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शुग़ल

13 अप्रैल 2022

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ये पिछले दिनों की बात है जब हम बरसात में सड़कें साफ़ करके अपना पेट पाल रहे थे। 

हम में से कुछ किसान थे और कुछ मज़दूरी पेशा, चूँकि पहाड़ी देहातों में रुपये का मुँह देखना बहुत कम नसीब होता है। इसलिए हम सब ख़ुशी से छः आने रोज़ाना पर सारा दिन पत्थर हटाते रहते थे जो बारिशों के ज़ोर से साथ वाली पहाड़ियों से लुढ़क कर सड़क पर आ गिरते थे। पत्थरों को सड़क पर से परे हटाना तो ख़ैर एक मामूली बात थी। हम तो इस उजरत पर उन पहाड़ियों को ढाने पर भी तैयार थे जो हमारे गिर्द-ओ-पेश, स्याह और डरावने देवों की तरह अकड़ी खड़ी थीं। 

दरअस्ल हमारे बाज़ू सख़्त से सख़्त मशक़्क़त के आ’दी थे। इसलिए ये काम हमारे लिए बिल्कुल मामूली था। अलबत्ता जब कभी हमें सड़क को चौड़ा करने के लिए पत्थर काटना होते, तो रात को हमें बहुत तकान महसूस होती थी। पुट्ठे अकड़ जाते और सुबह को बेदार होते वक़्त ऐसा महसूस होता कि वो तमाम पत्थर जिन्हें हम गुज़श्ता रोज़ काटते और फोड़ते रहे हैं, हमारे जिस्मों पर बोझ डाले हुए हैं मगर ऐसा कभी कभी होता था। 

हमारा काम जो रोज़ सुबह सात बजे शुरू होता था। जब तुलूअ’ होते हुए सूरज की तलाई किरणें चीड़ के दराज़क़द दरख़्तों से छन-छन कर हमारे पास वाले नाले के ख़श्म-आलूद पानी से अटखेलियां कर रही होतीं, और आस पास की झाड़ियों में नन्हे नन्हे परिंदे अपने गले फुला फुला कर चीख़ रहे होते। यूं कहिए कि हम क़ुदरत को अपने ख़्वाब से बेदार होता देखते थे। सुबह की हल्की फुल्की हवा में शबनम आलूद सब्ज़ झाड़ियों की दिलनवाज़ सरसराहट नाले में संगरेज़ों से खेलते हुए कफ़-आलूद पानी का शोर और बरसात के पानी में भीगी हुई मिट्टी की भीनी भीनी ख़ुशबू, चंद ऐसी चीज़ें थीं जो हमारे संगीन सीनों में एक ऐसी ताक़त पैदा कर देती थीं जो ज़िंदगी के इस दोज़ख़ में हमें बहिश्त के ख़्वाब दिखाने लगती। 

हमें हर रोज़ बारह घंटे काम करना पड़ता। या’नी सारा दिन हम सड़क की मोरियों और पत्थरों को साफ़ करते रहते थे। ये काम दिलचस्प न था। मगर हमने उसकी ना-ख़ुशगवार यक-आहंगी को दूर करने के लिए एक तरीक़ा ईजाद कर लिया था, जब हम सब उस पहाड़ी के नीचे जमा-शुदा मलबे को अपने बेलचों से हटा रहे होते जिसके संगरेज़े हर वक़्त सड़क पर गिरते रहते थे तो हम एक सुर में कोई पहाड़ी गीत शुरू कर देते। 

मलबे के पत्थरों से टकरा कर हमारे बेलचों की झनकार इस गीत की ताल का काम देती थी। ये गीत उस अफ़सुरदगी को दूर कर देता, जो ये ग़ैर दिलचस्प काम करने से हमारे दिलों में पैदा हो जाती है। जब तक उसके सुर हमारी चौड़ी छातियों में से निकलते रहते हम महसूस तक न करते कि इस दौरान हमने मलबे के एक बहुत बड़े ढेर को साफ़ कर लिया है। 

