मन कंटक वन में-याद तुम्हारी -खिली फूल सीजब -जब महकीहर दुविधा -उड़ चली धूल सी!!रूह से लिपटी जाय-तनिक विलग ना होती,रखूं इसे संभाल -जैसे सीप में मोती ;सिमटी इसके बीच -दर्द हर चली भूल सी !!होऊँ जरा उदासमुझे हँस बहलाएहो जो इसका साथतो कोई साथ न भाये -जाए पल भर ये दूर -हिया में चुभे शूल सी !!तुम नहीं हो जो
जब लोगों को अपने पन से तकलीफ होने लगें, आपकी बातें उन्हें ताने लगनी लगे, तो कहां जाओगे? उन्हें कब तक अपना समझ, समझाओगे, मनाओगे? जिसके दिल की जगहें संकुचित होने लगे। प्रेम और समझ ,शक में सिमटने, सिकुड़ने लगे। समाज जंजीर बन जकड़ने लगे। आपका विश्वास (साथी)आपसे अकड़ने लगे। तो दूरी के सिवा क्या दवा है।
भीगे एकांत में बरबस -पुकार लेती हूँ तुम्हे सौंप अपनी वेदना - सब भार दे देती हूँ तुम्हे ! जब -तब हो जाती हूँ विचलित कहीं खो ना दूँ तुम्हेक्या रहेगा जिन्दगी मेंजो हार देती हूँ तुम्हे ! सब से छुपा कर मन में बसाया है तुम्हे जब भी जी चाहे तब निहार लेती हूँ तुम्हे बिखर ना जाए कहीं रखना इस
जीना चाहूं वो लम्हे बार बार जब तुमसे जुड़े थे मन के तारजाने उसमें क्या जादू था ? ना रहा जो खुद पे काबू था कभी गीत बन कर हुआ मुखर हंसी में घुल कभी गया बिखर प्राणों में मकरंद घोल गया बिन कहे ही सब कुछ बोल गया इस धूल को बना गय
मुम्बई में राजश्री प्रोडक्शन के राजकुमार बड़जात्या का देहांत हो गयाअधिक जानकारी के लिए: https://hindi.iwmbuzz.com/television/news/filmmaker-sooraj-barjatyas-father-raj-kumar-barjatya-passes-away-2/2019/02/21
सनातन (हिन्दू) धर्म में कामदेव, कामसूत्र, कामशास्त्र और चार पुरुषर्थों में से एक काम की बहुत चर्चा होती है। खजुराहो में कामसूत्र से संबंधित कई मूर्तियां हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या काम का अर्थ सेक्स ही होता है? नहीं, काम का अर्थ होता है कार्य, कामना और कामेच्छा से। वह सारे कार्य जिससे जीवन आनंदद
तुलसी दास कहते हैं- 'भाव-अभाव, अनख-आलसहुं, नाम जपत मंगल दिषी होहुं।' भाव से, अभाव से, बेमन से या आलस से, और तो और, यदि भूल से भी भगवान के नाम का स्मरण कर लो तो दसों दिशाओं में मंगल होता है। भगवान स्वयं कहते हैं, भाव का भूखा हूं मैं, और भाव ही इक सार है, भाव बिन सर्वस्व भी दें तो मुझे स्वीकार नहीं! ऐ
वो पहला खत मेरा "तेरे नाम का"..........वो पहला खत मेरा “तेरे नाम का”……….मेरी प्यारी (******)हर वक़्त हमें तेरी मौजूदगी का एहसास क्यूँ है,जब याद करता दिल तुझे, तूँ पास क्यूँ है…ये क्या है क्यूँ है,कुछ समझ नहीं आता,तेरे न होने से आज दिल उदास क्यूँ है…कल तेरे न आने से,मैं सा
ना तेरा रहा ना मेरा रहा। प्रेम में हिसाब-किताब रखने का ना बहिखाता तेरा रहा, ना मेरा रहा। दौर जिंदगानी का बितता रहा, ना ईष्र्या रही ना द्वेष रहा। अपनेपन का अहसास कुछ तुझमें बाकी रहा, कुछ मुझमें बाकी रहा। चंद सांसें एक दूजे में उलझ जाये, रिश्ता ये उल्फत का सितम बन कर जहने सहर से टकराता रहा। थाम ले जो
