बेगू से पूछो, वही सब कुछ जानती है।”
“झूट झूट। उसका अव़्वल झूट उसका आख़िर झूट।” बेगू बच्चों की तरह उछल उछल कर कहने लगी। “मेरी हीर तो बड़ी शर्मीली है। ऐसे सवालों का वो कभी जवाब दे ही नहीं सकती। आप झूट बोलते हैं। उसने तो आपको ग़ुस्से में ये कहा था, चलो हटो, कुंवारियों से ऐसी बातें करते तुम्हें शर्म नहीं आती।”
“यही कहा था और इसका जवाब उसको यूं मिला था, ये तुम्हारा इतना बड़ा बछड़ा कहाँ से आगया है। क्या आसमान से टपक पड़ा था।”
बेगू ये बछड़े वाली दलील सुन कर लाजवाब हो गई। मगर वो चूँकि लाजवाब होना नहीं चाहती थी इस लिए उसने बेकार चिल्लाना शुरू कर दिया, “जी हाँ, आसमान ही से टपका था और सब चीज़ें आसमान ही से तो आती हैं... नहीं, मैं भोली... इस बिछड़े को तो मेरी हीर ने गोद लिया है। ये उस का बच्चा नहीं किसी और का है। अब बताईए आपके पास क्या जवाब है?”
मैंने हार मान ली इस लिए कि मेरी निगाहें फिर उसकी उभरी हुई जेब पर पड़ीं जिसमें ख़ुदा मालूम क्या क्या कुछ ठुसा हुआ था, “मैं हार गया... आपकी हीर कुंवारी है, दुनिया की सब भैंसें और गाएँ कुंवारियां। मैं कुँवारा हूँ, आप कुंवारी हैं, लेकिन ये बताईए कि आपकी इस कुंवारी जेब को क्या हो गया है?”
उसने अपनी फूली हुई जेब देखी तो दाँतों में उंगली दबा कर मेरी तरफ़ मलामत भरी नज़रों से देख कर कहा, “आप को शर्म नहीं आती... क्या हुआ है मेरी जेब को, मेरी चीज़ें पड़ी हैं इसमें।”
“चीज़ें... इससे तुम्हारा मतलब?”
“आप तो बाल की खाल निकालते हैं। चीज़ें पड़ी हैं मेरे काम की और क्या मैंने पत्थर डाल रखे हैं।”
“तो जेब में तुम्हारे काम की चीज़ें पड़ी हैं। मैं पूछ सकता हूँ, ये काम की चीज़ें क्या हैं?”
“आप हर्गिज़ नहीं पूछ सकते और अगर आप पूछें भी तो मैं नहीं बताऊंगी, इस वास्ते कि आप ने मुझे अपने चमड़े के थैले की चीज़ें कब दिखाई हैं। मगर अगर आप से कहूं भी तो आप कभी न दिखाएंगे।”
“मैं एक एक चीज़ दिखाने के लिए तैयार हूँ... ये रहा थैला।” मैंने अपना चरमी थैला उसके सामने रख दिया, “ख़ुद खोल कर देख लो, पर याद रहे मुझे अपनी जेब की सब चीज़ें तुम्हें दिखाना पड़ेंगी।”
“पहले मैं इस थेले की तलाशी तो ले लूं।” ये कह कर उसने मेरा थैला खोला और उसकी सब चीज़ें एक एक करके बाहर निकालना शुरू कीं। अंग्रेज़ी का एक नॉवेल, काग़ज़ों का पैड, दो पेंसिलें, एक रबड़, दस बारह लिफ़ाफ़े, आठ एक एक आने वाले स्टैंप। दस बारह ख़ाली लिफ़ाफ़े और लिखे हुए काग़ज़ों का एक पुलिंदा... ये मेरी ‘चीज़ें’ थीं।”
जब वो एक एक चीज़ अच्छी तरह देख चुकी तो मैंने उससे कहा, “अब अपनी जेब का मुँह इधर कर दो।”
उस ने मेरी बात का जवाब न दिया। थैले में तमाम चीज़ें रखने के बाद उसने मुझसे तहकुमाना लहजे में कहा, “अब अपनी जेब दिखाईए।”
मैंने अपनी जेब का मुँह खोल दिया और उसने हाथ डाल कर उसमें जो कुछ भी था बाहर निकाल लिया, एक बटुवा और चाबियों का गुच्छा था, जिसमें छोटा सा चाक़ू भी शामिल था। ये चाक़ू गुच्छे में से निकाल कर उसने एक तरफ़ ज़मीन पर रख दिया और बाक़ी चीज़ें मुझे वापस दे दीं। “ये चाक़ू मैंने ले लिया है, खीरे काटने के काम आएगा।”
“ले लो पर मुझे टालने की कोशिश न करो, मैं जब तक तुम्हारी जेब की एक एक चीज़ न देख लूं छोडूंगा नहीं।”
“अगर मैं न दिखाऊँ तो?”