मोटर लारियों की आमद-ओ-रफ़्त से भी हमारा दिल बहला रहता था जो रंग बिरंग मुसाफ़िरों को कश्मीर से वापस या कश्मीर की तरफ़ ले जाती रहती थीं। जब कभी कोई लारी हमारे पास से गुज़रती तो हम कुछ अ’र्सा के लिए अपनी झुकी हुई कमरें सीधी करके सड़क के एक तरफ़ खड़े हो जाते और ज़मीन पर अपने बेलचे टेक कर उसको सामने वाले मोड़ के अ’क़ब में गुम होते देखते रहते। 

उन लारियों को इतनी दूर तक देखते रहने का मक़सद ये था कि हम थोड़ा सुस्ता लें, मगर बा’ज़ औक़ात उन लारियों की शानदार अस्बाब से लदी हुई छतें और उनकी खिड़कियों से मुसाफ़िरों के लहराते हुए रेशमी कपड़ों की एक झलक हमारे दिलों में एक नाक़ाबिल-ए-बयान तल्ख़ी पैदा कर देती थी और हम अपने आपको उन पत्थरों की तरह फ़ुज़ूल और नाकारा तसव्वुर करने लगते थे, जिनको हमारे बेलचों के धक्के इधर उधर पटकते रहते थे। उन मुसाफ़िरों के तरह तरह के लिबास देख कर जिन पर यक़ीनन बहुत से रुपये सर्फ़ आए होंगे, हम ग़ैर इरादी तौर पर अपने कपड़ों की तरफ़ देखना शुरू कर देते थे। 

हममें से अक्सर का लिबास पट्टू के तंग पाइजामे, गाढ़े की क़मीज़ और लुधियाने की सदरी पर मुश्तमिल था। सबके पाइजामे या तो घुटनों पर से घिस घिस कर इतने बारीक हो गए थे कि उनमें जिस्म के बालों की पूरी नुमाइश होती थी या बिल्कुल फटे हुए थे। क़मीज़ों और सदरियों की भी यही हालत थी। उन पर जगह जगह मुख़्तलिफ़ रंग के पैवंद लगे हुए थे। क़रीब क़रीब हम सब की क़मीज़ों के बटन ग़ायब थे। इसलिए सीने आम तौर पर खुले रहते थे और काम करते वक़्त उन पर पसीने की बूंदें साफ़ नज़र आती थीं। 

बारह बजे के क़रीब हम काम छोड़कर खाने के लिए सड़क के नीचे उतर कर पेड़ के साये तले बैठ जाते थे। ये खाना हम सुबह कपड़े में बांध कर अपने साथ लाते थे। तीन ‘ढोडे’ (मकई की मोटी रोटियां) और आम तौर पर सरसों का साग होता था जिसको हम अपने भूके पेट में डालते थे। खाने के बाद हम पानी उ’मूमन नाले से पिया करते थे और जिस रोज़ बारिश की ज़्यादती के बाइ’स उस का पानी ज़्यादा गदला हो जाये तो हम दूर सड़क के उस पार चले जाया करते थे जहां साफ़ पानी का एक चशमा फूटता है। 

खाने से फ़ारिग़ हो कर हम फ़ौरन काम शुरू कर देते थे। गो हमारा जी चाहता था कि नर्म नर्रम घास पर लेट कर थोड़ी देर सुस्ता लें और फिर काम शुरू करें। मगर ये क्योंकर हो सकता था जब कि हमें हर वक़्त इस बात का ख़याल रहता था कि पूरा काम किए बग़ैर उजरत न मिलेगी। 

हमारा मतमह-ए-नज़र काम करना और इस हीले से अपना पेट पालना था और चूँकि हमें मालूम था कि हममें से किसी ने अगर अपने काम में ज़रा सी सुस्त रफ़्तारी या बे-दिली का इज़हार किया तो ताश की गड्डी से नाकारा जोकर की तरह बाहर फेंक दिया जाएगा। इसलिए हम दिल लगा कर काम किया करते थे ताकि हमारे अफ़सरों को शिकायत का मौक़ा न मिले। इसके ये मा’नी नहीं हैं कि हमारे अफ़सर हम पर बहुत ख़ुश थे। 

