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मातमी जलसा

13 अप्रैल 2022

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रात रात में ये ख़बर शहर के इस कोने से उस कोने तक फैल गई कि अतातुर्क कमाल मर गया है। रेडियो की थरथराती हुई ज़बान से ये सनसनी फैलाने वाली ख़बर ईरानी होटलों में सट्टे बाज़ों ने सुनी जो चाय की प्यालियां सामने रखे आने वाले नंबर के बारे में क़ियास दौड़ा रहे थे और वो सब कुछ भूल कर कमाल अतातुर्क की बड़ाई में गुम हो गए।

होटल में सफ़ैद पत्थर वाले मेज़ के पास बैठे हुए एक स्टोरी ने अपने साथी से ये ख़बर सुन कर लर्ज़ां आवाज़ में कहा। “मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”

उस के साथी के हाथ से चाय की प्याली गिरते गिरते बची। “क्या कहा मुस्तफ़ा कमाल मर गया!”

इस के बाद दोनों में अतातुर्क कमाल के मुतअल्लिक़ बात-चीत शुरू हो गई। एक ने दूसरे से कहा। “बड़े अफ़्सोस की बात है, अब हिंदूस्तान का क्या होगा? मैं ने सुना था ये मुस्तफ़ा कमाल यहां पर हमला करने वाला है...... हम आज़ाद हो जाते, मुस्लमान क़ौम आगे बढ़ जाती.... अफ़्सोस तक़दीर के साथ किसी की पेश नहीं चलती!”

दूसरे ने जब ये बात सुनी तो उस के रोईं बदन पर चियूंटियों के मानिंद सरकने लगे। इस पर एक अजीब-ओ-ग़रीब कैफ़ियत तारी हो गई। उस के दिल में जो पहला ख़याल आया, ये था मुझे कल जुमा से नमाज़ शुरू कर देनी चाहिए........

इस ख़याल को बाद में उस ने मुस्तफ़ा कमाल पाशा की शानदार मुस्लमानी और इस बड़ाई में तहलील कर दिया।

बाज़ार की एक तंग गली में दो तीन कोकीन फ़रोश खाट पर बैठे बातें कर रहे थे। एक ने पान की पीक बड़ी सफ़ाई से बिजली के खंबे पर फेंकी और कहा। “मैं मानता हूँ, मुस्तफ़ा कमाल बहुत बड़ा आदमी था। लेकिन मुहम्मद अली भी किसी से कम नहीं था। यहां बंबई में तीन चार होटलों का नाम उसी पर रखा गया है!”

दूसरे ने जो अपनी नंगी पिंडलियों पर से एक खुरदरे चाक़ू से मैल उतारने की कोशिश कर रहा था। अपने दोनों साथीयों से कहा। “मोहम्मद अली की मौत पर तो बड़ी शानदार हड़ताल हुई थी.... ”

“हाँ भई तो कल हड़ताल हो रही है क्या?” तीसरे ने एक की पसलियों में कोहनी से ठोका दिया। उस ने जवाब दिया “क्यों न होगी........ अरे इतना बड़ा मुस्लमान मर जाये और हड़ताल न हो।”

ये बात एक राहगीर ने सुन ली, उस ने दूसरे चौक में अपने दोस्तों से कही और एक घंटे में इन सब लोगों को जो दिन को सोने और रात को बाज़ारों में जागते रहने के आदी हैं, मालूम हो गया कि सुबह हड़ताल हो रही है।

अब्बू क़साई रात को दो बजे अपनी खोली में आया। उस ने आते ही ताक़ में से बहुत सी चीज़ों को इधर उधर उलट पलट करने के बाद एक पुड़िया निकाली और एक देगची में पानी भर कर उस को इस में डाल कर घोलना शुरू कर दिया।

उस की बीवी जो दिन भर की थकी माँदी एक कोने में टाट पर सो रही थी। बर्तन की रगड़ सुन कर जाग पड़ी। उस ने लेटे लेटे कहा। “आ गए हो?”

