कबीरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर पीछे-पीछे हरि फ़िरेकहत कबीर कबीर|| यदि मनुष्य का मननिर्मल हो जता है तो उसमे पवित्र प्रेम उपजता है वो प्रेम जिसके वशीभूत होकर स्वयंईश्वर भी अपने प्रेमी के पीछे दौड़ने के लिए विवश हो जाते है| ये गोपियो
प्रेम के प्रतीक के रूप में ताजमहल की मिसाल पूरी दुनिया में दी जाती है । मिस्र के पिरामिड , चीन की दिवाल, पीसा की झुकी हुई मीनार इत्यादि के साथ ताजमहल को भी दुनिया के सात अजूबों में से एक माना जाता है । सफेद संगमरमर के पत्थर से बनी हुई ये अद्भुत कृति भारत के उत्तर प्रदेश
मन पाखी की उड़ान तुम्हीं संग मन मीता जीवन का सम्बल तुम एक भरते प्रेम घट रीता !नित निहारें नैन चकोर ना नज़र में कोई दूजा हो तरल बह जाऊं आज सुन मीठे बैन प्रीता ! बाहर पतझड़ लाख चिर बसंत तुम मनके सदा गाऊँ तुम्हारे गीत भर - भर भाव पुनीता ! बिन देखे रूह बेचैन हर दिन राह निहारे लगे बरस पल एक
शोना बिंगो ( विश्व पशू दिवस ) डॉ शोभा भारद्वाज हेनरिक जिमरमैन ,’मैन एंड डाग ‘ नाम की पत्रिका का प्रकाशन करते थे ताकि पशुओं के प्रति समाज को जागरूक किया जा सके . 1929 से 4 अक्टूबर को हर साल यह दिवस मनाया जाता है . झाँसी में मेरे पति नन्हें अल्सेशियन पपी को ल
रश्मि के नाम कुछ खत... (कविता-संग्रह)‘रश्मि के नाम कुछ खत...’ मेरे द्वारा लिखित कविताओं का संग्रह है जो भिन्न-भिन्न समय और मानसिक अवस्था में लिखी गयीं हैं. कविता भावनाओं की अभिव्यक्ति होती है, जिसमें व्यक्ति एक अलग ही तरह का मानसिक सुख पाता है. यह सुख व्यक्तिगत होता है ल
मेरा न्यारा देश है ये भारतदीप जले घर-घर, हर आँगनरंग-बिरंगी सजी रंगोली द्वारों परप्रिये का श्रृंगार देख, इठलाये साजनविजय-ध्वजा फहरे हर चौबारेवीरों का ये देश राष्ट्र की सीमा संवारेपाई हर बच्चे ने आज महारथदेश-प्रेम से बड़ा न कोई स्वारथजग-मग करता मेरा प्यारा भारतस्वरचित ©®★★★★★★★★★★★★★★प्रेरणात्मक सृजन
प्रेम सदियों से मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है | हर इंसान अपने जीवन में प्रेम के अनुभव से गुजरता है | इसे प्रेम, प्यार , इश्क , स्नेह , नेह इत्यादि ना जाने कितने नामों से पुकारा गया और उतनी ही नई परिभाषाएं गढ़ी गयी |ये जब भगवान से हुआ - भक्ति कहलाया , प्रियतम से हुआ नेह कहलाया , अप्राप्य स
बचपन में खेलते, दौड़ते ठोकर लग कर गिर जाने पर भैया का मुझे हाथ पकड़ कर उठाना,भीड़ भरे रास्तों पर, फूल-सा सहेज कर अँगुली पकड़ स्कूल तक ले जाना,और आधी छुट्टी में माँ का दिया खानामिल-बाँट कर खाना, याद आता है। बहुत-बहुत याद आता है। सर्कस और सिनेमा देखते समय हँसना - खिलखिलाना,बे-बात रूठना-मनाना,फिर देर रात त
दूर कहीं अम्बर के नीचे,गहरा बिखरा झुटपुट हो। वहीं सलोनी नदिया-झरना झिलमिल जल का सम्पुट हो। नीरव का स्पंदन हो केवल छितराता सा बादल हो। तरुवर की छाया सा फैला सहज निशा का काजल हो। दूर दिशा से कर्ण - उतरती बंसी की मीठी धुन हो। प्राणों में