मन से मन के बीच बंधी नेह की डोर पर सजग होकर कुशल नट की भाँति एक-एक क़दम जमाकर चलना पड़ता है टूटकर बिखरे ख़्वाहिशों के सितारे जब चुभते है नंगे पाँव में दर्द और कराह से ज़र्द चेहरे पर बनी पनीली रेखाओं को छुपा गुलाबी चुनर की ओट से गालों पर प्रतिबिंबिंत कर कृत्रिमता से मुस्कुराकर टूटने के डर से थरथराती
हज़ारो दीप भी कम है अंधेरो को मिटाने के लियेहो संकल्प मन में अगर तो एक दीप काफी है उजाले के लिये प्रेम है शब्द ऐसा किभेद आपस के मिटाता मगरएक कटु वचन ही काफी है दोस्ती मिटाने के लियेअगर भूल जाये रास्ता कोईअगरतो दिया झोपड़ी का ही काफी है रास्ता दिखाने के लिएजीवन में लग
मानसिक अनुभूतियों की एक संज्ञातम्यक व् सर्वमान्य परिभाषाये रचना भौतिक पदार्थो और उसकी क्रियावों की परिभाषों के बनाने जितना सरल नहीं लगता है, क्योकि भौतिक परिभाषाओ के लिए स्थायी परिमंडल निश्चित है और कम भी
सरहदपार वालाप्यारगुलज़ारसाहब ने क्या ख़ूब लिखा है... आँखों कोवीसा नहीं लगता,सपनो की सरहद नहीं होती...मेरी यहकहानी भी कुछ ऐसी ही है, इन पंक्तियों के जैसी, जिसे किसी वीसा या पासपोर्ट कीज़रूरत नहीं है आपके दिल तक पहुंचने के लिए. बस यूँ ही ख़्व
इक मधुर एहसास है तुम संग - ये अल्हड लडकपन जीना , कभी सुलझाना ना चाहूं - वो मासूम सी उलझन जीना ! बीत ना मन का मौसम जाए - चाहूं समय यहीं थम जाए ; हों अटल ये पल -प्रणय के साथी - भय है, टूट ना ये भ्रम जाए संबल बन गया जीवन का - तुम संग ये नाता पावन जीना ! बांधूं अमर प्रीत- बंध मन के तुम सं
एक होता है जादूगर और दूसरा जादू। हाँ तुम जादू हो जादू। कुछ भी इतना ख़ास पहले नहीं था जितना तुमसे बतियाने के बाद। तुमसे बातें करने पर ऐसा होता था जैसे ख़ुद को ही ख़ुद की ही बातें समझानी हो। पता है, तुम वो जादू हो जो दुनिया के सारे जादूगर सीखना चाहते हैं, पाना चाहते हैं पर सबके बस का नहीं है ये। तुमको
रंग दो मन की कोरी चादर हरे ,गुलाबी , लाल , सुनहरी रंग इठलायें जिस पर खिलकर !! सजे सपने इन्द्रधनुष के - नीड- नयन से मैं निहारूं सतरंगी आभा पर इसकी -तन -मन मैं अपना वारूँबहें नैन -जल कोष सहेजे-- मुस्काऊँ नेह -अनंत पलक भर !! स्नेहिल सन्देश तुम्
पापा के पाँव में चोट लगी थी.. कुछ दिनों से वे वैसे ही लंगडाकर चल रहे थे.. मैं भी छोटा था और तय समय पर, काफी कोशिशों के बाद भी, हमारे घर के *गणेश विसर्जन* के लिए किसी गाड़ी की व्यवस्था भी न हो सकी.. पापा ने अचानक ही पहली मंजिल पर रहने वाले जावेद भाई को आवाज लगा दी.. *
मिले जब तुम अनायास - मन मुग्ध हुआ तुम्हे पाकर ; जाने थी कौन तृष्णा मन की - जो छलक गयी अश्रु बनकर ? हरेक से मुंह मोड़ चला - मन तुम्हारी ही ओर चला अनगिन छवियों में उलझा - तकता हो भावविभोर चला- जगी भीतर अभिलाष नई- चली ले उमंगों की नयी डगर ! !प्राण