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नारा

20 अप्रैल 2022

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उसे यूं महसूस हुआ कि उस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें उसके काँधों पर धर दी गई हैं।

वो सातवें मंज़िल से एक एक सीढ़ी कर के नीचे उतरा और तमाम मंज़िलों का बोझ उसके चौड़े मगर दुबले कांधे पर सवार होता गया। जब वो मकान के मालिक से मिलने के लिए ऊपर चढ़ रहा था तो उसे महसूस हुआ था कि उसका कुछ बोझ हल्का हो गया है और कुछ हल्का हो जाएगा। इसलिए कि उसने अपने दिल में सोचा था।

मालिक मकान जिसे सब सेठ के नाम से पुकारते हैं उसकी बिप्ता ज़रूर सुनेगा और किराया चुकाने के लिए उसे एक महीने की और मोहलत बख़्श देगा... बख़्श देगा! ये सोचते हुए उसके ग़रूर को ठेस लगी थी लेकिन फ़ौरन ही उसको असलियत भी मालूम हो गई थी। वो भीक मांगने ही तो जा रहा था और भीक हाथ फैला कर, आँखों में आँसू भर के, अपने दुख दर्द सुना कर और अपने घाव दिखा कर ही मांगी जाती है!

उसने यही कुछ किया। जब वो इस संगीन इमारत के बड़े दरवाज़े में दाख़िल होने लगा तो उसने अपने ग़रूर को, उस चीज़ को जो भीक मांगने में आम तौर पर रुकावट पैदा करती है, निकाल कर फुटपाथ पर डाल दिया था।

वो अपना दिया बुझा कर और अपने आपको अंधेरे में लपेट कर मालिक मकान के उस रोशन कमरे में दाख़िल हुआ जहां वो अपनी दो बिल्डिंगों का किराया वसूल किया करता था और हाथ जोड़ कर एक तरफ़ खड़ा हो गया। सेठ के तिलक लगे माथे पर कई सलवटें पड़ गईं। उसका बालों भरा हाथ एक मोटी सी कापी की तरफ़ बढ़ा। दो बड़ी बड़ी आँखों ने उस कापी पर कुछ हुरूफ़ पढ़े और एक भद्दी सी आवाज़ गूंजी।

“केशव लाल, खोली पांचवीं, दूसरा माला... दो महीनों का किराया, ले आए हो क्या?”

ये सुन कर उसने अपना दिल जिसके सारे पुराने और नए घाव वो सीढ़ियां चढ़ते हुए कुरेद कुरेद कर गहरे कर चुका था, सेठ को दिखाना चाहा। उसे पूरा पूरा यक़ीन था कि उसे देख कर उसके दिल में ज़रूर हमदर्दी पैदा हो जाएगी। पर... सेठ जी ने कुछ सुनना न चाहा और उसके सीने में एक हुल्लड़ सा मच गया।

सेठ के दिल में हमदर्दी पैदा करने के लिए उसने अपने वो तमाम दुख जो बीत चुके थे, गुज़रे दिनों की गहरी खाई से निकाल कर अपने दिल में भर लिए थे और इन तमाम ज़ख़्मों की जलन जो मुद्दत हुई मिट चुके थे, उसने बड़ी मुश्किल से इकट्ठी अपनी छाती में जमा की थी। अब उसकी समझ में नहीं आता था कि इतनी चीज़ों को कैसे सँभाले?

उसके घर में बिन बुलाए मेहमान आ गए होते तो वो उनसे बड़े रूखेपन के साथ कह सकता था, “जाओ भई, मेरे पास इतनी जगह नहीं है कि तुम्हें बिठा सकूं और न मेरे पास रुपया है कि तुम सब की ख़ातिर मदारात कर सकूं।” लेकिन यहां तो क़िस्सा ही दूसरा था। उसने तो अपने भूले भटके दुखों को इधर उधर से पकड़ कर अपने आप सीने में जमा किया था। अब भला वो बाहर निकल सकते थे?

अफ़रातफ़री में उसे कुछ पता न चला था कि उसके सीने में कितनी चीज़ें भर गई हैं। पर जैसे जैसे उसने सोचना शुरू किया, वो पहचानने लगा कि फ़ुलां दुख फ़ुलां वक़्त का है और फ़ुलां दर्द उसे फ़ुलां वक़्त पर हुआ था और जब ये सोच बिचार शुरू हुई तो हाफ़िज़े ने बढ़ कर वो धुंद हटा दी जो उन पर लिपटी हुई थी और कल के तमाम दुख दर्द आज की तकलीफें बन गए और उसने अपनी ज़िंदगी की बासी रोटियां फिर अंगारों पर सेंकना शुरू कर दीं।

उसने सोचा, थोड़े से वक़्त में उसने बहुत कुछ सोचा। उसके घर का अंधा लैम्प कई बार बिजली के उस बल्ब से टकराया जो मालिक मकान के गंजे सर के ऊपर मुस्कुरा रहा था। कई बार उस पैवंद लगे कपड़े इन खूंटियों पर लटक कर फिर उसके मैले बदन से चिमट गए जो दीवार में गड़ी चमक रही थीं।

कई बार उसे अनदाता भगवान का ख़याल आया जो बहुत दूर न जाने कहाँ बैठा, अपने बंदों का ख़याल रखता है। मगर अपने सामने सेठ को कुर्सी पर बैठा देख कर जिसके क़लम की जुंबिश कुछ का कुछ कर सकती थी, वो इस बारे में कुछ भी न सोच सका। कई बार उसे ख़याल आया और वो सोचने लगा कि उसे क्या ख़याल आया था? मगर वो उसके पीछे भाग दौड़ न कर सका। वो सख़्त घबरा गया था। उसने आज तक अपने सीने में इतनी खलबली नहीं देखी थी।

वो इस खलबली पर अभी तअ’ज्जुब ही कर रहा था कि मालिक मकान ने गुस्से में आकर उसे गाली दी... गाली। यूं समझिए कि कानों के रास्ते पिघला हुआ सीसा शांय शांय करता उसके दिल में उतर गया और उसके सीने के अंदर जो हुल्लड़ मच गया उसका तो कुछ ठिकाना ही न था। जिस तरह किसी गर्म-गर्म जलसे में किसी शरारत से भगदड़ मच जाया करती है, ठीक उसी तरह उसके दिल में हलचल पैदा हो गई।

उसने बहुत जतन किए कि उसके वो दुख दर्द जो उसने सेठ को दिखाने के लिए इकट्ठे किए थे, चुपचाप रहें, पर कुछ न हो सका। गाली का सेठ के मुँह से निकलना था कि तमाम दुख बेचैन हो गए और अंधा धुंद एक दूसरे से टकराने लगे। अब तो वो ये नई तकलीफ़ बिल्कुल न सह सका और उस की आँखों में जो पहले ही से तप रही थीं, आँसू आ गए जिससे उनकी गर्मी और भी बढ़ गई और उनसे धुआं निकलने लगा।

