बात अक्तूबर 1964 की है. हिंदी के पहले साप्ताहिक दिनमान के लिए अज्ञेय रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और श्रीकांत वर्मा के नाम तय कर चुके थे.
चूँकि ये तीनों मूलत: कवि थे इसलिए अज्ञेय को तलाश थी एक अदद पत्रकार की जो बहुपठित- बहुविषयविद तो हो ही, उनके सुझाए किसी विषय पर आनन फानन आलेख और टिप्पणियाँ लिख सकता हो. दिल्ली में उनकी कसौटी पर कोई खरा नहीं उतरा तो उन्होंने धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती से इस बारे में मशविरा किया.
उन्होंने सीधे फ़िल्म्स डिवीजन में काम कर रहे और धर्मयुग के लिए लिख रहे मनोहर श्याम जोशी का नाम लिया. अज्ञेय ने पूछा जोशीजी मिलेगें कहाँ और कैसे? भारती ने कहा कल सुबह ही धर्मयुग के लिए एक अच्छा सा इंटरव्यू करने आपके पास भेजता हूँ. अगली सुबह अज्ञेय और जोशी आमने सामने थे.
इंटरव्यू समाप्त होने के बाद अज्ञेय ने कहा, “टाइम्स ऑफ़ इंडिया वाले आपको दिल्ली उड़ा ले जाना चाहते है. चलेंगे ना.” जोशी राज़ी हो गए. फिल्म्स डिवीजन की अपनी क्लास वन ऑफ़िसर की सरकारी नौकरी छोड़ दिल्ली पहुंचे और अज्ञेय ने उन्हें दिनमान का मुख्य उप संपादक बनाया.
उनके साथ उन दिनों दिनमान में फ़्री लांसर के तौर पर काम करने वाले प्रयाग शुक्ल बताते हैं, "हमें अचरज इस बात का हुआ करता था कि कोई शख़्स इतने विषयों की जानकारी और विविध चीज़ों में दिलचस्पी किस तरह रख सकता है."
प्रयाग शुक्ल ने कहा, “मुझे याद है एक दोपहर उन्होंने मुझे असमिया नाटक का कार्ड थमा कर उस पर समीक्षा लिखने के लिए कहा था. मेरे तो हाथ पैर फूल गए थे. नाटक मैं देखता ज़रूर था, लेकिन समीक्षा वगैरह मैंने कभी नहीं की थी. जब उन्होंने मेरे चेहरे पर थोड़ी बेचारगी देखी तो बोले हर चीज़ कभी न कभी पहली बार ही तो की जाती है. मैं प्रगति मैदान में हो रहे उस नाट्य समारोह में गया और उस असमिया नाटक की समीक्षा लिखी. जोशी जी उसे देख कर बहुत खुश भी हुए.”
प्रयाग बताते हैं, “उन दिनों जोशी जी सिगरेट बहुत पिया करते थे. सहयोगी से सिगरेट मांगना उनके लिए आनंद की बात होती थी और उस सिगरेट के बदले उसके पाँच पन्ने या तो उसकी तरफ़ से दोबारा लिख सकते थे या दस पन्ने सुधार सकते थे या उसके आलेख की दमदार ओपनिंग लिख सकते थे या कोई फड़कता हुआ शीर्षक सुझा सकते थे.”
मनोहर श्याम जोशी की पत्नी भगवती जोशी बताती हैं, “वो बहुत लंबे सुंदर और आकर्षक व्यक्तित्व के मालिक हुआ करते थे. मैं उनसे पूरी एक फ़ुट एक इंच छोटी थी. उनकी लंबाई को देखते हुए मेरे साथी मुझे हील पहनने की सलाह देते थे. मुझे हील पहनना पसंद नहीं था. जोशीजी मेरा समर्थन करते थे और कहते थे तुम्हे हील पहनने की कोई ज़रूरत नहीं है. तुम जितनी ज़मीन के ऊपर हो उतनी ही नीचे भी हो.”
