देश की आबादी का एक फीसदी हिस्सा ही शेयर बाजार में निवेश करता है। पर वित्त मंत्रालय देश को आश्वस्त कर रहा है कि सब कुछ ठीक है। जबकि देश में हर घंटे कहीं न कहीं दो किसान आत्महत्या करते हैं, पर इसकी चर्चा नहीं होती।
सोमवार को शेयर बाजार में आई गिरावट (जो संभवतः सात वर्षों में सबसे बड़ी गिरावट है) के दौरान वित्त मंत्री अरुण जेटली दिन भर में कम से कम चार बार मीडिया से रूबरू हुए, ताकि इस गिरावट की वजह से उत्पन्न भय को दूर किया जा सके। शाम होते-होते देश को बताया गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्री मोदी स्वयं बाजार के अस्थिर हालात पर नजर रखे हुए हैं।
कुछ लोगों ने इसे ′दिल टूटना′ बताया, तो कुछ ने ′अफरा-तफरी की स्थिति′ कहा। जैसे ही सेंसेक्स 1,624 अंक गिरा, हलचल मच गई। टीवी चैनलों के कई एंकरों ने इसे ′हत्याकांड′ बताया और मुझसे टिप्पणी मांगी। मैंने उनसे कहा कि ′असली हत्याकांड तो कृषि क्षेत्र में हो रहा है। पिछले बीस वर्षों में 3.05 लाख किसानों ने खुदकुशी की है, पर मैंने किसी प्रधानमंत्री को कृषि क्षेत्र में हो रहे मृत्यु के इस तांडव पर चिंता जताते हुए कभी नहीं देखा।′
देश की आबादी का मात्र एक फीसदी हिस्सा ही शेयर बाजार में निवेश करता है। लेकिन देखिए कि मीडिया इस पर कितना दुख जता रहा है! और किस तरह से वित्त मंत्रालय देश को आश्वस्त कर रहा है कि सब कुछ ठीक है। देश में हर घंटे कहीं न कहीं दो किसान आत्महत्या करते हैं। वर्षों से किसान आत्महत्या के बढ़ते आंकड़ों पर न तो मीडिया ने और न ही मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों और योजनाकारों ने कभी कोई चिंता दिखाई।
सोच के इसी विरोधाभास (जहां एक फीसदी लोगों की सुविधाओं के लिए 99 फीसदी लोगों की अनदेखी की जाती है) के कारण पिछले हफ्ते देश भर के 40 किसान संगठनों के नेता चंडीगढ़ में तीन दिवसीय विचार-विमर्श के लिए जुटे। वे तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और बिहार से कृषि क्षेत्र में जारी संकट की वजहों को समझने और साझा करने के लिए आए थे और सबसे महत्वपूर्ण यह कि कृषि को कैसे राष्ट्रीय एजेंडे पर लाया जाए। मुख्य उद्देश्य यह था कि कैसे देश के 60 करोड़ किसानों की आवाज को मुखर किया जाए और साथ ही खेती-किसानी के गौरव को वापस लाया जाए।
देश के आर्थिक परिदृश्य से कृषि गायब हो गई है। पिछले कुछ दशकों में विश्व बैंक के निर्देश पर किसानों को लगातार खेती से बाहर धकेला जा रहा है। यह स्थिति वास्तव में वैसी ही है, जैसी विश्व बैंक 1996 में भारत से चाह रहा था। उसने भारत को निर्देश दिया था कि वर्ष 2015 तक देश के ग्रामीण क्षेत्रों से 40 करोड़ लोगों को शहरों में विस्थापित किया जाए। कृषक समुदाय इसी को लेकर चिंता में है। किसान जानते हैं कि एक के बाद एक, सभी सरकारें अपनी आर्थिक नीतियों और भूमि अधिग्रहण जैसे कानूनों के जरिये उन्हें गांवों से बाहर जाने के लिए ऐसी स्थितियां पैदा कर रही हैं।