“हाँ आ गया हूँ।” ये कह कर अब्बू ने अपनी क़मीज़ उतार कर देगची में डाल दी और उसे पानी के अंदर मसलना शुरू कर दिया।

उस की बीवी ने पूछा। “पर ये तुम क्या कर रहे हो! मुस्तफ़ा कमाल मर गया है, कल हड़ताल हो रही है!” उस की बीवी ये सुन कर घबराहट के मारे उठ खड़ी हुई “क्या मारा मारी होगी?.... मैं तो इन हर रोज़ के फसादों से बड़ी तंग आ गई हूँ। वो सर पकड़ कर बैठ गई। मैं ने तुझ से हज़ार मर्तबा कहा है कि तू हिंदूओं के इस मुहल्ले से अपना मकान बदल डाल पर न जाने तू कब सुनेगा!”

अब्बू जवाब में हँसने लगा। “अरी पगली........ ये हिंदू मुस्लमानों का फ़साद नहीं। मुस्तफ़ा कमाल मर गया है........ वही जो बहुत बड़ा आदमी था.... कल उस के सोग में हड़ताल होगी!”

“जाने मेरी बला यह बड़ा आदमी कौन है........ पर ये तू क्या कर रहा है?” बीवी ने पूछा “सोता क्यों नहीं है!” क़मीज़ को काला रंग दे रहा हूँ.... सुबह हमें हड़ताल कराने जाना है।” ये कह कर उस ने क़मीज़ निचोड़ कर दो कीलों के साथ लटका दी जो दीवार में गड़ी हुई थीं।

दूसरे रोज़ सुबह को स्याह पोश मुस्लमानों की टोलियां काले झंडे लिए बाज़ारों में चक्कर लगा रही थीं। ये स्याह पोश मुस्लमान दुकानदारों की दुकानें बंद करा रहे थे और ये नारे लगा रहे थे। इन्क़िलाब ज़िंदाबाद। इन्क़िलाब ज़िंदाबाद!

एक हिंदू ने जो अपनी दुकान खोलने के लिए जा रहा था ये नारे सुने और नारे लगाने वालों को देखा तो चुपचाप ट्राम में बैठ कर वहां से खिसक गया। दूसरे हिंदू और पार्सी दुकानदारों ने जब मुस्लमानों के एक गिरोह को चीख़ते चिल्लाते और नारे मारते देखा तो उन्हों ने झटपट अपनी दुकानें बंद कर लीं।

दस पंद्रह स्याह पोश गप्पें हांकते एक बाज़ार से गुज़र रहे थे। एक ने अपने साथी से कहा। दोस्त हड़ताल हुई तो ख़ूब ही पर वैसी नहीं हुई जैसी मोहम्मद अली के टीम पर हुई थी.... ट्रामें तो इसी तरह चल रही हैं।

इस टोली में जो सब से ज़्यादा जोशीला था और जिस के हाथ में स्याह झंडा था तिनक कर बोला। “आज भी नहीं चलेंगी! ये कह कर वो इस ट्राम की तरफ़ बढ़ा जो लकड़ी के एक शेड के नीचे मुसाफ़िरों को उतार रही थी। टोली के बाक़ी आदमियों ने उस का साथ दिया और एक लम्हा के अंदर सब के सब ट्राम की सुर्ख़ गाड़ी के इर्दगिर्द थे। सब मुसाफ़िर ज़बरदस्ती उतार दिए गए।

शाम को एक वसी मैदान में मातमी जलसा हुआ। शहर के सब हंगामा-पसंद जमा थे। ख़वांचा-फ़रोश और पान बीड़ी वाले चल फिर कर अपना सौदा बेच रहे थे। जल्सा-गाह के बाहर आरज़ी दुकानों के पास एक मेला लगा हुआ था, चाट के चुनूं और उबले हुए आलूओं की ख़ूब बिक्री हो रही थी।

जल्सा-गाह के अंदर और बाहर बहुत भीड़ थी। खोवे से खोवा छलता था। इस हुजूम में कई आदमी ऐसे भी चल फिर रहे थे जो ये मालूम करने की कोशिश में मसरूफ़ थे कि इतने आदमी क्यों जमा हो रहे हैं। एक साहब गले में दूर-बीन लटकाए इधर उधर चक्कर काट रहे थे। दूर से इतनी भीड़ देख कर और ये समझ कर कि पहलवानों का दंगल हो रहा है वो अभी अभी अपने घर से नई दूर-बीन ले कर दौड़े दौड़े आ रहे थे और इस का इम्तिहान लेने के लिए बे-ताब हो रहे थे, मैदान के आहनी जंगले के पास दो आदमी खड़े आपस में बातचीत कर रहे थे। एक ने अपने साथी से कहा। “भई ये मुस्तफ़ा कमाल तो वाक़ई कोई बहुत बड़ा आदमी मालूम होता है.... मैं जो साबुन बनाने वाला हूँ इस का नाम कमाल सोप रखूंगा.... क्यों कैसा रहेगा?”