उसके जी में आई कि इस गाली को जिसे वो बड़े हद तक निगल चुका था, सेठ के झुर्रियों पड़े चेहरे पर क़ै कर दे, मगर वो इस ख़याल से बाज़ आ गया कि उसका ग़रूर तो फुटपाथ पर पड़ा है। अपोलो बंदर पर नमक लगी मूंगफली बेचने वाले का ग़रूर... उसकी आँखें हंस रही थीं और उनके सामने नमक लगी मूंगफली के वो तमाम दाने जो उसके घर में एक थैले के अंदर बरखा के बाइ’स गीले हो रहे थे, नाचने लगे।

उसकी आँखें हंसीं, उसका दिल भी हंसा, ये सब कुछ हुआ पर वो कड़वाहट दूर न हुई जो उसके गले में सेठ की गाली ने पैदा कर दी थी। ये कड़वाहट अगर सिर्फ़ ज़बान पर होती तो वो उसे थूक देता मगर वो तो बहुत बुरी तरह उसके गले में अटक गई थी और निकाले न निकलती थी।

और फिर एक अ’जीब क़िस्म का दुख जो उस गाली ने पैदा कर दिया था, उसकी घबराहट को और भी बढ़ा रहा था। उसे यूं महसूस होता था कि उसकी आँखें जो सेठ के सामने रोना फ़ुज़ूल समझती थीं, उसके सीने के अंदर उतर कर आँसू बहा रही हैं, जहां हर चीज़ पहले ही से सोग में थी।

सेठ ने उसे फिर गाली दी। उतनी ही मोटी जितनी उसकी चर्बी भरी गर्दन थी और उसे यूं लगा कि किसी ने ऊपर से उस पर कूड़ा करकट फेंक दिया है। चुनांचे उसका एक हाथ अपने आप चेहरे की हिफ़ाज़त के लिए बढ़ा, पर उस गाली की सारी गर्द उस पर फैल चुकी थी। अब उसने वहां ठहरना अच्छा न समझा क्योंकि क्या ख़बर थी... क्या ख़बर थी... उसे कुछ ख़बर न थी। वो सिर्फ़ इतना जानता था कि ऐसी हालतों में किसी बात की सुधबुध नहीं रहा करती।

वो जब नीचे उतरा तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि इस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें उसके कंधों पर धर दी गई हैं।

एक नहीं, दो गालियां... बार बार ये दो गालियां जो सेठ ने बिल्कुल पान की पीक के मानिंद अपने मुँह से उगल दी थीं जो उसके कानों के पास ज़हरीली भिड़ों की तरह भिनभिनाना शुरू कर देती थीं और वो सख़्त बेचैन हो जाता था। वो कैसे उस... उस... उसकी समझ में नहीं आता था कि इस गड़बड़ का नाम क्या रखे, जो उसके दिल में और दिमाग़ में इन गालियों ने मचा रखी थी।

वो कैसे उस तप को दूर कर सकता था जिसमें वो फुंका जा रहा था। कैसे?... पर वो सोच बिचार के क़ाबिल भी तो नहीं रहा था। उसका दिमाग़ तो उस वक़्त एक ऐसा अखाड़ा बना हुआ था जिसमें बहुत से पहलवान कुश्ती लड़ रहे हों। जो ख़याल भी वहां पैदा होता, किसी दूसरे ख़याल से जो पहले ही से वहां मौजूद होता भिड़ जाता और वो कुछ सोच न सकता।

चलते चलते जब एका एकी उसके दुख कै की सूरत में बाहर निकलने को थे उसके जी में आई, जी में क्या आई, मजबूरी की हालत में वो उस आदमी को रोक कर जो लंबे लंबे डग भरता उसके पास से गुज़र रहा था, ये कहने ही वाला था, “भय्या मैं रोगी हूँ,” मगर जब उसने उस राह चलते आदमी की शक्ल देखी तो बिजली का वो खम्बा जो उसके पास ही ज़मीन में गड़ा था, उसे उस आदमी से कहीं ज़्यादा हस्सास दिखाई दिया और जो कुछ वो अपने अंदर से बाहर निकालने वाला था, एक एक घूँट करके फिर निगल गया।

फुटपाथ पर चौकोर पत्थर एक तर्तीब के साथ जुड़े हुए थे। वो उन पत्थरों पर चल रहा था। आज तक कभी उसने उनकी सख़्ती महसूस न की थी। मगर आज उनकी सख़्ती उसके दिल तक पहुंच रही थी। फुटपाथ का हर एक पत्थर जिस पर उसके क़दम पड़ रहे थे, उसके दिल के साथ टकरा रहा था... सेठ के पत्थर के मकान से निकल कर अभी वो थोड़ी दूर ही गया होगा कि उसका बंद बंद ढीला हो गया।

चलते चलते उसकी एक लड़के से टक्कर हुई और उसे यूं महसूस हुआ कि वो टूट गया है। चुनांचे उस ने झट उस आदमी की तरह जिसकी झोली से बेर गिर रहे हों, इधर उधर हाथ फैलाए और अपने आपको इकट्ठा करके हौले-हौले चलना शुरू किया।

उसका दिमाग़ उसकी टांगों के मुक़ाबले में ज़्यादा तेज़ी के साथ चल रहा था, चुनांचे कभी कभी चलते चलते उसे ये महसूस होता था कि उसका निचला धड़ सारे का सारा बहुत पीछे रह गया है और दिमाग़ बहुत आगे निकल गया है। कई बार उसे इस ख़याल से ठहरना पड़ा कि दोनों चीज़ें एक दूसरे के साथ साथ हो जाएं।

वो फुटपाथ पर चल रहा था जिसके इस तरफ़ सड़क पर पों पों करती मोटरों का तांता बंधा हुआ था। घोड़े गाड़ियां, ट्रामें, भारी भरकम ट्रक, लारियां ये सब सड़क की काली छाती पर दनदनाती हुई चल रही थीं। एक शोर मचा हुआ था, पर उसके कानों को कुछ सुनाई न देता था। वो तो पहले ही से शांय शांय कर रहे थे। जैसे रेलगाड़ी का इंजन ज़ाइद भाप बाहर निकाल रहा है।

चलते चलते एक लँगड़े कुते से उसकी टक्कर हुई। कुते ने इस ख़याल से कि शायद उसका पैर कुचल दिया गया है, “चाऊं” किया और परे हट गया और वो समझा कि सेठ ने उसे फिर गाली दी है, गाली गाली ठीक उसी तरह उससे उलझ कर रह गई थी जैसे बेरी के कांटों में कोई कपड़ा। वो जितनी कोशिश अपने आपको छुड़ाने की करता था, उतनी ही ज़्यादा उसकी रूह ज़ख़्मी होती जा रही थी।