ये क्योंकर हो सकता है, वो बड़े आदमी ठहरे इसलिए उनका जायज़-ओ-नाजायज़ तौर पर ख़फ़ा होना भी दुरुस्त होता है। कभी ये लोग ऐसे ही हमारे काम का मुआ’इना करते वक़्त अपनी बे-इतमिनानी का इज़हार करते हुए हम पर बरस पड़ते थे। लेकिन हम जो उनकी बड़ाई को बख़ूबी समझते थे, महाराज, महाराज कह कर उनका गु़स्सा सर्द कर दिया करते। 

हम जानते थे, कि उनका गु़स्सा बिल्कुल बेजा है लेकिन ये एहसास हमारे दिलों में नफ़रत के जज़्बात पैदा नहीं करता था। शायद इसलिए कि कोरनिशों ने हमको बिल्कुल मुर्दा बना रखा है। या फिर इस की वजह ये भी हो सकती है कि हमको ये ख़ौफ़ दामन-गीर रहता था कि अगर हम अपने मौजूदा काम से हटा दिए गए तो हमारी रोज़ी बंद हो जाएगी। 

हम अपने काम से मुतमइन थे और यही वजह है कि हम थोड़ी मज़दूरी और ज़्यादा काम के मसले पर बहुत कम ग़ौर करते थे। उसकी ज़रूरत भी क्या है? इसलिए कि ये काम पढ़े लिखे आदमियों का है और हम बिल्कुल अनपढ़ और जाहिल थे। दरअस्ल बात ये है कि हमारी दुनिया बिल्कुल अलग थलग थी जिसकी सरहदें पत्थर तोड़ने या उनको हटाने, बारह बजे रोटी खाने और फिर काम करने और इसके बाद अपने अपने डेरों में सो जाने तक ख़त्म हो जाती थीं। 

हमें इन हदूद के बाहर किसी शय से कोई सरोकार न था। दूसरे अलफ़ाज़ में अपना और अपने मुतअ’ल्लिक़ीन का पेट पालने के धंदे में हम कुछ ऐसी बुरी तरह फंस कर रह गए थे कि इसके बाहर निकल कर हम किसी और शय की ख़्वाहिश करना ही भूल गए थे। 

हमारे काम पर सड़कों के महकमे की तरफ़ से एक निगराँ मुक़र्रर था जो दिन का बेशतर हिस्सा सड़क के एक तरफ़ चारपाई बिछा कर बैठे रहने में वक़्त गुज़ार देता। ये ज़ात का पण्डित था। ऊंचे तबक़े का इम्तियाज़ी निशान सिंदूर के तिलक की सूरत में हर वक़्त उसकी सफ़ेद पेशानी पर चमकता रहता था। हम अपने निगराँ को एहतराम और इज़्ज़त की निगाह से देखते थे। 

अव़्वल इसलिए कि वो ब्रहमन था और दूसरे इसलिए कि हम उसके मातहत थे। चुनांचे इधर उधर के दूसरे कामों के इलावा हम बारी बारी, दिन में कई बार उसके पीने के लिए हुक़्क़ा ताज़ा किया करते थे और आग बना कर उसकी चिलमें भरा करते थे। 

पण्डित का काम सर्फ़ ये था कि सुबह चारपाई पर अपने गरुरवे रंग की कलफ़ लगी पगड़ी और रेशमी कोट उतार कर अपने गंजे सर पर हाथ फेरते हुए हमारी हाज़िरी लगाए और फिर एक बड़े रजिस्टर में कुछ दर्ज करने के बाद इधर उधर टहलता रहे या हुक़्क़ा पीता रहे। वो अपने काम में बहुत कम दिलचस्पी लेता था। अलबत्ता जब कभी मुआ’इने के लिए किसी अफ़सर की मोटर उधर से गुज़रती थी तो वो अपनी चारपाई उठवा हमारे पास खड़ा हो जाया करता था। उसकी इस चालाकी पर हम दिल ही दिल में बहुत हंसा करते थे। 

एक रोज़ जबकि सुबह से हल्की हल्की फ़ुवार पड़ रही थी और हम बारह बजे खाने से फ़ारिग़ हो कर हस्ब-ए-मा’मूल अपने काम में मशग़ूल थे, मोटर के हॉर्न ने हमें चौंका दिया। लारियों की निसबत हम मोटरों के देखने के बहुत शाईक़ थे। इसलिए कि उनमें हमारी भूकी नज़रों के देखने के लिए अ’जीब-ओ-ग़रीब चीज़ें नज़र आती थीं। हम कमरें सीधी करके खड़े हो गए। 

