“कोई तो है जो मन के कैनवस पर इच्छाओं, कल्पनाओं और आशाओं के रंग हर घड़ी किसी न किसी छवि में बिखेरा करता है I कौन है ये चितेरा...जो बिना थके, बिना रुके, अनवरत ये आड़ी-तिरछी लकीरें खींचा करता है I कोई तो होगा ये अनदेखा, अनजाना मगर बहुत प्यारा ! लेकिन, उसे भी तो घड़ी दो घड़ी करना होता होगा आराम ताकि मन की कोरों से निकलते कल्पनाओं के ये धागे कहीं उलझ न जाएँ ! फिर भी मन, क्या कभी किसी के रोके रुका है ! हाँ, मन की इस गति को साधने के कुछ जतन ज़रूर किये जाते हैं I प्रभु-अर्चन, वन्दन, आराधना हमारे मन को पावन करते हैं; उचित और अनुचित का भान कराते हैं; और, अगर मन भटके तो उसे सही मार्ग पर लाते हैं !