पढ़े-लिखों की चालाकी से फूट गई तकदीर
ढाई आखर की बुनियादें हिलने लगीं कबीर
मिल-जुल कर कैसे रहना है दुनिया भूल गई है
तुमने देखा नहीं मदरसा ये स्कूल गई है
खून की होली तोड़ रही है रिश्तों की जंजीर
तुम परवाह कहां करते थे, कितना बोल गए थे
दाढ़ी-चोटी जंतर-मंतर, सब कुछ खोल गए थे
अक्षर-अक्षर सत्य तुम्हारा, मिलती नहीं नजीर
कड़वाहट फूलों में फैली, हवा हुई जहरीली
सुबह शाम खा खा अफीम ये पीढ़ी हुई नशीली
रंगों से रंगत गायब है चुभने लगा अबीर
घुटने टेक रहे हैं वंशज चाटुकार हैं छिछले हैं
शब्दाडंबर ओढ़ पहनकर कलम बेचने निकले हैं
रोम-रोम है गिरवी इनका मुर्दा हुआ जमीर
झूठ को सच कहती है दुनिया सच को झूठ बताती
पाप की गठरी सिर पर लादे गंगा रोज नहाती
साफ हुआ मन कभी नहीं, बस धुलता रहा शरीर।।
~ श्लेष गौतम