इतने में मोटर के अ’क़ब से सब्ज़ रंग की एक छोटी मोटर नुमूदार हुई। जब ये हमारे क़रीब पहुंची तो हमने देखा कि उसकी बॉडी बारिश के नन्हे नन्हे क़तरों के नीचे चमक रही है। बहुत आहिस्ता आहिस्ता चल रही थी, शायद इसलिए कि पिछली सीट पर जो दो साहब बैठे हुए थे। इनमें एक अपनी रानों पर ग्रामोफोन रखे बजा रहे थे। जब ये मोटर हमारे मुक़ाबिल आई तो रिकार्ड की आवाज़ सड़क के साथ वाली पहाड़ी के पत्थरों से टकरा कर फ़िज़ा में गूंजी, कोई गा रहा था; 

न मैं किसी का न कोई मेरा छाया चारों और अंधेरा 

अब कुछ सूझत नाहीं, मोहे अब कुछ... 

आवाज़ में बेहद दर्द था। एक लम्हे के लिए ऐसा मालूम हुआ कि हम शायद बहर-ए-ज़ुलमात में डूब गए। जब मोटर अपनी नीम वा खिड़कियों से इस गीत के दर्दनाक सुर बिखेरती हुई हमारी नज़रों से ओझल हो गई तो हम सबने एक आह भर कर अपना काम शुरू कर दिया। 

शाम के क़रीब जब सूरज की सुर्ख़ और गर्म टिकिया पिघले हुए ताँबे का रंग इख़्तियार कर के एक स्याह पहाड़ी के पीछे छुप रही थी और उसकी उ’न्नाबी किरनें दराज़क़द दरख़्तों की चोटियों से खेल रही थीं। 

सब्ज़ रंग की वही मोटर उस तरफ़ से वापस आती दिखाई दी जिधर वो दोपहर को गई थी। जब हम ने उसके हॉर्न की आवाज़ सुनी तो काम छोड़ कर उसको देखने लगे। आहिस्ता आहिस्ता चलती हुई वो हमारे आगे से गुज़र गई और फिर दफ़अ’तन हमसे आधी जरीब के फ़ासले पर खड़ी हो गई। वो बाजा जो उसमें बज रहा था, ख़ामोश हो गया। 

थोड़ी देर के बाद पिछली सीट से एक नौजवान दरवाज़ा खोल कर बाहर निकला और अपनी पतलून को कमर पर से दुरुस्त करता हुआ हमारे पास से गुज़रा और आहिस्ता आहिस्ता उस पुल की तरफ़ रवाना हो गया, जो सामने नाले पर बंधा हुआ था। ये ख़याल करके कि वो नाले के पानी का नज़ारा करने के लिए गया है, जैसा कि आम तौर पर उधर से गुज़रने वाले मुसाफ़िर किया करते थे। हम अपने काम में मसरूफ़ हो गए। 

अभी हमें अपना काम शुरू किए पाँच मिनट से ज़्यादा अ’र्सा न गुज़रा होगा कि पुल की तरफ़ से ताली की आवाज़ बलंद हुई। हमने मुड़ कर देखा, पतलून पोश नौजवान सड़क के साथ पत्थरों से चुनी हुई दीवार के पास खड़ा ग़ालिबन मोटर में अपने साथियों को मुतवज्जा कर रहा था। संगीन मुंडेर पर उस नौजवान से कुछ दूर एक लड़की बैठी हुई थी। 

हम में से एक ने अपने बेलचे को बड़े ज़ोर से मोरी की गीली मिट्टी में गाड़ते हुए कहा, “ये राम दई है।” 

कालू ने जो उसके पास खड़ा था, दरयाफ़्त किया, “राम दई?” 