उसे उस नमक लगी मूंगफली का ख़याल नहीं था जो उसके घर में बरखा के बाइ’स गीली हो रही थी और न उसे रोटी कपड़े का ख़याल था। उसकी उम्र तीस बरस के क़रीब थी और इन तीस बरसों में जिनके परमात्मा जाने कितने दिन होते हैं, वो कभी भूका न सोया था और न कभी नंगा ही फिरा था।

उसे सिर्फ़ इस बात का दुख था कि उसे हर महीने किराया देना पड़ता था। वो अपना और अपने बाल बच्चों का पेट भरे। उस बकरे जैसी दाढ़ी वाले हकीम की दवाईयों के दाम दे, शाम को ताड़ी की एक बोतल के लिए दुवन्नी पैदा कर ले या उस गंजे सेठ के मकान के एक कमरे का किराया अदा करे। मकानों और किरायों का फ़लसफ़ा उसकी समझ से सदा ऊंचा रहा था।

वो जब भी दस रुपये गिन कर सेठ या उसके मुनीम की हथेली पर रखता तो समझता था कि ज़बर दस्ती उससे ये रक़म छीन ली गई है और अब अगर वो पाँच बरस तक बराबर किराया देते रहने के बाद सिर्फ़ दो महीने का हिसाब चुकता न कर सका तो क्या सेठ को इस बात का इख़्तियार हो गया कि वो उसे गाली दे? सब से बड़ी बात तो ये थी, जो उसे खाए जा रही थी। उसे उन बीस रूपों की परवा न थी जो उसे आज नहीं कल अदा कर देने थे।

वो उन दो गालियों की बाबत सोच रहा था जो इन बीस रूपों के बीच में से निकलती थीं। न वो बीस रुपये का मक़रूज़ होता और न सेठ के कठाली जैसे मुँह से ये गंदगी बाहर निकलती।

“मान लिया वो धनवान था। उसके पास दो बिल्डिंगें थीं जिनके एक सौ चौबीस कमरों का किराया उस के पास आता था। पर इन एक सौ चौबीस कमरों में जितने लोग रहते हैं, उसके ग़ुलाम तो नहीं और अगर ग़ुलाम भी हैं तो वो उन्हें गाली कैसे दे सकता है?”

ठीक है उसे किराया चाहिए पर मैं कहाँ से लाऊं? पाँच बरस तक उसको देता ही रहा हूँ। जब होगा, दे दूंगा। पिछले बरस बरसात का सारा पानी हम पर टपकता रहा, पर मैंने कभी उसे गाली नहीं दी, हालाँकि मुझे उससे कहीं ज़्यादा होलनाक गालियां याद हैं। मैंने सेठ से बारहा कहा कि सीढ़ी का डंडा टूट गया है, उसे बनवा दीजिए, पर मेरी एक न सुनी गई। मेरी फूल सी बच्ची गिरी, उसका दाहिना हाथ हमेशा के लिए बेकार हो गया।

मैं गालियों के बजाय उसे बददुआएं दे सकता था, पर मुझे इस का ध्यान ही नहीं आया। दो महीने का किराया न चुकाने पर मैं गालियों के क़ाबिल हो गया। उसको ये ख़याल तक न आया कि उसके बच्चे अपोलो बंदर पर मेरे थैले से मुट्ठियाँ भर भर के मूंगफली खाते हैं।

इस में कोई शक नहीं कि उसके पास इतनी दौलत नहीं थी जितनी कि इस दो बिल्डिंगों वाले सेठ के पास थी और ऐसे लोग भी होंगे जिनके पास इससे भी ज़्यादा दौलत होगी, पर वो ग़रीब कैसे हो गया? उसे ग़रीब समझ कर ही तो गाली दी गई थी, वर्ना इस गंजे सेठ की क्या मजाल थी कि कुर्सी पर बड़े इतमिनान से बैठ कर उसे दो गालियां सुना देता।

गोया किसी के पास धन दौलत का न होना बहुत बुरी बात है। अब ये उसका क़सूर नहीं था कि उस के पास दौलत की कमी थी। सच पूछिए तो उसने कभी धन दौलत के ख़्वाब देखे ही न थे। वो अपने हाल में मस्त था। उसकी ज़िंदगी बड़े मज़े में गुज़र रही थी पर पिछले महीने एका एकी उसकी बीवी बीमार पड़ गई और उसके दवा-दारू पर वो तमाम रुपय ख़र्च हो गए जो किराए में जाने वाले थे। अगर वो ख़ुद बीमार होता तो मुम्किन था कि वो दवाओं पर रुपया ख़र्च न करता लेकिन यहां तो उस के होने वाले बच्चे की बात थी जो अभी अपनी माँ के पेट ही में था।

उसको औलाद बहुत प्यारी थी जो पैदा हो चुकी थी और जो पैदा होने वाली थी। सब की सब उसे अ’ज़ीज़ थी। वो कैसे अपनी बीवी का ईलाज न कराता? क्या वो इस बच्चे का बाप न था? बाप, पिता, वो तो सिर्फ़ दो महीने के किराए की बात थी। अगर उसे अपने बच्चे के लिए चोरी भी करना पड़ती तो वो कभी न चूकता।

चोरी, नहीं नहीं, वो चोरी कभी न करता। यूं समझिए कि वो अपने बच्चे के लिए बड़ी से बड़ी क़ुर्बानी करने के लिए तैयार था, मगर वो चोर कभी न बनता। वो अपनी छिनी हुई चीज़ वापस लेने के लिए लड़ मरने को तैयार था, पर वो चोरी नहीं कर सकता था।

अगर वो चाहता तो उस वक़्त जब सेठ ने उसे गाली दी थी, आगे बढ़ कर उसका टेंटवा दबा देता और उसकी तिजोरी में से वो तमाम नीले और सब्ज़ नोट निकाल कर भाग जाता, जिनको वो आज तक लाजवंती के पत्ते समझा करता था... नहीं नहीं, वो ऐसा कभी न करता। लेकिन फिर सेठ ने उसे गाली क्यों दी?

पिछले बरस चौपाटी पर एक गाहक ने उसे गाली दी थी, इसलिए कि दो पैसे की मूंगफली में चार दाने कड़वे चले गए थे और उसके जवाब में उसकी गर्दन पर ऐसी धौल जमाई थी कि दूर बेंच पर बैठे आदमियों ने भी उसकी आवाज़ सुन ली थी। मगर सेठ ने उसे दो गालियां दीं और वो चुप रहा, केशव लाल खारी सींग वाला, जिसकी बाबत ये मशहूर था कि वो नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देता, सेठ ने एक गाली दी और वो कुछ न बोला... दूसरी गाली दी तो भी ख़ामोश रहा, जैसे वो मिट्टी का पुतला है, पर मिट्टी का पुतला कैसे हुआ?

