पिछले कुछ दिनों से मालदीव में राजनीतिक घटना क्रम बहुत तेजी से बदल रहा है। हुआ यह कि वहाँ के राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन ने मालदीव के सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तथा एक न्यायाधीश को गिरफ़्तार करके देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। ऐसी स्थिति इसलिए बनी क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक बंदियों – मुख्यतः विपक्षी नेताओं – को रिहा करने का निर्णय किया था। जबकि राष्ट्रपति यामीन ने न्यायाधीशों को ऐसा करने से रोका था। स्पष्ट है कि मालदीव की स्थिति अत्यंत गम्भीर है।
मुहम्मद नशीद ने, जो मालदीव के एकमात्र निर्वाचित राष्ट्रपति रहे हैं और आजकल निर्वासित जीवन जी रहे हैं, कहा है कि देश में की गई आपातकाल की घोषणा मार्शल लॉ लगाने जैसा है और यह भी कि राष्ट्रपति यामीन द्वारा उठाए गए सारे कदम अवैध व असंवैधानिक हैं। इसलिए मुहम्मद नशीद ने भारत से आग्रह किया है
वह इस मामले में हस्तक्षेप करे। इस बीच राष्ट्रपति यामीन ने पहले इस मुद्दे पर बात करने के लिए अपना दूत भारत भेजने की घोषणा की। परंतु बाद में उन्होंने भारत को छोड़कर अपने दूत चीन, पाकिस्तान और सऊदी अरब को भेजे। यहाँ
यह भी उल्लेखनीय है कि चीन ने अपनी राय स्पष्ट की है कि वह किसी भी तरह मालदीव को भारत और चीन के बीच विवाद का विषय नहीं बनने देना चाहता।
मालदीव में 1988 में राजीव गाँधी के प्रधानमंत्री के कार्यकाल में भी एक भीषण संकट आया था
जब भाड़े के सैनिकों ने इस पर आक्रमण कर दिया था । उस समय वहाँ के राष्ट्रपति गयूम ने भारत से मदद माँगी थी। प्रत्युत्तर में प्रधान मंत्री ने तत्क्षण मदद की। भारत की सेना ने तत्काल जवाबी हमला करके हुआ केवल 9 घंटों में स्थिति को काबू में किया। इस बार अभी कोई नहीं जानता कि कौन सा देश मालदीव की मदद के लिए आगे आएगा ? या यह भी हो सकता है कि वर्तमान स्थिति देश की आंतरिक शक्ति से हीनियंत्रण में आ जाए। परंतु मूल प्रश्न यह नहीं है बल्कि यह कि क्या कारण है कि मालदीव जैसे देश बार-बार ऐसे भयंकर और अपने अस्तित्व के संकट का सामना करते हैं ?
इस विषय की गहराई में जाने के लिए आवश्यक है कि हम पूरे दक्षिण एशिया के राजनीतिक इतिहास पर एक नजर डालें। दक्षेस के आठ सदस्य होने के नाते हम दक्षिण एशिया में आठ देश मानते हैं – अफगानिस्तान, भारत, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, मालदीव, पाकिस्तान और श्रीलंका। इन देशों में चार मुस्लिम बहुल देश औरचार गैर मुस्लिम बहुल। जहाँ चार गैर मुस्लिम देश लोकतंत्र को स्थापित करने में बहुत हद तक सफल हुए हैं वहीं चारों मुस्लिम-बहुल देशों में किसी न किसी प्रकार से लोकतंत्र को स्थापित करना एक चुनौती रही है। यदि हम पाकिस्तान से शुरू करें तो समझने में आसानी होगी क्योंकि पाकिस्तान भारत का ही हिस्सा होता था।और जहाँ भारत ने तीसरी दुनिया के देश होने के नाते सफल लोकतंत्र का कीर्तिमान स्थापित किया है वहीं पाकिस्तान अभी भी लोकतंत्र जैसी किसी व्यवस्था को क़ायम करने में ही जूझ रहा है। अपने सत्तर वर्ष के इतिहास में पाकिस्तान की सबसे बड़ी विडम्बना यह रही यहाँ अब तक एक बार भी किसी निर्वाचित प्रधानमंत्री नेअपने पंचवर्षीय कार्यकाल को पूरा नहीं किया है। उससे भी अजीबोगरीब बात यह है कि सत्तर वर्ष में फौज तथा निर्वाचित सरकारों ने ठीक आधे-आधे समय के लिए शासन किया है। और जब कोई निर्वाचित सरकार काम कर रही होती है तब भी फौज सर्वशक्तिमान होती है और अप्रत्यक्ष रूप से शासन भी करती है।