“लड़ाई हो जाएगी।”
“हो जाये... मैं डर थोड़ी जाऊंगी।” ये कह कर वो फ़ौरन ही अपने दुपट्टे का तंबू बना कर उसमें छुप गई और जेब में से कुछ निकालने लगी। इस पर मैंने रो’बदार आवाज़ कहा, “देखो, ये बात ठीक नहीं, तुम कुछ छुपा रही हो।”
“आप मान लीजिए, मैं सब कुछ दिखा दूंगी... अल्लाह की क़सम सब चीज़ें एक एक करके दिखा दूंगी, ये तो मैं अपने मन समझौते के लिए कुछ कर रही हूँ।”
मैंने फिर रो’बदार आवाज़ में कहा, “क्या कररही हो, मैं तुम्हारी सब चालाकियां समझता हूँ। सीधे मन से तमाम चीज़ें दिखा दो वर्ना में ज़बरदस्ती सब कुछ देख लूंगा।”
थोड़ी देर के बाद वो दुपट्टे से बाहर निकल आई और आगे बढ़ कर कहने लगी, “देख लीजिए!”
मैं उस की जेब में हाथ डालने ही वाला था कि उसके तने हुए सीने को देख कर रुक गया... “तुम ख़ुद ही एक एक चीज़ निकाल कर मुझे दिखाती जाओ... लो इतना लिहाज़ मैं तुम्हारा किए देता हूँ। यूं तुम्हारी ईमानदारी भी मालूम हो जाएगी।”
“नहीं, आप ख़ुद निकालते जाईए, बाद में आप कहेंगे मैंने सब चीज़ें नहीं दिखाईं।”
“मैं देख जो रहा हूँ, तुम निकालती जाओ।”
“जैसे आपकी मर्ज़ी।” ये कह कर उसने आहिस्ता से अपनी जेब में दो उंगलियां डालीं और सुर्ख़ रंग के रेशमी कपड़े का एक टुकड़ा बाहर निकाला। इसपर मैंने पूछा, “कपड़े का ये बेकार सा टुकड़ा तुम साथ साथ क्यों लिये फिरती हो?”
“अजी आपको क्या मालूम, ये बहुत बढ़िया कपड़ा है। मैं इसका रूमाल बनाऊँगी। जब बन जाएगा तो फिर आप देखिएगा, जी हाँ।” ये कह कर उसने कपड़े का टुकड़ा अपनी झोली में रख दिया। फिर जेब से कुछ निकाला और बंद मुट्ठी मेरे बहुत क़रीब ला कर खोल दी। सेलुलाइड के तीन मुस्तअ’मल क्लिप, एक चाबी और सीप के दो बटन उसकी हथेली पर मुझे नज़र आए।
मैं उस से कहा, “ये अपनी झोली में रख लो और बाक़ी चीज़ें जल्दी जल्दी निकालो।”
उसने जेब में जल्दी जल्दी हाथ डाल कर बारी बारी ये चीज़ें बाहर निकालीं। सफ़ेद धागे की गोली उस में फंसी हुई ज़ंग-आलूद सुई, लकड़ी की मैली कुचैली कंघी, छोटा सा टूटा हुआ आईना और एक पैसा।
मैंने उससे पूछा, “कोई और चीज़ बाक़ी तो नहीं रही?”
“जी नहीं।” उसने अपने सर को जुंबिश दी, मैंने सब चीज़ें आपके सामने रख दी हैं। अब कोई बाक़ी नहीं रही।
“ग़लत।” मैंने अपना लहजा बदल कर कहा, “तुम झूट बोलती हो और झूट भी ऐसा बोलती हो जो बिल्कुल कच्चा हो, अभी एक चीज़ बाक़ी है।” जूंही ये लफ़्ज़ मेरे मुँह से निकले, ग़ैर इरादी तौर पर उसकी निगाहें यक-लख़्त अपने दुपट्टे की तरफ़ मुड़ीं।
मैंने ताड़ लिया कि उसने कुछ छुपा रखा है, “बेगू, सीधे मन से मुझे ये चीज़ दिखा दो जो तुमने छुपाई है, वर्ना याद रखो वो तंग करूंगा कि उम्र भर याद रखोगी। गुदगुदी ऐसी चीज़ है कि...”
गुदगुदी के तसव्वुर ही ने उसके जिस्म को इकट्ठा कर दिया, वो सिकुड़ सी गई। उस पर मैंने हवा में अपने हाथों की उंगलियां नचाईं, “ये उंगलियां ऐसी गुदगुदी कर सकती हैं कि जनाब को पहरों होश न आएगा।”
वो कुछ इस तरह सिमटी जैसे किसी ने बलंदी से रेशमी कपड़े का थान खोल कर नीचे फेंक दिया है। “नहीं, नहीं... ख़ुदा के लिए कहीं ऐसा कर भी न दीजिएगा... मैं मर जाऊंगी।”
जब मैं सचमुच अपने हाथ उसके कंधों तक ले गया तो वो बेतहाशा चीख़ती, हंसती और सिमटती सिमटाती उठी और भाग गई। दुपट्टे में से कोई चीज़ गिरी जो मैंने दौड़ कर उठा ली... मिस्री की एक डली थी जो वो मुझसे छुपा रही थी... जाने क्यों?