उसने उन दो गालियों को सेठ के थूक भरे मुँह से निकलते देखा, जैसे दो बड़े बड़े चूहे मोरियों से बाहर निकलते हैं। वो जानबूझ कर ख़ामोश रहा, इसलिए कि वो अपना ग़रूर नीचे छोड़ आया था... मगर उसने अपना ग़रूर अपने से अलग क्यों किया? सेठ से गालियां लेने के लिए?

ये सोचते हुए उसे एका एकी ख़याल आया कि शायद सेठ ने उसे नहीं किसी और को गालियां दी थीं, नहीं, नहीं, गालियां उसे ही दी गई थीं, इसलिए कि दो महीने का किराया उसी की तरफ़ निकलता था। अगर उसे गालियां न दी गई होती तो इस सोच बिचार की ज़रूरत ही क्या थी और ये जो उसके सीने में हुल्लड़ सा मच रहा था, क्या बग़ैर किसी वजह के उसे दुख दे रहा था? उसी को दो गालियां दी गई थीं।

जब उसके सामने एक मोटर ने अपने माथे की बत्तियां रोशन कीं तो उसे मालूम हुआ कि वो दो गालियां पिघल कर उसकी आँखों में धँस गई हैं। गालियां... गालियां... वो झुँझला गया, वो जितनी कोशिश करता था कि इन गालियों की बाबत न सोचे, उतनी ही शिद्दत से उसे उनके मुतअ’ल्लिक़ सोचना पड़ता था और ये मजबूरी उसे बहुत चिड़चिड़ा बना रही थी। चुनांचे इसी चिड़चिड़ेपन में उसने ख़्वाह मख़्वाह दो तीन आदमियों को जो उसके पास से गुज़र रहे थे, दिल ही दिल में गालियां दीं, “यूं अकड़ के चल रहे हैं जैसे उनके बावा का राज है!”

अगर उसका राज होता तो वो सेठ को मज़ा चखा देता जो उसे ऊपर तले दो गालियां सुना कर अपने घर में यूं आराम से बैठा था जैसे उसने अपनी गद्देदार कुर्सी में से वो खटमल निकाल कर बाहर फेंक दिए हैं। सचमुच अगर उसका अपना राज होता तो चौक में बहुत से लोगों को इकट्ठा करके सेठ को बीच में खड़ा कर देता और उसकी गंजी चंदिया पर इस ज़ोर से धप्पा मारता कि बिलबिला उठता, फिर वो सब लोगों से कहता कि हंसो, जी भर कर हंसो और ख़ुद इतना हँसता कि हंसते हंसते उसका पेट दुखने लगता, पर उस वक़्त उसे बिल्कुल हंसी नहीं आती थी... क्यों?

वो अपने राज के बग़ैर भी तो सेठ के गंजे सर पर धप्पा मार सकता था, उसे किस बात की रुकावट थी? रुकावट थी... रुकावट थी तो वो गालियां सुन कर ख़ामोश हो रहा।

उसके क़दम रुक गए। उसका दिमाग़ भी एक दो पल के लिए सुस्ताया और उसने सोचा कि चलो अभी इस झंझट का फ़ैसला ही कर दूं... भागा हूआ जाऊं और एक ही झटके में सेठ की गर्दन मरोड़ कर उस तिजोरी पर रख दूं जिसका ढकना मगरमच्छ के मुँह की तरह खुलता है, लेकिन वो खंबे की तरह ज़मीन में क्यों गड़ गया था? सेठ के घर की तरफ़ पलटा क्यों नहीं था? क्या उसमें जुरअत न थी?

उसमें जुरअत न थी, कितने दुख की बात है कि उसकी सारी ताक़त सर्द पड़ गई थी... ये गालियां, वो इन गालियों को क्या कहता... इन गालियों ने उसकी चौड़ी छाती पर रोलर सा फेर दिया था, सिर्फ़ दो गालियों ने... हालाँकि पिछले हिंदू-मुस्लिम फ़साद में एक हिंदू ने उसे मुसलमान समझ कर लाठियों से बहुत पीटा था और अधमुवा कर दिया था और उसे इतनी कमज़ोरी महसूस न हुई थी जितनी कि अब हो रही थी।

केशव लाल खारी सींग वाला जो दोस्तों से बड़े फ़ख़्र के साथ कहा करता था कि वो कभी बीमार नहीं पड़ा, आज यूं चल रहा था जैसे बरसों का रोगी है और ये रोग किसने पैदा किया था? दो गालियों ने!

गालियां... गालियां... कहाँ थीं वो दो गालियां? उसके जी में आई कि अपने सीने के अंदर हाथ डाल कर वो उन दो पत्थरों को जो किसी हीले गलते ही न थे, बाहर निकाल ले और जो कोई भी उसके सामने आए, उसके सर पर दे मारे, पर ये कैसे हो सकता था... उसका सीना मुरब्बे का मर्तबान थोड़ी था।

ठीक है, लेकिन फिर कोई और तरकीब भी तो समझ में आए जिससे ये गालियां दूर दफ़ान हों... क्यों नहीं कोई शख़्स बढ़ कर उसे दुख से नजात दिलाने की कोशिश करता? क्या वो हमदर्दी के क़ाबिल न था? होगा, पर किसी को उसके दिल के हाल का क्या पता था, वो खुली किताब थोड़ी था और न उस ने अपना दिल बाहर लटका रहा था। अंदर की बात किसी को क्या मालूम?

न मालूम हो! परमात्मा करे किसी को मालूम न हो, अगर किसी को अंदर की बात का पता चल गया तो केशवलाल खारी सींग वाले के लिए डूब मरने की बात थी... गालियां सुन कर ख़ामोश रहना मा’मूली बात थी क्या?

मामूली बात नहीं, बहुत बड़ी बात है... हिमाला पहाड़ जितनी बड़ी बात है। इससे भी बड़ी बात है। इस का ग़रूर मिट्टी में मिल गया है। उसकी ज़िल्लत हुई है, उसकी नाक कट गई है... उसका सब कुछ लुट गया है, चलो भई छुट्टी हुई। अब तो ये गालियां उसका पीछा छोड़ दें, वो कमीना था, रज़ील था, नीच था। गंदगी साफ़ करने वाला भंगी था, कुत्ता था... उसको गालियां मिलना ही चाहिए थीं। नहीं नहीं, किसी की क्या मजाल थी कि उसे गालियां दे और फिर बग़ैर किसी क़ुसूर के, वो उसे कच्चा न चबा जाता। अमां हटाओ, ये सब कहने की बातें हैं... तुमने तो सेठ से यूँ गालियां सुनीं, जैसे मीठी मीठी बोलियां थीं।

“मीठी मीठी बोलियां थीं, बड़े मज़ेदार घूँट थे, चलो यही सही... अब तो मेरा पीछा छोड़ दो, वर्ना सच कहता हूँ, दीवाना हो जाऊंगा। ये लोग जो बड़े आराम से इधर उधर चल फिर रहे हैं, मैं इनमें से हर एक का सर फोड़ दूंगा। भगवान की क़सम मुझे अब ज़्यादा ताब नहीं रही। मैं ज़रूर दीवाने कुत्ते की तरह सब को काटना शुरू कर दूंगा। लोग मुझे पागलखाने में बंद कर देंगे और मैं दीवारों के साथ अपना सर टकरा टकरा कर मर जाऊंगा... मर जाऊंगा।