“संतू चमार की लड़की और कौन?” उस के लहजे में बेलचे के लोहे ऐसी सख़्ती थी। 

हम बाक़ी चार हैरान थे कि इस गुफ़्तगू का मतलब क्या है? अगर वो लड़की जो मुंडेर पर बैठी है, संतू चमार की लड़की है, तो कौन सी अहम बात है, कि हमारा साथी इस क़दर तेज़ बोल रहा है। 

हम ग़ौर कर रहे थे कि फ़ज़ल ने जो हम सबसे उम्र में बड़ा था और नमाज़-रोज़े का बहुत पाबंद था, अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए निहायत ही मुफ़क्किराना लहजे में कहा,“दुनिया में एक अंधेर मचा है... ख़ुदा मालूम लोगों को क्या हो गया है?” 

ये सुन कर हम बाक़ी तीन असल मुआ’मले से आगाह हो कर सब कुछ समझ गए और इस एहसास ने हमारे दिलों में ग़म और गुस्से की एक अ’जीब कैफ़ियत तारी कर दी। 

ताली की आवाज़ सुन कर मोटर की पिछली नशिस्त से पतलून पोश के साथी ने अपना सर बाहर निकाला और ये देख कर कि उसका दोस्त उसे बुला रहा है। दरवाज़ा खोल कर बाहर निकला और हमारे क़रीब से गुज़रता हुआ पुल की जानिब रवाना हो गया... हम बेवक़ूफ़ बकरियों की तरह उसे अपने दोस्त के पास जाता देखते रहे। 

जब पतलून पोश नौजवान का दोस्त उसके पास पहुंच गया तो वो दोनों लड़की की तरफ़ बढ़े और उस से बातें करना शुरू कर दीं। ये देख कर कालू पेच-ओ-ताब खा कर रह गया और ख़श्म-आलूद लहजे में बोला,“बदमाश!” 

फ़ज़ल ने सर्द आह भरी और मग़्मूम लहजे में कहने लगा, “जब से ये सड़क बनी है और ऐसे बाबूओं की आमद-ओ-रफ़्त ज़्यादा हो गई है, यहां के तमाम इलाक़ों में गंदगी फैल गई है। लोग कहते हैं कि ये सड़क बनने से बहुत आराम हो गया है, होगा, मगर इस क़िस्म की बेशर्मी के नज़ारे पहले कभी देखने में न आते थे, ख़ुदा बचाए! ” 

इस दौरान में पतलून पोश के साथी ने लड़की को बाज़ू से पकड़ लिया और ग़ालिबन उसको उठ कर चलने के लिए कहा, मगर वो अपनी जगह पर बैठी रही। ये देख कर कालू से न रहा गया और उस ने राम प्रशाद से कहा, “आओ, ये लोग तो अब दस्त दराज़ी कर रहे हैं।” 

कालू ये कह कर अकेला ही उस जानिब बढ़ने को था कि हमने उसे रोक दिया, और ये मशवरा दिया, कि तमाम मुआ’मला पण्डित के गोश गुज़ार कर दिया जाये जो चारपाई पर सो रहा है और फिर जो वो कहे उस पर अ’मल किया जाये। इस तजवीज़ को मा’क़ूल ख़याल करके हम सब पण्डित के पास गए और उसे जगा कर सारा क़िस्सा सुना दिया। 

उसने हमारी गुफ़्तगू को बड़ी बे-पर्वाई से सुना, जैसे कोई बात ही नहीं और उन दो नौजवानों की तरफ़ देख कर जो अब राम दई को ख़ुदा मालूम किस तरीक़े से मना कर अपने साथ ला रहे थे कहा, 

“जाओ तुम अपना काम करो। मैं उनसे ख़ुद दरयाफ़्त कर लूंगा।” 

ये जवाब सुन कर हम बेचारगी की हालत में अपने काम पर गए, लेकिन हम सबकी निगाहें राम दई और उन दो नौजवानों पर जमी हुई थी, जो अब पुल तै कर के पण्डित की चारपाई के क़रीब पहुंच रहे थे। लड़के आगे थे और राम दई थकी हुई घोड़ी की तरह उनके पीछे पीछे चल रही थी। जब वो सब पण्डित के आगे से गुज़रने लगे तो वो चारपाई पर से उठा... दो-तीन मिनट तक उनसे कुछ बातें करने के बाद वो भी उनके साथ हो लिया। 

जब पण्डित, राम दई और वो नौजवान हमारे पास से गुज़रे तो हमने देखा कि नौजवानों के चेहरों पर एक हैवानी झलक नाच रही है और पण्डित बड़े अदब से उनके साथ चल रहा है। राम दई की नज़रें झुकी हुई थीं। 