भारतीय किसान यूनियन के एक धड़े का नेतृत्व करने वाले बलबीर सिंह राजेवाल कहते हैं कि किसान राजनीतिक कच्चा माल हैं और सभी राजनीतिक दल अपने सियासी फायदे के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं और फिर उसे फेंक देते हैं। किसानों को इसका एहसास है कि उन्हें उनकी उपज का वास्तविक भुगतान नहीं हो रहा है। उत्तर प्रदेश के किसान नेता वी एम सिंह दो टूक कहते हैं, ′यह आर पार की लड़ाई है। राजनीतिक पार्टियां अपने फायदे के लिए हमारे हितों का सौदा करती हैं।′ वहीं कर्नाटक रैयत संघ के नेता नंजुदास्वामी तल्ख होकर कहते हैं कि हमें न्यूनतम समर्थन मूल्य बहुत कम दिया जाता है, ताकि उपभोक्ताओं और उद्योग को खुश रखा जा सके।
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में किसान नेताओं ने कृषक समुदायों के बीच अपनी साख खोई है। वे विचारधारा, जाति, अहं और राजनीतिक संबद्धता के आधार पर बंटे हुए हैं। नतीजतन किसानों के असली मुद्दे पीछे चले जाते हैं। वर्षों से जारी भेदभावपूर्ण आर्थिक नीतियों ने सबसे ज्यादा किसानों को आक्रोशित किया है। किसान देश के निम्न आयवर्ग में आते हैं, जिनकी प्रति परिवार औसत आय तीन हजार रुपये प्रति महीने से ज्यादा नहीं है। यह इसलिए कि सरकार ने जान-बूझकर खरीद-मूल्य कम रखा है। उदाहरण के लिए, कपास के किसानों को बाजार मूल्य से बीस फीसदी कम कीमत दी जाती है, ताकि वस्त्र उद्योग को सुविधा हो। इसी तरह, इस वर्ष गेहूं और धान के खरीद-मूल्य में प्रति क्विंटल मात्र 50 रुपये की वृद्धि की गई है (जो करीब 3.25 फीसदी वृद्धि है), ताकि खाद्य महंगाई को नियंत्रण में रखा जा सके। दूसरे शब्दों में कहें, तो कीमतें कम रखने और उद्योगों को सस्ता कच्चा माल उपलब्ध कराने, दोनों का बोझ किसानों के कंधों पर डाला जाता है।
देश भर के किसान संगठनों की सामूहिक चिंता है कि किसानों की आय कैसे बढ़ाई जाए। स्थानीय व क्षेत्रीय असंतुलन को पाटने के लिए किसान संगठन तीन बिंदुओं पर सहमत हुए हैं- पहला है किसानों के लिए निश्चित मासिक आय। यदि एक चपरासी की मासिक आय पंद्रह हजार रुपये है, तो तृतीय श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों के बराबर किसानों की आय क्यों नहीं होनी चाहिए?
दूसरा है, न्यूनतम समर्थन मूल्य। सभी क्षेत्रों में और सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था होनी चाहिए। अभी मात्र 24 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा होती है, पर वास्तव में केवल गेहूं और धान की ही खरीदारी होती है। गन्ने के लिए उचित एवं लाभकारी मूल्य को भी इससे अलग रखा जा रहा है। देश भर में कृषि उत्पाद बाजार समिति की मंडियां स्थापित की जाएं। देश में 42,000 मंडियों की आवश्यकता है, लेकिन अभी मात्र 7,000 मंडी ही हैं।
तीसरा है, किसानों को संरक्षण। घरेलू किसानों को संरक्षण देने के लिए आयात शुल्क एवं उत्पाद शुल्क में वृद्धि होनी चाहिए। सस्ते खाद्य पदार्थों के आयात से घरेलू किसानों को नुकसान होता है। आयात शुल्क लगभग शून्य होने के कारण देश में अभी 60 हजार करोड़ रुपये के तिलहन का आयात किया जाता है। अगर आयात शुल्क ठीक रखा जाता, तो ये 60 हजार करोड़ रुपये देश के तिलहन उत्पादक किसानों को ही मिलते।
साभार
देविंदर शर्मा
कृषि विशेषज्ञ