सच कहता हूँ, मर जाऊंगा... मर जाऊंगा। सच कहता हूँ, मर जाऊंगा और मेरी राधा विध्वा और मेरे बच्चे अनाथ हो जाऐंगे। ये सब कुछ इसलिए होगा कि मैंने सेठ से दो गालियां सुनीं और ख़ामोश रहा, जैसे मेरे मुँह पर ताला लगा हुआ था।

मैं लूला, लंगड़ा, अपाहिज था... परमात्मा करे मेरी टांगें उस मोटर के नीचे आकर टूट जाएं, मेरे हाथ कट जाएं, मैं मर जाऊं ताकि ये बकबक तो ख़त्म हो। तौबा... कोई ठिकाना है इस दुख का, कपड़े फाड़ कर नंगा नाचना शुरू कर दूं... इस ट्राम के नीचे सर दे दूं, ज़ोर ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दूं... क्या करूं क्या न करूं?

ये सोचते हुए उसे एका एकी ख़याल आया कि बाज़ार के बीच खड़ा हो जाये, और सब ट्रैफ़िक को रोक कर जो उसकी ज़बान पर आए बकता चला जाये। हत्ता कि उसका सीना सारे का सारा ख़ाली हो जाये या फिर उसके जी में आई कि खड़े खड़े यहीं से चिल्लाना शुरू कर दे, “मुझे बचाओ... मुझे बचाओ!”

इतने में एक आग बुझाने वाला इंजन सड़क पर टन टन करता आया और उधर उस मोड़ में गुम हो गया। उसको देख कर वो ऊंची आवाज़ में कहने ही वाला था, “ठहरो... मेरी आग बुझाते जाओ।” मगर न जाने क्यों रुक गया।

एका एकी उसने अपने क़दम तेज़ कर दिए। उसे ऐसा महसूस हुआ था कि उसकी सांस रुकने लगी है और अगर वो तेज़ न चलेगा तो बहुत मुम्किन है कि वो फट जाये, लेकिन जूंही उसकी रफ़्तार बढ़ी, उसका दिमाग़ आग का एक चक्कर सा बन गया। उस चक्कर में उसके सारे पुराने और नए ख़याल एक हार की सूरत में गुंध गए। दो महीने का किराया, उसका पत्थर की बिल्डिंग में दरख़्वास्त लेकर जाना, सात मंज़िलों के एक सौ बारह ज़ीने, सेठ की भद्दी आवाज़, उसके गंजे सर पर मुस्कुराता हुआ बिजली का लैम्प और... ये मोटी गाली... फिर दूसरी और उसकी ख़ामोशी। यहां पहुंच कर आग के इस चक्कर में तड़ तड़ गोलियां सी निकलना शुरू हो जातीं और उसे ऐसा महसूस होता कि उसका सीना छलनी हो गया है।

उसने अपने क़दम और तेज़ किए और आग का ये चक्कर इतनी तेज़ी से घूमना शुरू हुआ कि शालों की एक बहुत बड़ी गेंद सी बन गई जो उसके आगे आगे ज़मीन पर उछलने कूदने लगी।

वो अब दौड़ने लगा लेकिन फ़ौरन ही ख़यालों की भीड़ भाड़ में एक नया ख़याल बलंद आवाज़ में चिल्लाया, “तुम क्यों भाग रहे हो? किससे भाग रहे हो? तुम बुज़दिल हो!”

उसके क़दम आहिस्ता आहिस्ता उठने लगे। ब्रेक सी लग गई और वो हौले हौले चलने लगा... वो सचमुच बुज़दिल था, भाग क्यों रहा था? उसे तो इंतक़ाम लेना था... इंतिक़ाम, ये सोचते हुए उसे अपनी ज़बान पर लहू का नमकीन ज़ायक़ा महसूस हुआ और उसके बदन में एक झुरझुरी सी पैदा हूई।

लहू... उसे आसमान ज़मीन सब लहू ही में रंगे हुए नज़र आने लगे... लहू, इस वक़्त उसमें इतनी क़ुव्वत थी कि पत्थर की रगों में से भी लहू निचोड़ सकता था।

उसकी आँखों में लाल डोरे उभर आए, मुट्ठियाँ भिंच गईं और क़दमों में मज़बूती पैदा हो गई... अब वो इंतक़ाम पर तुल गया था! वो बढ़ा।

आने जाने वाले लोगों में से तीर के मानिंद अपना रास्ता बनाता, आगे बढ़ता रहा। आगे... आगे!

जिस तरह तेज़ चलने वाली रेलगाड़ी छोटे छोटे स्टेशनों को छोड़ जाया करती है, उसी तरह वो बिजली के खंबों, दूकानों और लंबे लंबे बाज़ारों को अपने पीछे छोड़ता आगे बढ़ रहा था। आगे... आगे... बहुत आगे!

रास्ते में एक सिनेमा की रंगीन बिल्डिंग आई। उसने उसकी तरफ़ आँख उठा कर भी न देखा और उस के पास से बेपरवा, हवा के मानिंद बढ़ गया।

वो बढ़ता गया।

अंदर ही अंदर उसने अपने हर ज़र्रे को एक बम बना लिया था, ताकि वक़्त पर काम आए। मुख़्तलिफ़ बाज़ारों से ज़हरीले साँप के मानिंद फुंकारता हुआ वो अपोलो बंदर पहुंचा... अपोलो बंदर... गेट वे आफ़ इंडिया के सामने बेशुमार मोटरें क़तार दर क़तार खड़ी थीं। उनको देख कर उसने ये समझा कि बहुत से गिद्ध ‘पर’ जोड़े किसी की लाश के इर्द-गिर्द बैठे हैं।

जब उसने ख़ामोश समुंदर की तरफ़ देखा तो उसे ये एक लंबी चौड़ी लाश मालूम हूई। इस समुंदर के उस तरफ़ एक कोने में लाल लाल रोशनी की लकीरें हौले-हौले बल खा रही थीं। ये एक आ’ली शान होटल की पेशानी का बर्क़ी नाम था जिसकी लाल रोशनी समुंदर के पानी में गुदगुदी पैदा कर रही थी।

केशवलाल खारी सींग वाला उस आलीशान होटल के नीचे खड़ा हो गया।

उस बर्क़ी बोर्ड के ऐ’न नीचे क़दम गाड़ कर उसने ऊपर देखा... संगीन इमारत की तरफ़ जिसके रोशन कमरे चमक रहे थे और... उसके हलक़ से एक नारा... कान के पर्दे फाड़ देने वाला नारा पिघले हुए गर्म-गर्म लावे के मानिंद निकला, “हत तेरी!”

