तुम चाहे जाओ कहीं
मगर हम रहेंगे यहीं
हमारी ज़िंदगी भर का
सरमाया यह मकान ही तो है।
यह चिराग़ हैं इस घर के
कहा था तेरे दादा ने कभी
मैं रोशन करुंगा इस घर को
इन्होंने वादा किया था तभी।
तुम चाहे जाओ कहीं
मगर हम रहेंगे यहीं ।
एक कमरा इसमेंं
तुम्हारे बचपन का भी है
जिसमें रखें है तुम्हारे
खिलौने सभी।
और वो पिछला कमरा
पढ़ते थे तुम जिसमें कभी
किताबों के साथ यूनिफॉर्म भी
टंगा है वहीं।
और वह जो आंगन में
जामुन का पेड़ लगा है
झूलतीं थीं झूला इसमें
तेरी फूफीयां सभी।
हमारी यादों का जखी़रा
तो सबका सब यहीं है पड़ा
नऐ मकान में जाकर
हम अब करेंगे क्या ?
ख़ुशबू अपने घर की
तेरे आंगन से आती नहीं
हमारा इस वजह से
मन वहां रमता नहीं।
यह एक पुराना घर होगा
तुम्हारे लिए हमारे लिए
किसी जन्नत से कम नहीं
जन्नत से कम नहीं।
तुम रहो चाहे कहीं
मगर हम रहेंगें यहीं
हम रहेंगे यहीं.......!
मौलिक रचना
सय्यदा खा़तून,, ✍️