दूसरे ने जवाब दिया। “वो भी बुरा नहीं था जो तुम ने पहले सोचा था। जिन्नाह सोप ........ ये जिन्नाह मुस्लिम लीग का बहुत बड़ा लीडर है!”

“नहीं, नहीं। कमाल सोप अच्छा रहेगा........ भाई मुस्तफ़ा कमाल इस से बड़ा आदमी है।” ये कह कर उस ने अपने साथी के कांधे पर हाथ रखा। “आओ चलें जल्सा शुरू होने वाला है।” वो दोनों जल्सा-गाह की तरफ़ चल दिए।

जल्सा शुरू हुआ।

आग़ाज़ में नज़्में गाई गईं जिन में मुस्तफ़ा कमाल की बड़ाई का ज़िक्र था फिर एक साहब तक़रीर करने के लिए उठे। आप ने कमाल अतातुर्क की अज़मत बड़ी बलंद बाँग लफ़्ज़ों में बयान करना शुरू की। हाज़िरीन-ए-जल्सा इस तक़रीर को ख़ामोशी से सुनते रहे। जब कभी मुक़र्रिर के ये अल्फ़ाज़ गूंजते “मुस्तफ़ा कमाल ने दर्रा-ए-दानयाल से अंग्रेज़ों को लात मार के बाहर निकाल दिया।” या “कमाल ने यूनानी भेड़ों को इस्लामी ख़ंजर से ज़बह कर डाला।” तो “इस्लाम ज़िंदाबाद” के नारों से मैदान काँप काँप उठता।

ये नारे मुक़र्रिर की क़ुव्वत-ए-गोयाई को और तेज़ कर देते और वो ज़्यादा जोश से अतातुर्क कमाल की अज़ीमुश्शान शख़्सियत पर रौशनी डालना शुरू कर देता।

मुक़र्रिर का एक एक लफ़्ज़ हाज़िरीन-ए-जल्सा के दिलों में एक जोश-ओ-ख़रोश पैदा कर रहा था।

“जब तक तारीख़ में गीली पोली का वाक़िया मौजूद है बर्तानिया की गर्दन टर्की के सामने ख़म रहेगी। सिर्फ़ टर्की ही एक ऐसा मुल्क है जिस ने बर्तानवी हुकूमत का कामयाब मुक़ाबला किया। और सिर्फ़ मुस्तफ़ा कमाल ही ऐसा मुस्लमान है जिस ने ग़ाज़ी सलाहुद्दीन अय्यूबी की सिपाहियाना अज़मत की याद ताज़ा की। उस ने ब-नोक-ए-शमशीर यूरोपी ममालिक से अपनी ताक़त का लोहा मनवाया। टर्की को यूरोप का मर्द-ए-बीमार कहा जाता था। मगर कमाल ने उसे सेहत और क़ुव्वत बख़्श कर मर्द-ए-आहन बना दिया।”

जब ये अल्फ़ाज़ जल्सा-गाह में बुलंद हुए तो “इन्क़िलाब ज़िंदाबाद, इन्क़िलाब ज़िंदाबाद” के नारे पाँच मिनट तक मुतवातिर बुलंद होते रहे।

इस से मुक़र्रिर का जोश बहुत बढ़ गया। उस ने अपनी आवाज़ को और बुलंद करके कहना शुरू क्या “कमाल की अज़मत मुख़्तसर अल्फ़ाज़ में बयान नहीं हो सकती। उस ने अपने मुल्क के लिए वो ख़िदमात सर-अंजाम दी हैं जिस को बयान करने के लिए काफ़ी वक़्त चाहिए। उस ने टर्की में जहालत का दीवालीया निकाल दिया। तालीम आम कर दी। नई रौशनी की शुवाओं को फैलाया। ये सब कुछ उस ने तलवार के ज़ोर से किया। उस ने दीन को जब इल्म से अलाहिदा किया तो बहुत से क़दामत-पसंदों ने उस की मुख़ालिफ़त की मगर वो सर-ए-बाज़ार फांसी पर लटका दिए गए। उस ने जब ये फ़रमान जारी किया कि कोई तुर्क रूमी टोपी न पहने तो बहुत से जाहिल लोगों ने इस के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना चाही मगर ये आवाज़ उन के गले ही में दबा दी गई। उस ने जब ये हुक्म दिया कि अज़ान टर्की ज़बान में हो तो बहुत से मुल्लाओं ने उदूल-ए-हुक्मी की मगर वो क़तल कर दिए गए.... ”

