पैरंट-टीचर्स मीटिंग की गहमागहमी में भी तीसरी कक्षा के उस बच्चे की मां यह देखकर हैरान रह गई कि स्कूल के कई छात्रों के घरवाले उससे शिकायत करने को बेताब हैं। बच्चा पढ़ने में तेज था। हमेशा अच्छे नंबरों से पास होता और एनुअल प्रोग्राम में अवार्ड भी पाता। लेकिन जब उसकी मां ने शिकायत सुनी तो दंग रह गई। पता चला कि वह घर से पैसे ले जाकर स्कूल के अपने साथियों को देता और उनसे अपने लिए खिलौने और पोकेमॉन आदि के तरह-तरह के कार्ड्स मंगवा लेता। उन्हें अपने साथ बनाए रखने के लिए वह कुछ पैसे उनके पास भी छोड़ देता। लेकिन शायद दूसरे लोग उस बच्चे के घर वालों जैसे लापरवाह नहीं थे। उन्हें जब अपने बच्चों के बैग में बड़े-बड़े नोट नजर आए तो उनसे कड़ाई से पूछ-ताछ की। बच्चे डर गए और उन्होंने सब कुछ सच-सच बता दिया। पता चला कि उनका वह दोस्त अपने घर से पांच सौ तक के नोट भी बगैर किसी को बताए स्कूल ले जाता था। उसने अपनी एक ऐसी दुनिया गढ़ ली थी, जहां सबसे समर्थ वही था। दूसरे बच्चे उसके इशारों पर नाचते थे। पहले तो मां को यकीन नहीं हुआ, लेकिन जब टीचर भी उनकी बात को सही बताने लगीं तो उसे बच्चे की हरकत पर बड़ा अफसोस हुआ। शर्म से सर झुकाए वह उसे लेकर घर आ गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि करे तो क्या! ऐसा वाकया किसी भी ऐसे बच्चे के साथ हो सकता है जिसके घरवाले उस पर पर्याप्त ध्यान न दे पाते हों। जो होमवर्क के लिए भी ट्यूशन का मुंह देखता हो और जिसके प्रोजेक्ट घर पर तैयार करवाने के बजाय किसी शॉप से खरीद लिए जाते हों। घर के लोगों का यह रवैया धीरे-धीरे बच्चे को भटका देता है। वह हर चीज को पैसे से हासिल करने का मनोलोक बना लेता है। उसके भीतर यह बात गहराई से पैठने लगती है कि वही अपने आस-पास का केंद्रीय चरित्र है। ऐसा नहीं कि इसका कोई हल ही न हो। ऐसे नाजुक मोड़ पर कमउम्र बच्चों को बहुत सावधानी से ट्रीट करना होता है। उन्हें किसी अपराधी की तरह न देखकर दोस्ताना तरीके से समझाना होगा ताकि वे शर्मिंदा होने के बजाय अपने सहज रास्ते पर से लौट सकें।