‘‘इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः’’ अर्थात प्रयत्नशील व्यक्ति के मन को भी हमारी प्रमथनशील (भ्रमित करने वाली) इन्द्रियाँ बलात् हर लेती हैं। ध्यान में मन नहीं लगता । मन भागता है, बाहर भटकता है। कभी चीटियाँ काटती अनुभव होती हैं, कभी शरीर में कहीं दर्द उठता है, तो कभी हिलने- डुलने का मन करता है। विचार प्रवाह, उसमें भी कामुकता प्रधान- अनापशनाप चिन्तन हमारे मन को एकाग्रचित्त नहीं होने देता। मन बड़ा भ्रामक है- बड़ा बलवान है । इसका दमन करने में बड़ी असमर्थता अनुभव होती है। इसे नियंत्रित करना तो ऐसा ही है जैसे तीव्रगति से चलने वाले वायु के प्रवाह को रोकने का प्रयास किया जाय।
सचेतन मन की एकाग्रता से ध्यान योग का साधन किया जाता है । इसके बाद उसे अचेतन मन पर केन्द्रित करते हैं, ताकि वह चैतन्यवान, प्राणवान बन सके और इसके बाद सचेतन तथा अचेतन दोनों को जोड़कर अतिचेतन की ओर आरोहण किया जाता है। तब ध्यान परिपूर्ण होता है। जब हम अतिचेतन की ओर जाते हैं, तो हमें दिव्य रसानुभूति होने लगती है। कार्यकुशलता, प्रसन्नता, दिव्य रसानुभूति आत्मानुभूति- यह सभी ध्यान की फलश्रुतियाँ हैं। हम स्वाध्याय की वृत्ति विकसित करें, ताकि हमारा मन सतत श्रेष्ठ विचारों में स्नान करता रहे। इससे धारणा पक्की बनेगी और ध्यान टिकेगा।