“ये कुफ़्र बकता है।” जल्सा-गाह में एक शख़्स की आवाज़ बुलंद हुई और फ़ौरन ही सब लोग मुज़्तरिब हो गए।

“ये काफ़िर है झूट बोलता है।” के नारों में मुक़र्रिर की आवाज़ ग़ुम हो गई। पेशतर इस के कि वो अपना माफी-अल-ज़मीर बयान करता उस के माथे पर एक पत्थर लगा और वो चकरा कर स्टेज पर गिर पड़ा। जल्से में एक भगदड़ मच गई।

स्टेज पर मुक़र्रिर का एक दोस्त उस के माथे पर से ख़ून पोंछ रहा था और जल्सा-गाह इन नारों से गूंज रही थी। “मुस्तफ़ा कमाल ज़िंदाबाद, मुस्तफ़ा कमाल ज़िंदाबाद” 

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सआदत हसन मंटो की प्रसिद्ध कहानियाँ
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पिछले दिनों मेरी रूह और मेरा जिस्म दोनों अ’लील थे। रूह इसलिए कि मैंने दफ़अ’तन अपने माहौल की ख़ौफ़नाक वीरानी को महसूस किया था और जिस्म इसलिए कि मेरे तमाम पुट्ठे सर्दी लग जाने के बाइ’स चोबी तख़्ते के मानि

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मजीद की माहाना आमदनी ढाई हज़ार रुपय थी। मोटर थी। एक आलीशान कोठी थी। बीवी थी। इस के इलावा दस पंद्रह औरतों से मेल जोल था। मगर जब कभी वो विस्की के तीन चार पैग पीता तो उसे अपना माज़ी याद आजाता। वो सोचता कि

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अजब बात है कि जब भी किसी लड़की या औरत ने मुझे ख़त लिखा भाई से मुख़ातब किया और बे-रबत तहरीर में इस बात का ज़रूर ज़िक्र किया कि वो शदीद तौर पर अलील है। मेरी तसानीफ़ की बहुत तारीफ़ें कीं। ज़मीन-ओ-आसमान के कुलाब

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बिजली पहलवान के मुतअल्लिक़ बहुत से क़िस्से मशहूर हैं कहते हैं कि वो बर्क़-रफ़्तार था। बिजली की मानिंद अपने दुश्मनों पर गिरता था और उन्हें भस्म कर देता था लेकिन जब मैंने उसे मुग़ल बाज़ार में देखा तो वो मुझ

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बाबू गोपी नाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हूई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावारपर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सीनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था। सी

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एक निहायत ही थर्ड क्लास होटल में देसी विस्की की बोतल ख़त्म करने के बाद तय हुआ कि बाहर घूमा जाये और एक ऐसी औरत तलाश की जाये जो होटल और विस्की के पैदा करदा तकद्दुर को दूर कर सके। कोई ऐसी औरत ढूँडी जाय

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तेज़ बुख़ार की हालत में उसे अपनी छाती पर कोई ठंडी चीज़ रेंगती महसूस हुई। उस के ख़्यालात का सिलसिला टूट गया। जब वो मुकम्मल तौर पर बेदार हुआ तो उस का चेहरा बुख़ार की शिद्दत के बाइस तिमतिमा रहा था। उस ने आँ

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टी हाऊस में हरामियों की बातें शुरू हुईं तो ये सिलसिला बहुत देर तक जारी रहा। हर एक ने कम अज़ कम एक हरामी के मुतअल्लिक़ अपने तअस्सुरात बयान किए जिस से उस को अपनी ज़िंदगी में वास्ता पड़ चुका था। कोई जालंधर