जितने कबूतर होटल की मुंडेरों पर ऊंघ रहे थे, डर गए और फड़फड़ाने लगे।

नारा मार कर जब उसने अपने क़दम ज़मीन से बड़ी मुश्किल के साथ अ’लाहिदा किए और वापस मुड़ा तो उसे इस बात का पूरा यक़ीन था कि होटल की संगीन इमारत अड़ अड़ा धम नीचे गिर गई है।

और ये नारा सुन कर एक शख़्स ने अपनी बीवी से जो ये शोर सुन कर डर गई थी, कहा, “पगला है!”
 

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रचनाएँ
सआदत हसन मंटो की प्रसिद्ध कहानियाँ
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मंटो ने भी चेखव की तरह अपनी कहानियों के दम पर अपनी पहचान बनाई. भीड़, रेप और लूट की आंधी में कपड़े की तरह जिस्म भी फाड़े जाते हैं. हवस और वहश का ऐसा नज़ारा जिसे देखने के बाद खुद दरिन्दे के सनकी हो जाने की कहानी है 'ठंडा गोश्त'. कहते हैं नींद से बड़ा कोई नशा नहीं लेकिन भूख को इस बात से ऐतराज़ है
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मूत्री

10 अप्रैल 2022
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कांग्रेस हाऊस और जिन्नाह हाल से थोड़े ही फ़ासले पर एक पेशाब गाह है जिसे बंबई में “मूत्री” कहते हैं। आस पास के महलों की सारी ग़लाज़त इस तअफ़्फ़ुन भरी कोठड़ी के बाहर ढेरियों की सूरत में पड़ी रहती है। इस क़दर ब

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मोचना

10 अप्रैल 2022
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नाम उस का माया था। नाटे क़द की औरत थी। चेहरा बालों से भरा हुआ, बालाई लब पर तो बाल ऐसे थे, जैसे आप की और मेरी मोंछों के। माथा बहुत तंग था, वो भी बालों से भरा हुआ। यही वजह है कि उस को मोचने की ज़रूरत अक्स

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रत्ती, माशा, तोला

10 अप्रैल 2022
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ज़ीनत अपने कॉलिज की ज़ीनत थी। बड़ी ज़ेरक, बड़ी ज़हीन और बड़े अच्छे ख़ुद-ओ-ख़ाल की सेहतम-नद नौजवान लड़की। जिस तबीयत की वो मालिक थी उस के पेश-ए-नज़र उस की हम-जमाअत लड़कियों को कभी ख़याल भी न आया था। कि वो इतनी म

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रामेशगर

13 अप्रैल 2022
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मेरे लिए ये फ़ैसला करना मुश्किल था आया परवेज़ मुझे पसंद है या नहीं। कुछ दिनों से में उस के एक नॉवेल का बहुत चर्चा सुन रहा था। बूढ़े आदमी, जिन की ज़िंदगी का मक़सद दावतों में शिरकत करना है उस की बहुत तारीफ़ क

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राजू

13 अप्रैल 2022
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सन इकत्तीस के शुरू होने में सिर्फ़ रात के चंद बरफ़ाए हुए घंटे बाक़ी थे। वो लिहाफ़ में सर्दी की शिद्दत के बाइस काँप रहा था। पतलून और कोट समेत लेटा था, लेकिन इस के बावजूद सर्दी की लहरें उस की हडीयों तक पहु

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लतीका रानी

13 अप्रैल 2022
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वो ख़ूबसूरत नहीं थी। कोई ऐसी चीज़ उस की शक्ल-ओ-सूरत में नहीं थी जिसे पुर-कशिश कहा जा सके, लेकिन इस के बावजूद जब वो पहली बार फ़िल्म के पर्दे पर आई तो उस ने लोगों के दिल मोह लिए और ये लोग जो उसे फ़िल्म क

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शाह दूले का चूहा

13 अप्रैल 2022
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सलीमा की जब शादी हुई तो वो इक्कीस बरस की थी। पाँच बरस होगए मगर उसके औलाद न हुई। उसकी माँ और सास को बहुत फ़िक्र थी। माँ को ज़्यादा थी कि कहीं उसका नजीब दूसरी शादी न करले। चुनांचे कई डाक्टरों से मश्वरा कि

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शान्ति

13 अप्रैल 2022
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दोनों पैरेज़ेन डेरी के बाहर बड़े धारियों वाले छाते के नीचे कुर्सीयों पर बैठे चाय पी रहे थे। उधर समुंदर था जिसकी लहरों की गुनगुनाहट सुनाई दे रही थी। चाय बहुत गर्म थी। इसलिए दोनों आहिस्ता-आहिस्ता घूँट भर

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शादाँ

13 अप्रैल 2022
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ख़ान बहादुर मोहम्मद असलम ख़ान के घर में ख़ुशियां खेलती थीं, और सही मा’नों में खेलती थीं। उनकी दो लड़कियां थीं, एक लड़का। अगर बड़ी लड़की की उम्र तेरह बरस की होगी तो छोटी की यही ग्यारह साढ़े ग्यारह और जो लड़का

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शुग़ल

13 अप्रैल 2022
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ये पिछले दिनों की बात है जब हम बरसात में सड़कें साफ़ करके अपना पेट पाल रहे थे।  हम में से कुछ किसान थे और कुछ मज़दूरी पेशा, चूँकि पहाड़ी देहातों में रुपये का मुँह देखना बहुत कम नसीब होता है। इसलिए हम सब

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वालिद साहब

13 अप्रैल 2022
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तौफ़ीक़ जब शाम को क्लब में आया तो परेशान सा था।  दोबार हारने के बाद उसने जमील से कहा, “लो भई, मैं चला।”  जमील ने तौफ़ीक़ के गोरे चिट्टे चेहरे की तरफ़ ग़ौर से देखा और कहा, “इतनी जल्दी?”  रियाज़ ने ताश की ग

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मिस्री की डली

13 अप्रैल 2022
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पिछले दिनों मेरी रूह और मेरा जिस्म दोनों अ’लील थे। रूह इसलिए कि मैंने दफ़अ’तन अपने माहौल की ख़ौफ़नाक वीरानी को महसूस किया था और जिस्म इसलिए कि मेरे तमाम पुट्ठे सर्दी लग जाने के बाइ’स चोबी तख़्ते के मानि

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मिस्टर मोईनुद्दीन

13 अप्रैल 2022
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मुँह से कभी जुदा न होने वाला सिगार ऐश ट्रे में पड़ा हल्का हल्का धुआँ दे रहा था। पास ही मिस्टर मोईनुद्दीन आराम-ए-कुर्सी पर बैठे एक हाथ अपने चौड़े माथे पर रखे कुछ सोच रहे थे, हालाँ कि वो इस के आदी नहीं थ