भगवती जोशी याद करती हैं, “वो मुझे प्योरिटन यानी परंपरावादी कहा करते थे. मैं जब भी खाना परोसती थी, सबसे पहले इनकी थाली में परोसती थी. मेरे बच्चे बड़े हो गए. उनकी शादियाँ भी हो गईं. तब भी उनको इसका एहसास था. एक दिन ये नहीं थे. जब मैंने अपने बेटे की थाली में परोसा तो उसने कहा, तुमने बब्बा की थाली में नहीं परोसा. मैंने कहा, वो अभी हैं नही. ठंडा थोड़े ही खाएंगे.”
भगवती ये कहते हुए भावुक हो जाती हैं कि आज भी सुबह की पहली चाय 'मैं इनके लिए अपने सामने रखती हूँ'.
मनोहर श्याम जोशी का पहला उपन्यास 'कुरु कुरु स्वाहा' 48 वर्ष की पकी हुई उम्र में आया. वैसे तो प्रेम अपनी व्यापकता, गहराई और संवेदनशीलता के चलते मानव मन को हमेशा आकर्षित करता रहा है. ये अकारण ही नहीं कि हिंदी साहित्य में बहुतेरी प्रेम कथाओं की मौजूदगी के बावजूद मनोहर श्याम जोशी जैसे संपादक और पत्रकार प्रेम कथा लिखने जा बैठे.
उनका रचित ‘कसप’ हिंदी साहित्य की शुद्ध औपन्यासिक प्रेम कथा है. ये पूरे खिलंदड़ेपन, हास्य और संवेदना से भरा हुआ एक बेहद पठनीय प्रेमाख्यान है. शायद हिंदी का अकेला आधुनिक प्रेम उपन्यास.
मनोहर श्याम जोशी के साहित्यिक पक्ष को एक तरफ़ रख दिया जाए, उनको सबसे ज़्यादा प्रसिद्धि दिलाई 1994 में उनके लिखे भारतीय टेलिविजन के पहले सोप ऑपेरा ‘हम लोग’ ने.
भास्कर घोष अपनी किताब 'दूरदर्शन डेज़' में लिखते हैं, “एक अमरीकी एनजीओ पॉपुलेशन कम्यूनिकेशन के प्रमुख डेविड प्वॉएंटडेक्सटर ने तत्कालीन सूचना और प्रसारण सचिव एसएस गिल को बताया था कि मिग्येल सबीदो के सोप ऑपेरा ने रोमन कैथोलिक बहुल मैक्सिको में परिवार नियोजन को लोकप्रिय बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है. गिल ने भारत में इस तरह का सोप ऑपेरा लिखने की ज़िम्मेदारी मनोहर श्याम जोशी को सौंपी थी.”
विश्लेषक पुष्पेश पंत बताते हैं, “तत्कालीन सूचना और प्रसारण सचिव एसएस गिल को ये बात समझ में आई थी कि भारतीय समाज को बदलने के लिए सोप ऑपेरा का सहारा लिया जा सकता है. जब जोशी जी ने 'हम लोग' लिखा तो उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय कस्बाती और शहरी समाज के अंतरद्वंद, महत्वाकांक्षाओं के टूटने का संघर्ष, परिवार के बने रहने और टूटने की जो जद्दोजहद है, उस पर अपना ध्यान केंद्रित किया. जोशीजी के हर पात्र ने दर्शकों को अपने साथ बाँधे रखा. आज आप देखें तो 'हम लोग' की प्रोडक्शन वेल्यूज़ बहुत बुरी नज़र आती हैं. लेकिन अपने समय वो चार कैमरा सेटअप पर शूट किया जाता था. मेरी समझ में वो अद्भुत टेलिविजन धारावाहिक था.”
भले ही भास्कर घोष, एसएस गिल और और मनोहर श्याम जोशी पर ये आरोप लगाए गए हों कि उन्होंने दूरदर्शन को लोकप्रिय बनाने के लिए किसी मैक्सिकन सोप ऑपेरा से आइडिया लिया हो, लेकिन गहराई से देखें तो इसके सारे पात्र किसी सोप ऑपेरा के पात्र नहीं, किसी महत्वपूर्ण साहित्यिक उपन्यास के ही पात्र थे. दिलचस्प बात ये थी कि मनोहर श्याम जोशी 'हम लोग' की स्क्रिप्ट खुद लिखते नहीं थे, डिक्टेट कराते थे.