मोटर के पास पहुंच कर पण्डित ने आगे बढ़ कर उसका दरवाज़ा खोला। पहले पतलून पोश फिर राम दई और इसके बाद दूसरा नौजवान मोटर में दाख़िल हो गए। हमारे देखते देखते मोटर चली और नज़रों से ओझल हो गई और हम आँखें झपकते रह गए। 

“शैतान, मर्दूद!” कालू ने बड़े इज़्तराब से ये दो लफ़्ज़ अदा किए। 

इतने में पण्डित आ गया और हमको मुज़्तरिब देख कर एक मस्नूई आवाज़ में कहने लगा, “मैंने उन से दरयाफ़्त किया है, कोई बात नहीं। वो लड़की को ज़रा मोटर की सैर कराना चाहते थे। इंस्पेक्टर साहब के मेहमान हैं और डाक बंगले में ठहरे हुए हैं। थोड़ी दूर ले जा कर उसे छोड़ देंगे... अमीर आदमी हैं। उनके शग़ल इसी क़िस्म के होते हैं।” 

ये कह कर पण्डित चला गया। 

हम देर तक ख़ुदा मालूम किन गहराईयों में ग़र्क़ रहे कि दफ़अ’तन फ़ज़ल की आवाज़ ने हमें चौंका दिया। दो मर्तबा ज़ोर से थूक कर उसने अपने हाथों को गीला किया और बेलचे को संगरेज़ों के ढेर में गाड़ते हुए कहा, “अगर अमीर आदमियों के यही शग़ल हैं तो हम ग़रीबों की बहू बेटियों का अल्लाह बेली है!”  

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बीमार

13 अप्रैल 2022
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अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातब किया और बे-रबत तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाब

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बिस्मिल्लाह

13 अप्रैल 2022
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फ़िल्म बनाने के सिलसिले में ज़हीर से सईद की मुलाक़ात हुई। सईद बहुत मुतअस्सिर हुआ। बंबई में उस ने ज़हीर को सेंट्रल स्टूडीयोज़ में एक दो मर्तबा देखा था और शायद चंद बातें भी की थीं मगर मुफ़स्सल मुलाक़ात पहली

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बिजली पहलवान

13 अप्रैल 2022
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बिजली पहलवान के मुतअल्लिक़ बहुत से क़िस्से मशहूर हैं कहते हैं कि वो बर्क़-रफ़्तार था। बिजली की मानिंद अपने दुश्मनों पर गिरता था और उन्हें भस्म कर देता था लेकिन जब मैंने उसे मुग़ल बाज़ार में देखा तो वो मुझ

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बाबू गोपीनाथ

13 अप्रैल 2022
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बाबू गोपी नाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हूई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावारपर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सीनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था। सी

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पहचान

20 अप्रैल 2022
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एक निहायत ही थर्ड क्लास होटल में देसी विस्की की बोतल ख़त्म करने के बाद तय हुआ कि बाहर घूमा जाये और एक ऐसी औरत तलाश की जाये जो होटल और विस्की के पैदा करदा तकद्दुर को दूर कर सके। कोई ऐसी औरत ढूँडी जाय

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फातो

20 अप्रैल 2022
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तेज़ बुख़ार की हालत में उसे अपनी छाती पर कोई ठंडी चीज़ रेंगती महसूस हुई। उस के ख़्यालात का सिलसिला टूट गया। जब वो मुकम्मल तौर पर बेदार हुआ तो उस का चेहरा बुख़ार की शिद्दत के बाइस तिमतिमा रहा था। उस ने आँ

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फौजा हराम दा

20 अप्रैल 2022
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टी हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअल्लिक़ अपने तअस्सुरात बयान किए जिस से उस को अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर

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माई जनते

20 अप्रैल 2022
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माई जनते स्लीपर ठपठपाती घिसटती कुछ इस अंदाज़ में अपने मैले चकट में दाख़िल हुई ही थी कि सब घर वालों को मालूम हो गया कि वो आ पहुंची है। वो रहती उसी घर में थी जो ख़्वाजा करीम बख़्श मरहूम का था अपने पीछे क