नमन न्यायपालिका के -सम्पूर्ण अधिकार की शक्ति को,न्याय मिला , भले देर हुई , वन्दन इस द्वार शक्ति को !समय बढ़ गया आगे,लिख सौहार्द की नई परिभाषा; प्यार जीता नफरत हारी , बो हर दिल में नयी आशा ;हर कोई अपलक देख रहा -इस प्यार की शक्ति को !समभाव भरी ये पुण्यधरा .गीता भी
अन्नकूट पर्यावरण प्रेम, एवं मिल बाँट कर खाने का अनुपम पर्व डॉ शोभा भारद्वाज वर्षा ऋतू समाप्त चुकी थी हर तरफ हरियालीही हरियाली थी गोकुल में घर घर उत्सव कीतैयारी चल रही थी कान्हा ग्वाल बालों के साथ संध्या को घर लौटे सोच मग्न इधर उधर
यह कविता मेरी दूसरी पुस्तक " क़यामत की रात " से है . इसमें प्रेम औ रदाम्पत्य जीवन के उतार-चढ़ाव पर जीवनसाथी द्वारा साथ छोड़ देने पर उत्पन्न हुए दुःख का वर्णन है .तुमने ऐसा क्यों किया जीवन की इस फुलवारी में, इस उम्र की चारदीवारी में।आकर वसंत भी चले गये, पतझड़ भी आकर चले गय
चलो थोड़ी मनमर्ज़ियाँ करते हैं पंख लगा कही उड़ आते हैंयूँ तो ज़रूरतें रास्ता रोके रखेंगी हमेशापर उन ज़रूरतों को पीछे छोड़थोड़ा चादर के बाहर पैर फैलाते हैंपंख लगा कही उड़ आते हैंये जो शर्मों हया का बंधनबेड़ियाँ बन रोक लेता हैमेरी परवाज़ों कोचलो उसे सागर में कही डूबा आते हैंपंख लगा
कह दो की ये अफवाह है कह दो की ये अफवाह है कह दो ना या फिर मुझे क
नज़र कुछ कह ना सकी,...नज़र कुछ कह ना सकी, सितारों के बीच,चाँद जो अपने मुखड़े को, ली थी सींच,एक झलक, तो मिल ही गयी मुझे दूर,मानो जैसे, बन गयी, मेरे आँखों की नूर,कुछ गरम साँसे, छू कर निकल गयी पास,लगा ऐसे, तुम मेरी हो कितनी ख़ास,मूड के देखा, बैठी थी तुम, लिए आँखों में अंग्रा
हाँ मैं तुम जैसा नहींतो क्या हुआ ?मुझमे भी जीवन हैमुझे क्यों आहत करते हो ?? हमें संज्ञा दे कर पशुओं कीखुद पशुओं से कृत्य करते होकल जब तुम ले जा रहे थेमेरी माँ कोमैं फूट फूट कर रोया थामैं छोटा सा एक बच्चा थामैंने अपनी माँ को खोया थामैं लाचार
प्रेम की भूखविजय कुमार तिवारीसभी प्रेम के भूखे हैं।सभी को प्रेम चाहिए।दुखद यह है कि कोई प्रेम देना नहीं चाहता।सभी को प्रेम बिना शर्त चाहिए परन्तु प्रेम देते समय लोग नाना शर्ते लगाते हैं।प्रेम में स्वार्थ हो तो वह प्रेम नहीं है।हम सभी स्वार्थ के साथ प्रेम करते हैं।प्रेम कर
लिख दो ! कुछ शब्दनाम मेरे , अपने होकर ना यूँ - बन बेगाने रहो तुम ! हो दूर भले - पास मेरे .इनके ही बहाने रहो तुम ! कोरे कागज पर उतर कर . ये अमर हो जायेंगे ; जब भी छन्दो में ढलेंगे , गीत मधुर
“यह रमणीय है, यह स्वादिष्ट है, यह प्यारा है।”-कोल पोर्टरहम सभी को अपने जीवन में किसी ऐसे व्यक्ति के होने की निराशा महसूस हुई जो लगातार नकारात्मक लगता है – शिकायत करना, छोटी-छोटी बातों से नाराज होना, गुस्सा करना, निराशावादी होना।यह बहुत मुश्