भगवती जोशी बताती हैं, “उनके पास हमेशा एक टाइपिस्ट होता था. हम लोग के समय एक असिस्टेंट भी होती थी. रेखा गुप्ता उसका नाम था. वो हमेशा घूम कर या वहीं बैठ कर डिक्टेशन देते थे. हाथ से वो लिख ही नहीं पाते थे. वो कभी अपने लिखे सीरियल देखते भी नहीं थे, क्योंकि एक शब्द भी इधर से उधर हुआ तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आ जाता था. लोगों ने भी उनकी इस बात की बहुत इज़्ज़त की कि रमेश सिप्पी जैसे डायरेक्टर भी उनकी स्क्रिप्ट में एक शब्द का भी फेरबदल नहीं करते थे.”
‘हम लोग’ के बाद जिस सीरियल ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया वो था भारत पाकिस्तान के विभाजन पर बना ‘बुनियाद’. कहा जाता है कि किसी उपन्यास को पहचानने के सबसे प्रमुख लक्षण है उसमें से हमेशा झलकने वाली ऐतिहासिकता. इस कसौटी पर 'बुनियाद' पूरी तरह से खरा उतरता है.
बुनियाद में मनोहर श्याम जोशी की टीम के सदस्य रहे पुष्पेश पंत कहते हैं, “बुनियाद में जोशीजी के साथ काम करना मेरे जीवन के बेहद ख़ूबसूरत तजुर्बों में से एक रहा है. कृष्णा सोबती और मैं उनकी रिसर्च टीम में थे. अगर जोशीजी कोई दृश्य दिखा रहे होते थे तो उनका हठ होती थी कि हम पता करें कि उस दिन लाहौर में कौन सी फ़िल्म दिखाई जा रही थी या गेलाटो में आइसक्रीम का कौन सा फ़्लेवर पॉपुलर था या अगर कॉलेज में परीक्षा का परिणाम निकला था तो उसमें पहले नंबर पर कौन आया था या कौन फ़ेल हो गया था. पीरियड की जो वास्तविकता थी उसने उस सीरियल में जान डाल दी थी. बाद में जब वो सीरियल दिखाया जाता था तो भारत ही नहीं पाकिस्तान में भी सड़कें खाली हो जाती थीं.”
मनोहर श्याम जोशी की ख़ास अदा होती थी कि वो न तो कोई पैसा अपने पास रखते थे और नहीं कोई बटुआ.
भगवती जोशी बताती हैं, “वो अक्सर मेरे साथ शॉपिंग करने जाते थे. मेरे लिए साड़ियों का चुनाव वही करते थे. उनकी पसंद इतनी अच्छी होती थी कि मेरे कॉलेज की साथी अकसर मुझसे मज़ाक किया करती थीं कि हम तुम्हारे साड़ी के कलेक्शन पर डाका डालेंगे. जोशीजी को भी साड़ी पसंद आती थी वो बिना उसका दाम पूछे ख़रीद लिया करते थे. पैसे चूँकि वो ले कर चलते नहीं थे इसलिए मुझे देने पड़ते थे. अक्सर ये होता था कि मैं ख़रीददारी के लिए हज़ार रुपए ले कर निकली और जोशीजी ने तीन हज़ार का सामान ख़रीद लिया. मुझे हमेशा डर रहता था कि वो लोगों के सामने फ़जीता न करवा दें.”
उनका लेखन बताता है कि उन्होंने दुनिया देखी थी और कई भाषाएं जानी समझीं थीं. ऐसा लेखक किसी बने बनाए खाँचों का मोहताज हो कर रह भी नहीं सकता था – चाहे वो नैतिकता के खाँचे हों या फिर शिल्प के.
पुष्पेश पंत कहते हैं, “उनका सबसे मज़बूत पक्ष था ज़िंदगी के सबसे करुण पक्ष को हल्के फुल्के अंदाज़ में इस तरह कह कर निकल जाना कि आपका दिल दुखे नहीं. जोशी जी की चुटकी के भीतर भी आप दबी सिसकी सुन सकते थे. उनके पात्र ठहाका लगाते थे अक्सर अपनी रुलाई रोकने के लिए. जो आदमी रो रहा होता था वो दहाड़ मार कर नहीं रोता था लेकिन उसकी सिसकी में कहीं गुंजाइश बची रहती थी कि शायद एक हल्की सी मुस्कान निकल आए उसके चेहरे पर.”