बांग्लादेश की हालत 1971 तक वैसी ही थी जैसी पाकिस्तान की क्योंकि तब तक वह पाकिस्तान का हिस्सा था और उसे पूर्वी पाकिस्तान कहा जाता था। १९७१ में पाकिस्तान से आजादी मिलने के बाद शेख मुजिब उर रहमान प्रधानमंत्री बने। परंतु उन्हें बाद में मार दिया गया और वहाँ फौजी तानाशाह का शासन शुरू ही गया।कलांतर में लोकतंत्र की बहाली हुई और आज चुनी हुई सरकार काम कर रही है। लेकिन लोकतंत्र अब तक अपना पैर नहीं जमा पाया है। वहाँ भी की स्थिति ऐसी है कि सरकार को चुनौती देने वाले लगभग सारे के सारे विपक्ष के नेता सलाखों के पीछे हैं। बिना विपक्ष का कैसा लोकतंत्र ! दूसरे, बांग्लादेश अतिवादी तत्वों से भीलगातार दो-चार हो रहा है।
अफगनिस्तान की तो स्थिति ही निराली है। अनेक कबीलों के वजूद में होने के कारण कभी भी यहाँ ढंग की शांति नहीं रही। अफ़ग़ानिस्तान शीत युद्ध का अखाड़ा भी रहा है। यहाँ तक कि अप्रत्यक्ष रूप से इस पर विदेशी शासन भी क़ायम रहा। आज का हाल यह है कि पिछले १८ वर्षों से अमरीका के नेतृत्व में यहाँ युद्ध जारी है।संभवत अफगनिस्तान उन चंद देशों में गिना जाएगा जहाँ लम्बे समय से गृह युद्ध चल रहा है। अब इस बात की अटकलें लगाई जाती हैं कि देश के कितने प्रतिशत हिस्से पर काबुल का नियंत्रण है और कितने पर तालिबान या आइ एस आइ एस का। ज़्यादातर जानकार यह मानते हैं कि ३० प्रतिशत से ज़्यादा हिस्से पर काबुल काशासन नहीं है। ऐसे में कल्पना ही की जा सकती है कि अमरीकी फौज के जाने के बाद वहाँ क्या होगा !
दूसरी ओर गैर मुस्लिम देशों को लें। इन चार देशों सबसे अधिक जिस देश को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा वह है श्रीलंका। श्रीलंका तीन दशकों से भी अधिक समय तक जातीय संघर्ष या गृह युद्ध का शिकार रहा। इस पर तरह तरह के संकट आए। लेकिन कभी भी फौज के हाथ सत्ता नहीं गयी जबकि स्थिति फौजीशासन के लिए अनुकूल बनी हुई थी। पर प्रशंसनीय बात यह है कि इसका लोकतंत्र बना रहा।
इस तरह लगभग दो दशक हुए नेपाल ने राजतंत्र को समाप्त कर दिया और लोकतंत्र की स्थापना की। पर नेपाल को अनेक तरह के राजनीतिक संकटों का सामना करना पड़ा। यहाँ राजनीतिक स्थिरता एक चुनौती बनी रही। फिर भी फौज के हाथ सत्ता नहीं गयी। अभी हाल के चुनाव ने साबित कर दिया है कि वहाँ के लोकतंत्रकी जड़ें गहरी होती जा रही हैं।
भूटान की तो बात ही अलग है क्योंकि वहाँ राजतंत्र के समय में भी किसी भी तरह का कोई उपद्रव देखने सुनने को नहीं मिला। फिर भी वहाँ के राजा ने स्वयं प्रयास करके लोकतंत्र स्थापित किया और अब तो दो बार चुनाव कराकर सफलतापूर्वक लोकतंत्र चलाने का कीर्तिमान स्थापित कर लिया है।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है, तो हम जानते हैं कि भारत जापान और इस्राइल के साथ एशिया के सबसे पुराने लोकतंत्रों में है। इसको विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का भी गौरव प्राप्त है। यहाँ लोकतंत्र लोगों का एक स्वभाव है। दो वर्ष से भी कम समय के जब आपातकाल की घोषणा हुई जो कि किसी भी तरह फौजी शासन नहींथा तब भी जनता ने उसे बर्दाश्त नहीं किया और देशव्यापी आंदोलन चले। अंततः चुनाव हुए और चुनी हुई सरकार फिर से काम करने लगी। यह ऐसा सबक था बाद में कभी भी किसी और सरकार ने ऐसा सोचने की भी हिम्मत नहीं जुटायी।