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शाम को सैर के लिए निकला और टहलता टहलता उस सड़क पर हो लिया जो कश्मीर की तरफ़ जाती है। सड़क के चारों तरफ़ चीड़ और देवदार के दरख़्त, ऊंची ऊंची पहाड़ियों के दामन पर काले फीते की तरह फैले हुए थे। कभी कभी हवा के

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लाहौर से बाबू हरगोपाल आए तो हामिद घर का रहा न घाट का। उन्होंने आते ही हामिद से कहा, “लो, भई फ़ौरन एक टैक्सी का बंदोबस्त करो।” हामिद ने कहा, “आप ज़रा तो आराम कर लीजिए। इतना लंबा सफ़र तय करके यहां आए

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20 अप्रैल 2022
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मालूम नहीं बाबू गोपी नाथ की शख़्सियत दर-हक़ीक़त ऐसी ही थी जैसी आप ने अफ़साने में पेश की है, या महज़ आपके दिमाग़ की पैदावार है, पर मैं इतना जानता हूँ कि ऐसे अजीब-ओ-ग़रीब आदमी आम मिलते हैं। मैंने जब आपका अफ़

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ये उन दिनों का वाक़िया है। जब मशरिक़ी और मग़रिबी पंजाब में क़तल-ओ-ग़ारतगरी और लूट मार का बाज़ार गर्म था। कई दिन से मूसलाधार बारिश होरही थी। वो आग जो इंजनों से न बुझ सकी थी। इस बारिश ने चंद घंटों ही में ठ

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मोमबत्ती के आँसू

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ग़लीज़ ताक़ पर जो शिकस्ता दीवार में बना था, मोमबत्ती सारी रात रोती रही थी। मोम पिघल पिघल कर कमरे के गीले फ़र्श पर ओस के ठिठुरे हुए धुँदले क़तरों के मानिंद बिखर रहा था। नन्ही लाजो मोतियों का हार लेने

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रिश्वत

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अहमद दीन खाते पीते आदमी का लड़का था। अपने हम उम्र लड़कों में सबसे ज़्यादा ख़ुशपोश माना जाता था, लेकिन एक वक़्त ऐसा भी आया कि वो बिल्कुल ख़स्ता हाल हो गया। उसने बी.ए किया और अच्छी पोज़ीशन हासिल की। वो

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नारा

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उसे यूं महसूस हुआ कि उस संगीन इमारत की सातों मंज़िलें उसके काँधों पर धर दी गई हैं। वो सातवें मंज़िल से एक एक सीढ़ी कर के नीचे उतरा और तमाम मंज़िलों का बोझ उसके चौड़े मगर दुबले कांधे पर सवार होता गय

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झूटी कहानी

20 अप्रैल 2022
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कुछ अर्से से अक़ल्लियतें अपने हुक़ूक़ के तहफ़्फ़ुज़ के लिए बेदार हो रही थीं। उन को ख़्वाब-ए-गिरां से जगाने वाली अक्सरियतें थीं जो एक मुद्दत से अपने ज़ाती फ़ायदे के लिए उन पर दबाओ डालती रही थीं। इस बेदार

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नफ़्सियाती मुताला

20 अप्रैल 2022
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मुझे चाय के लिए कह कर, वह उन के दोस्त फिर अपनी बातों में ग़र्क़ हो गए। गुफ़्तुगू का मौज़ू, तरक़्क़ी पसंद अदब और तरक़्क़ी पसंद अदीब था। शुरू शुरू में तो ये लोग उर्दू के अफ़सानवी अदब पर ताइराना नज़र

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जाओ हनीफ़ जाओ

20 अप्रैल 2022
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चौधरी ग़ुलाम अब्बास की ताज़ा तरीन तक़रीर-ओ-तबादल-ए-ख़यालात हो रहा था। टी हाउस की फ़ज़ा वहां की चाय की तरह गर्म थी। सब इस बात पर मुत्तफ़िक़ थे कि हम कश्मीर ले कर रहें गे, और ये कि डोगरा राज का फ़िल-फ़ौर ख़ात

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जान मोहम्मद

20 अप्रैल 2022
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मेरे दोस्त जान मुहम्मद ने, जब मैं बीमार था मेरी बड़ी ख़िदमत की। मैं तीन महीने हस्पताल में रहा। इस दौरान में वो बाक़ायदा शाम को आता रहा बाअज़ औक़ात जब मेरे नौकर अलील होते तो वो रात को भी वहीं ठहरता ताकि

