कोई भी कार्य पूरे मन से ही करे
एक राजा को सुंदर-सुंदर इमारतें बनवाने का शौक था। उसने दूर-दूर से कुशल शिल्पियों को अपने राज्य में बुलाया ताकि वे सुंदर और विशाल भवनों का निर्माण करें।
राजा शिल्पियों का आदर करता था और उन्हें उचित पारिश्रमिक के अलावा पुरस्कार भी देता था।
एक अनुभवी शिल्पी जब वृद्ध हो गया तो उसने एक दिन राजा से कहा,‘महाराज, मैंने जीवन भर राज्य की सेवा की है, लेकिन अब मैं वृद्ध हो गया हूं। मुझे इस सेवा से मुक्त करने की कृपा करें।’
राजा ने शिल्पी से कहा,‘महान शिल्पी तुम्हारी सेवाओं के लिए मैं ही नहीं, पूरा राज्य तुम्हारा कृतज्ञ है। तुम्हें सेवानिवृत्त होने का पूरा अधिकार है, लेकिन मेरी इच्छा है कि सेवानिवृत्ति से पहले मेरे लिए एक भवन और बनाओ जो आज तक बने सभी भवनों से श्रेष्ठ व उत्कृष्ट हो।’
शिल्पी राजा की इच्छा कैसे टाल सकता था/ वह भवन बनाने के काम में जुट तो गया, लेकिन बेमन से। उसने उस श्रेष्ठता व उत्कृष्टता का परिचय नहीं दिया जिसकी उससे अपेक्षा थी। बस किसी तरह भवन पूरा कर दिया और राजा से पुनः सेवामुक्ति की प्रार्थना की।
राजा ने कहा,‘मैं आपकी कला से अत्यंत प्रभावित हूं और इसीलिए मैंने आपसे इस उत्कृष्ट भवन का निर्माण करवाया है ताकि आपको पुरस्कार स्वरूप ये भवन भेंट कर सकूं।’
शिल्पी प्रसन्न तो हुआ, लेकिन उसे इस बात का बेहद अफसोस हुआ कि उसने भवन का निर्माण पूरे मन से नहीं किया और उसमें अनेक कमियां रह गईं।
वह समझ गया कि अनमने से होकर कार्य करते हुए उसने राजा का ही नहीं अपनी कला का भी असम्मान किया। इस तरह वह अपना वास्तविक पुरस्कार खो बैठा।