इसलिए प्रश्न उठता है कि मुस्लिम-बहुल और गैर-मुस्लिम देशों के स्वभाव में इतना अंतर क्यों है। इसका पहला कारण तो यह है कि लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए देश के लोगों में यह भाव होना चाहिए कि उनके पास इसके अलावा कोई और रास्ता ही नहीं है। यदि जनता ने इसे सर्वोपरि मान ले तो कोई कारण नहीं कि कोईइसकी अनदेखी करे। इसके बावजूद लोकतंत्र के लिए संस्थाओं का होना बहुत मायने रखता है। इस संस्थाओं में न्यायपालिका, कार्यकारिणी, चुनाव आयोग, स्वतंत्र प्रेस या मीडिया आदि प्रमुख हैं। लोकतंत्र असल में उतना ही सशक्त होता है जितनी कि ये संस्थाएँ। पर फिर यह प्रश्न उठ सकता है कि ऐसा क्यों है कि एक देश मेंसंस्थाएँ मज़बूती से काम कर लेती हैं लेकिन दूसरे में नहीं ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि आख़िर उस देश की जनता चाहती क्या है ? अर्थात जनता की प्राथमिकताएँ क्या हैं ? आम तौर पर हम देखते हैं कि मुस्लिम देशों की प्राथमिकताएँ अलग होती हैं। वहाँ धार्मिक बातों को कहीं अधिक महत्व दिया जाता है। जिसकेपरिणामस्वरूप शासक वर्ग समझ जाता है कि यदि लोकतंत्र से समझौता हो जाने कि स्थिति में भी जनता उसे बर्दाश्त कर लेगी। बस फिर क्या है इस्लाम कि रक्षा सर्वोपरि हो जाती है। जिया उल हक ने इसी तरह शासन किया। पाकिस्तान में इस्लाम से जुदा कोई न कोई मुद्दा सबसे ऊपर रहता है। उदाहरण के लिए कश्मीर कोले लें। पाकिस्तान जनता है कि वह कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकता। परंतु इस मुद्दे को भुनाते हुए उसके शेष मुद्दे पीछे चले जाते हैं जिनमें लोकतंत्र भी शामिल होता है।
मालदीव की तो विडम्बना यह है कि यहाँ बारहवीं शताब्दी में इस्लाम आया। तब से यहाँ किसी न किसी सुल्तान का राज रहा। कलांतर में यहाँ डच और अंग्रेजों ने राज किया। अंग्रेजों से आजादी पाने के बाद से यहाँ लगभग तानाशाही ही चलती रही है। लोकतंत्र का यहाँ कोई अर्थ नहीं था। बहुत बाद में यानी २००८ में पहली बारनशीद को निर्वाचित राष्ट्रपति घोषित किया गया। परंतु उन्हें भी कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया गया और उनका तख्ता पलट हो गया।
मालदीव में तेजी से बदलते राजनीतिक घटनाक्रम ने सारे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा है। हुआ यह कि मालदीव के राष्ट्रपति ने राजनीतिक बंदियों को रिहा करने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को वापस लेने के लिए प्रधान न्यायाधीश पर दबाव डाला। परंतु अपना निर्णय वापस लेने से माना करने पर राष्ट्रपति ने न्यायाधीशको गिरफ़्तार करवा दिया और देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। इस कारण देश संकट में आ गया और लोग सड़क पर आ गए। इसकी प्रतिक्रिया में मालदीव के एक मात्र पहले निर्वाचित राष्ट्रपति मुहम्मद नशीद, जो आजकल निर्वासित जीवन व्यतीत कर कहे हैं, और
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 सितम्बर 2018