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मौसम की शरारत

20 अप्रैल 2022
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शाम को सैर के लिए निकला और टहलता टहलता उस सड़क पर हो लिया जो कश्मीर की तरफ़ जाती है। सड़क के चारों तरफ़ चीड़ और देवदार के दरख़्त, ऊंची ऊंची पहाड़ियों के दामन पर काले फीते की तरह फैले हुए थे। कभी कभी हवा के

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हामिद का बच्चा

20 अप्रैल 2022
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लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा न घाट का। उन्होंने आते ही हामिद से कहा, “लो, भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंदोबस्त करो।” हामिद ने कहा, “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए

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नुत्फ़ा

20 अप्रैल 2022
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मालूम नहीं बाबू गोपी नाथ की शख़्सियत दर-हक़ीक़त ऐसी ही थी जैसी आप ने अफ़साने में पेश की है, या महज़ आपके दिमाग़ की पैदावार है, पर मैं इतना जानता हूँ कि ऐसे अजीब-ओ-ग़रीब आदमी आम मिलते हैं। मैंने जब आपका अफ़

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डार्लिंग

20 अप्रैल 2022
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ये उन दिनों का वाक़िया है। जब मशरिक़ी और मग़रिबी पंजाब में क़तल-ओ-ग़ारतगरी और लूट मार का बाज़ार गर्म था। कई दिन से मूसलाधार बारिश होरही थी। वो आग जो इंजनों से न बुझ सकी थी। इस बारिश ने चंद घंटों ही में ठ

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मोमबत्ती के आँसू

20 अप्रैल 2022
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ग़लीज़ ताक़ पर जो शिकस्ता दीवार में बना था, मोमबत्ती सारी रात रोती रही थी। मोम पिघल पिघल कर कमरे के गीले फ़र्श पर ओस के ठिठुरे हुए धुँदले क़तरों के मानिंद बिखर रहा था। नन्ही लाजो मोतियों का हार लेने

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रिश्वत

20 अप्रैल 2022
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अहमद दीन खाते पीते आदमी का लड़का था। अपने हम उम्र लड़कों में सबसे ज़्यादा ख़ुशपोश माना जाता था, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि वो बिल्कुल ख़स्ता हाल हो गया। उसने बी.ए किया और अच्छी पोज़ीशन हासिल की। वो

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नारा

20 अप्रैल 2022
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उसे यूं महसूस हुआ कि उस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें उसके काँधों पर धर दी गई हैं। वो सातवें मंज़िल से एक एक सीढ़ी कर के नीचे उतरा और तमाम मंज़िलों का बोझ उसके चौड़े मगर दुबले कांधे पर सवार होता गय

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झूटी कहानी

20 अप्रैल 2022
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कुछ अर्से से अक़ल्लियतें अपने हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेदार हो रही थीं। उन को ख़्वाब-ए-गिरां से जगाने वाली अक्सरियतें थीं जो एक मुद्दत से अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए उन पर दबाओ डालती रही थीं। इस बेदार

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नफ़्सियाती मुताला

20 अप्रैल 2022
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मुझे चाय के लिए कह कर, वह उन के दोस्त फिर अपनी बातों में ग़र्क़ हो गए। गुफ़्तुगू का मौज़ू, तरक़्क़ी पसंद अदब और तरक़्क़ी पसंद अदीब था। शुरू शुरू में तो ये लोग उर्दू के अफ़सानवी अदब पर ताइराना नज़र

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जाओ हनीफ़ जाओ

20 अप्रैल 2022
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चौधरी ग़ुलाम अब्बास की ताज़ा तरीन तक़रीर-ओ-तबादल-ए-ख़यालात हो रहा था। टी हाउस की फ़ज़ा वहां की चाय की तरह गर्म थी। सब इस बात पर मुत्तफ़िक़ थे कि हम कश्मीर ले कर रहें गे, और ये कि डोगरा राज का फ़िल-फ़ौर ख़ात

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जान मोहम्मद

20 अप्रैल 2022
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मेरे दोस्त जान मुहम्मद ने, जब मैं बीमार था मेरी बड़ी ख़िदमत की। मैं तीन महीने हस्पताल में रहा। इस दौरान में वो बाक़ायदा शाम को आता रहा बाअज़ औक़ात जब मेरे नौकर अलील होते तो वो रात को भी वहीं ठहरता ताकि