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जेंटिलमेनों का बुरश

20 अप्रैल 2022
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ये ग़ालिबन आज से बीस बरस पीछे की बात है। मेरी उम्र यही कोई बाईस बरस के क़रीब होगी, या शायद इस से दो बरस कम। क्योंकि तारीख़ों और सनों के मुआमले में मेरा हाफ़िज़ा बिलकुल सिफ़र है। मेरी दोस्ती का हल्क़ा उन

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देख कबीरा रोया

20 अप्रैल 2022
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नगर नगर ढिंडोरा पीटा गया कि जो आदमी भीक मांगेगा उसको गिरफ़्तार कर लिया जाये। गिरफ्तारियां शुरू हुईं। लोग ख़ुशियां मनाने लगे कि एक बहुत पुरानी ला’नत दूर हो गई। कबीर ने ये देखा तो उसकी आँखों में आँ

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टू टू

20 अप्रैल 2022
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मैं सोच रहा था, दुनिया की सबसे पहली औरत जब माँ बनी तो कायनात का रद्द-ए-अ’मल क्या था? दुनिया के सबसे पहले मर्द ने क्या आसमानों की तरफ़ तमतमाती आँखों से देख कर दुनिया की सब से पहली ज़बान में बड़े फ़ख़्

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डरपोक

20 अप्रैल 2022
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मैदान बिल्कुल साफ़ था, मगर जावेद का ख़याल था कि म्युनिसिपल कमेटी की लालटेन जो दीवार में गड़ी है, उसको घूर रही है। बार बार वो उस चौड़े सहन को जिस पर नानक शाही ईंटों का ऊंचा-नीचा फ़र्श बना हुआ था, तय कर क

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दीवाली के दीये

20 अप्रैल 2022
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छत की मुंडेर पर दीवाली के दीये हाँपते हुए बच्चों के दिल की तरह धड़क रहे थे। मुन्नी दौड़ती हुई आई। अपनी नन्ही सी घगरी को दोनों हाथों से ऊपर उठाए छत के नीचे गली में मोरी के पास खड़ी हो गई। उसकी रोती

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तस्वीर

20 अप्रैल 2022
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“बच्चे कहाँ हैं?” “मर गए हैं।” “सब के सब?” “हाँ, सबके सब... आपको आज उनके मुतअ’ल्लिक़ पूछने का क्या ख़याल आ गया।” “मैं उनका बाप हूँ।” “आप ऐसा बाप ख़ुदा करे कभी पैदा ही न हो।” “

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नया साल

20 अप्रैल 2022
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कैलेंडर का आख़िरी पत्ता जिस पर मोटे हुरूफ़ में 31 दिसंबर छपा हुआ था, एक लम्हा के अंदर उसकी पतली उंगलियों की गिरफ़्त में था। अब कैलेंडर एक टूंड मुंड दरख़्त सा नज़र आने लगा। जिसकी टहनियों पर से सारे पत्ते

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ढारस

20 अप्रैल 2022
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आज से ठीक आठ बरस पहले की बात है। हिंदू सभा कॉलिज के सामने जो ख़ूबसूरत शादी घर है, उसमें हमारे दोस्त बिशेशर नाथ की बरात ठहरी हुई थी। तक़रीबन तीन साढ़े तीन सौ के क़रीब मेहमान थे जो अमृतसर और लाहौर

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तीन में ना तेरह में

20 अप्रैल 2022
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“मैं तीन में हूँ न तेरह में, न सुतली की गिरह में।” “अब तुमने उर्दू के मुहावरे भी सीख लिये।” “आप मेरा मज़ाक़ क्यों उड़ाते हैं। उर्दू मेरी मादरी ज़बान है।” “पिदरी क्या थी? तुम्हारे वालिद बुज़ु

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डायरेक्टर कृपलानी

20 अप्रैल 2022
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डायरेक्टर कृपलानी अपनी बलंद किरदारी और ख़ुश अतवारी की वजह से बंबई की फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े एहतराम की नज़र से देखा जाता था। बा’ज़ लोग तो हैरत का इज़हार करते थे कि ऐसा नेक और पाकबाज़ आदमी फ़िल्म डायरे

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