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मिस माला

13 अप्रैल 2022
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गाने लिखने वाला अ’ज़ीम गोबिंदपुरी जब ए.बी.सी प्रोडक्शंज़ में मुलाज़िम हुआ तो उसने फ़ौरन अपने दोस्त म्यूज़िक डायरेक्टर भटसावे के मुतअ’ल्लिक़ सोचा जो मरहटा था और अ’ज़ीम के साथ कई फिल्मों में काम कर चुका था। अ’

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मिसेज़ डिकोस्टा

13 अप्रैल 2022
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नौ महीने पूरे हो चुके थे। मेरे पेट में अब पहली सी गड़बड़ नहीं थी। पर मिसिज़ डी कोस्टा के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। वो बहुत परेशान थी। चुनांचे मैं आने वाले हादिसे की तमाम अन-जानी तकलीफें भूल गई थी और मिस

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मिस्टर टीन वाला

13 अप्रैल 2022
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अपने सफ़ैद जूतों पर पालिश कररहा था कि मेरी बीवी ने कहा। “ज़ैदी साहब आए हैं!” मैंने जूते अपनी बीवी के हवाले किए और हाथ धो कर दूसरे कमरे में चला आया जहां ज़ैदी बैठा था मैंने उस की तरफ़ गौरसे देखा। “अर

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मिलावट

13 अप्रैल 2022
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अमृतसर में अली मोहम्मद की मनियारी की दुकान थी छोटी सी मगर उस में हर चीज़ मौजूद थी उस ने कुछ इस क़रीने से सामान रखा था कि ठुंसा ठुंसा दिखाई नहीं देता था। अमृतसर में दूसरे दुकानदार ब्लैक करते थे मगर अली

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मातमी जलसा

13 अप्रैल 2022
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रात रात में ये ख़बर शहर के इस कोने से उस कोने तक फैल गई कि अतातुर्क कमाल मर गया है। रेडियो की थरथराती हुई ज़बान से ये सनसनी फैलाने वाली ख़बर ईरानी होटलों में सट्टे बाज़ों ने सुनी जो चाय की प्यालियां सामन

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मंज़ूर

13 अप्रैल 2022
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जब उसे हस्पताल में दाख़िल किया गया तो उस की हलात बहुत ख़राब थी। पहली रात उसे ऑक्सीजन पर रखा गया। जो नर्स ड्यूटी पर थी, उस का ख़्याल था कि ये नया मरीज़ सुब्ह से पहले पहले मर जाएगा। उस की नब्ज़ की रफ़्तार

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महताब ख़ाँ

13 अप्रैल 2022
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शाम को मैं घर बैठा अपनी बच्चियों से खेल रहा था कि दोस्त ताहिर साहब बड़ी अफरा-तफरी में आए। कमरे में दाख़िल होते ही आप ने मैंटल पीस पर से मेरा फोंटेन पेन उठा कर मेरे हाथ में थमाया और कहा कि “हस्पताल में

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मजीद का माज़ी

13 अप्रैल 2022
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मजीद की माहाना आमदनी ढाई हज़ार रुपय थी। मोटर थी। एक आलीशान कोठी थी। बीवी थी। इस के इलावा दस पंद्रह औरतों से मेल जोल था। मगर जब कभी वो विस्की के तीन चार पैग पीता तो उसे अपना माज़ी याद आजाता। वो सोचता कि

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बीमार

13 अप्रैल 2022
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अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातब किया और बे-रबत तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाब

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बिस्मिल्लाह

13 अप्रैल 2022
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फ़िल्म बनाने के सिलसिले में ज़हीर से सईद की मुलाक़ात हुई। सईद बहुत मुतअस्सिर हुआ। बंबई में उस ने ज़हीर को सेंट्रल स्टूडीयोज़ में एक दो मर्तबा देखा था और शायद चंद बातें भी की थीं मगर मुफ़स्सल मुलाक़ात पहली

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बिजली पहलवान

13 अप्रैल 2022
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बिजली पहलवान के मुतअल्लिक़ बहुत से क़िस्से मशहूर हैं कहते हैं कि वो बर्क़-रफ़्तार था। बिजली की मानिंद अपने दुश्मनों पर गिरता था और उन्हें भस्म कर देता था लेकिन जब मैंने उसे मुग़ल बाज़ार में देखा तो वो मुझ

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बाबू गोपीनाथ

13 अप्रैल 2022
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बाबू गोपी नाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हूई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावारपर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सीनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था। सी

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पहचान

20 अप्रैल 2022
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एक निहायत ही थर्ड क्लास होटल में देसी विस्की की बोतल ख़त्म करने के बाद तय हुआ कि बाहर घूमा जाये और एक ऐसी औरत तलाश की जाये जो होटल और विस्की के पैदा करदा तकद्दुर को दूर कर सके। कोई ऐसी औरत ढूँडी जाय

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फातो

20 अप्रैल 2022
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तेज़ बुख़ार की हालत में उसे अपनी छाती पर कोई ठंडी चीज़ रेंगती महसूस हुई। उस के ख़्यालात का सिलसिला टूट गया। जब वो मुकम्मल तौर पर बेदार हुआ तो उस का चेहरा बुख़ार की शिद्दत के बाइस तिमतिमा रहा था। उस ने आँ

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फौजा हराम दा

20 अप्रैल 2022
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टी हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअल्लिक़ अपने तअस्सुरात बयान किए जिस से उस को अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर

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माई जनते

20 अप्रैल 2022
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माई जनते स्लीपर ठपठपाती घिसटती कुछ इस अंदाज़ में अपने मैले चकट में दाख़िल हुई ही थी कि सब घर वालों को मालूम हो गया कि वो आ पहुंची है। वो रहती उसी घर में थी जो ख़्वाजा करीम बख़्श मरहूम का था अपने पीछे क

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मौसम की शरारत

20 अप्रैल 2022
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शाम को सैर के लिए निकला और टहलता टहलता उस सड़क पर हो लिया जो कश्मीर की तरफ़ जाती है। सड़क के चारों तरफ़ चीड़ और देवदार के दरख़्त, ऊंची ऊंची पहाड़ियों के दामन पर काले फीते की तरह फैले हुए थे। कभी कभी हवा के

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हामिद का बच्चा

20 अप्रैल 2022
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लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा न घाट का। उन्होंने आते ही हामिद से कहा, “लो, भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंदोबस्त करो।” हामिद ने कहा, “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए

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नुत्फ़ा

20 अप्रैल 2022
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मालूम नहीं बाबू गोपी नाथ की शख़्सियत दर-हक़ीक़त ऐसी ही थी जैसी आप ने अफ़साने में पेश की है, या महज़ आपके दिमाग़ की पैदावार है, पर मैं इतना जानता हूँ कि ऐसे अजीब-ओ-ग़रीब आदमी आम मिलते हैं। मैंने जब आपका अफ़

