एक दिन रुक्मणी ने भोजन के बाद श्री कृष्ण
को दूध पीने को दिया।दूध ज्यदा गरम होने के कारण
श्री कृष्ण के हृदय में लगा और उनके
श्रीमुख से निकला हे राधे !
सुनते ही रुक्मणी बोली प्रभु! ऐसा
क्या है राधा जी में ,जो आपकी हर साँस पर
उनका ही नाम होता है।मैं भी तो आपसे अपार
प्रेम करती हूँ; फिर भी आप हमें
नहीं पुकारते।
श्री कृष्ण ने कहा -देवी!आप।
कभी राधा से मिली हैं ?और मंद मंद मुस्काने
लगे।
अगले दिन रुक्मणी राधाजी से मिलने उनके
महल में पहुंची ।राधाजी के कक्ष के बाहर
अत्यंत खूबसूरत स्त्री को देखा और उनके मुख पर तेज
होने कारण उसने सोचा कि ये ही राधाजी है और
उनके चरण छुने लगी; तभी वो बोली
-आप कौन हैं ?
तब रुक्मणी ने अपना परिचय दिया और आने का कारण
बताया
;तब वो बोली मैं तो राधा जी की
दासी हूँ।राधाजी तो सात द्वार के बाद आपको
मिलेंगी ।
रुक्मणी ने सातो द्वार पार किये और हर द्वार पर एक
से
एक सुन्दर और तेजवान दासी को देख सोच रही
थी क़ि अगर उनकी दासियाँ इतनी
रूपवान हैं तो राधारानी स्वयं कैसी
होंगी ?सोचते हुए राधाजी के कक्ष में
पहुंची।कक्ष में राधा जी को देखा ,अत्यंत
रूपवान तेजस्वी जिसका मुख सूर्य से भी तेज
चमक रहा था।
रुक्मणी सहसा ही उनके चरणों में गिर पड़ी
पर ये क्या राधा जी के पैरो पर तो छाले पड़े
हुए है।रुक्मणी ने पूछा देवी आपके पैरो में छाले
कैसे ?
तब राधा जी ने कहा देवी कल आपने
कृष्णजी को जो दूध दिया, वो ज्यदा गरम था; जिससे
उनके
ह्रदय पर छाले पड गए और उनके ह्रदय में तो सदैव मेरा
ही वास होता है।
- जय श्री कृष्ण