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जेंटिलमेनों का बुरश

20 अप्रैल 2022
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ये ग़ालिबन आज से बीस बरस पीछे की बात है। मेरी उम्र यही कोई बाईस बरस के क़रीब होगी, या शायद इस से दो बरस कम। क्योंकि तारीख़ों और सनों के मुआमले में मेरा हाफ़िज़ा बिलकुल सिफ़र है। मेरी दोस्ती का हल्क़ा उन

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देख कबीरा रोया

20 अप्रैल 2022
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नगर नगर ढिंडोरा पीटा गया कि जो आदमी भीक मांगेगा उसको गिरफ़्तार कर लिया जाये। गिरफ्तारियां शुरू हुईं। लोग ख़ुशियां मनाने लगे कि एक बहुत पुरानी ला’नत दूर हो गई। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँ

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टू टू

20 अप्रैल 2022
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मैं सोच रहा था, दुनिया की सबसे पहली औरत जब माँ बनी तो कायनात का रद्द-ए-अ’मल क्या था? दुनिया के सबसे पहले मर्द ने क्या आसमानों की तरफ़ तमतमाती आँखों से देख कर दुनिया की सब से पहली ज़बान में बड़े फ़ख़्

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डरपोक

20 अप्रैल 2022
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मैदान बिल्कुल साफ़ था, मगर जावेद का ख़याल था कि म्युनिसिपल कमेटी की लालटेन जो दीवार में गड़ी है, उसको घूर रही है। बार बार वो उस चौड़े सहन को जिस पर नानक शाही ईंटों का ऊंचा-नीचा फ़र्श बना हुआ था, तय कर क

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दीवाली के दीये

20 अप्रैल 2022
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छत की मुंडेर पर दीवाली के दीये हाँपते हुए बच्चों के दिल की तरह धड़क रहे थे। मुन्नी दौड़ती हुई आई। अपनी नन्ही सी घगरी को दोनों हाथों से ऊपर उठाए छत के नीचे गली में मोरी के पास खड़ी हो गई। उसकी रोती

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तस्वीर

20 अप्रैल 2022
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“बच्चे कहाँ हैं?” “मर गए हैं।” “सब के सब?” “हाँ, सबके सब... आपको आज उनके मुतअ’ल्लिक़ पूछने का क्या ख़याल आ गया।” “मैं उनका बाप हूँ।” “आप ऐसा बाप ख़ुदा करे कभी पैदा ही न हो।” “

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नया साल

20 अप्रैल 2022
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कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जिस पर मोटे हुरूफ़ में 31 दिसंबर छपा हुआ था, एक लम्हा के अंदर उसकी पतली उंगलियों की गिरफ़्त में था। अब कैलेंडर एक टूंड मुंड दरख़्त सा नज़र आने लगा। जिसकी टहनियों पर से सारे पत्ते

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ढारस

20 अप्रैल 2022
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आज से ठीक आठ बरस पहले की बात है। हिंदू सभा कॉलिज के सामने जो ख़ूबसूरत शादी घर है, उसमें हमारे दोस्त बिशेशर नाथ की बरात ठहरी हुई थी। तक़रीबन तीन साढ़े तीन सौ के क़रीब मेहमान थे जो अमृतसर और लाहौर

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तीन में ना तेरह में

20 अप्रैल 2022
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“मैं तीन में हूँ न तेरह में, न सुतली की गिरह में।” “अब तुमने उर्दू के मुहावरे भी सीख लिये।” “आप मेरा मज़ाक़ क्यों उड़ाते हैं। उर्दू मेरी मादरी ज़बान है।” “पिदरी क्या थी? तुम्हारे वालिद बुज़ु

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डायरेक्टर कृपलानी

20 अप्रैल 2022
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डायरेक्टर कृपलानी अपनी बलंद किरदारी और ख़ुश अतवारी की वजह से बंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े एहतराम की नज़र से देखा जाता था। बा’ज़ लोग तो हैरत का इज़हार करते थे कि ऐसा नेक और पाकबाज़ आदमी फ़िल्म डायरे

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