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डार्लिंग

20 अप्रैल 2022
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ये उन दिनों का वाक़िया है। जब मशरिक़ी और मग़रिबी पंजाब में क़तल-ओ-ग़ारतगरी और लूट मार का बाज़ार गर्म था। कई दिन से मूसलाधार बारिश होरही थी। वो आग जो इंजनों से न बुझ सकी थी। इस बारिश ने चंद घंटों ही में ठ

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मोमबत्ती के आँसू

20 अप्रैल 2022
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ग़लीज़ ताक़ पर जो शिकस्ता दीवार में बना था, मोमबत्ती सारी रात रोती रही थी। मोम पिघल पिघल कर कमरे के गीले फ़र्श पर ओस के ठिठुरे हुए धुँदले क़तरों के मानिंद बिखर रहा था। नन्ही लाजो मोतियों का हार लेने

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रिश्वत

20 अप्रैल 2022
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अहमद दीन खाते पीते आदमी का लड़का था। अपने हम उम्र लड़कों में सबसे ज़्यादा ख़ुशपोश माना जाता था, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि वो बिल्कुल ख़स्ता हाल हो गया। उसने बी.ए किया और अच्छी पोज़ीशन हासिल की। वो

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नारा

20 अप्रैल 2022
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उसे यूं महसूस हुआ कि उस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें उसके काँधों पर धर दी गई हैं। वो सातवें मंज़िल से एक एक सीढ़ी कर के नीचे उतरा और तमाम मंज़िलों का बोझ उसके चौड़े मगर दुबले कांधे पर सवार होता गय

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झूटी कहानी

20 अप्रैल 2022
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कुछ अर्से से अक़ल्लियतें अपने हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेदार हो रही थीं। उन को ख़्वाब-ए-गिरां से जगाने वाली अक्सरियतें थीं जो एक मुद्दत से अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए उन पर दबाओ डालती रही थीं। इस बेदार

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नफ़्सियाती मुताला

20 अप्रैल 2022
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मुझे चाय के लिए कह कर, वह उन के दोस्त फिर अपनी बातों में ग़र्क़ हो गए। गुफ़्तुगू का मौज़ू, तरक़्क़ी पसंद अदब और तरक़्क़ी पसंद अदीब था। शुरू शुरू में तो ये लोग उर्दू के अफ़सानवी अदब पर ताइराना नज़र

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जाओ हनीफ़ जाओ

20 अप्रैल 2022
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चौधरी ग़ुलाम अब्बास की ताज़ा तरीन तक़रीर-ओ-तबादल-ए-ख़यालात हो रहा था। टी हाउस की फ़ज़ा वहां की चाय की तरह गर्म थी। सब इस बात पर मुत्तफ़िक़ थे कि हम कश्मीर ले कर रहें गे, और ये कि डोगरा राज का फ़िल-फ़ौर ख़ात

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जान मोहम्मद

20 अप्रैल 2022
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मेरे दोस्त जान मुहम्मद ने, जब मैं बीमार था मेरी बड़ी ख़िदमत की। मैं तीन महीने हस्पताल में रहा। इस दौरान में वो बाक़ायदा शाम को आता रहा बाअज़ औक़ात जब मेरे नौकर अलील होते तो वो रात को भी वहीं ठहरता ताकि

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जेंटिलमेनों का बुरश

20 अप्रैल 2022
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ये ग़ालिबन आज से बीस बरस पीछे की बात है। मेरी उम्र यही कोई बाईस बरस के क़रीब होगी, या शायद इस से दो बरस कम। क्योंकि तारीख़ों और सनों के मुआमले में मेरा हाफ़िज़ा बिलकुल सिफ़र है। मेरी दोस्ती का हल्क़ा उन

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देख कबीरा रोया

20 अप्रैल 2022
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नगर नगर ढिंडोरा पीटा गया कि जो आदमी भीक मांगेगा उसको गिरफ़्तार कर लिया जाये। गिरफ्तारियां शुरू हुईं। लोग ख़ुशियां मनाने लगे कि एक बहुत पुरानी ला’नत दूर हो गई। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँ

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टू टू

20 अप्रैल 2022
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मैं सोच रहा था, दुनिया की सबसे पहली औरत जब माँ बनी तो कायनात का रद्द-ए-अ’मल क्या था? दुनिया के सबसे पहले मर्द ने क्या आसमानों की तरफ़ तमतमाती आँखों से देख कर दुनिया की सब से पहली ज़बान में बड़े फ़ख़्

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डरपोक

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मैदान बिल्कुल साफ़ था, मगर जावेद का ख़याल था कि म्युनिसिपल कमेटी की लालटेन जो दीवार में गड़ी है, उसको घूर रही है। बार बार वो उस चौड़े सहन को जिस पर नानक शाही ईंटों का ऊंचा-नीचा फ़र्श बना हुआ था, तय कर क

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दीवाली के दीये

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छत की मुंडेर पर दीवाली के दीये हाँपते हुए बच्चों के दिल की तरह धड़क रहे थे। मुन्नी दौड़ती हुई आई। अपनी नन्ही सी घगरी को दोनों हाथों से ऊपर उठाए छत के नीचे गली में मोरी के पास खड़ी हो गई। उसकी रोती

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तस्वीर

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“बच्चे कहाँ हैं?” “मर गए हैं।” “सब के सब?” “हाँ, सबके सब... आपको आज उनके मुतअ’ल्लिक़ पूछने का क्या ख़याल आ गया।” “मैं उनका बाप हूँ।” “आप ऐसा बाप ख़ुदा करे कभी पैदा ही न हो।” “

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नया साल

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कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जिस पर मोटे हुरूफ़ में 31 दिसंबर छपा हुआ था, एक लम्हा के अंदर उसकी पतली उंगलियों की गिरफ़्त में था। अब कैलेंडर एक टूंड मुंड दरख़्त सा नज़र आने लगा। जिसकी टहनियों पर से सारे पत्ते

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ढारस

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आज से ठीक आठ बरस पहले की बात है। हिंदू सभा कॉलिज के सामने जो ख़ूबसूरत शादी घर है, उसमें हमारे दोस्त बिशेशर नाथ की बरात ठहरी हुई थी। तक़रीबन तीन साढ़े तीन सौ के क़रीब मेहमान थे जो अमृतसर और लाहौर

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तीन में ना तेरह में

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“मैं तीन में हूँ न तेरह में, न सुतली की गिरह में।” “अब तुमने उर्दू के मुहावरे भी सीख लिये।” “आप मेरा मज़ाक़ क्यों उड़ाते हैं। उर्दू मेरी मादरी ज़बान है।” “पिदरी क्या थी? तुम्हारे वालिद बुज़ु

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डायरेक्टर कृपलानी

20 अप्रैल 2022
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डायरेक्टर कृपलानी अपनी बलंद किरदारी और ख़ुश अतवारी की वजह से बंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े एहतराम की नज़र से देखा जाता था। बा’ज़ लोग तो हैरत का इज़हार करते थे कि ऐसा नेक और पाकबाज़ आदमी फ़िल्म डायरे

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