स्वामीजी को देखते ही दोनो ने उनके चरणस्पर्श किये और स्वामी जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया|
वहा उनके शिष्य भी मौजूद थे|
"आपने हमे याद किया था गुरुजी? " विवेक जी ने सीधे मुद्दे को हाथ लगाया|
"हम्म्म्म्म! आप दोनो आइये हमारे साथ!" स्वामी जी गंभीर मुद्रा मे बोले और कही जाने लगे|
विवेक और शालिनी जी को कुछ समझ नहीं आ रहा था|
"आइये! गुरुजी के पीछे!" उनका शिष्य बोला|
आगे स्वामी जी, उनके पीछे उनके दो शिष्य विवेक और शालिनी जी को रास्ता दिखा रहे थे|
वो उनके पीछे पीछे एक तहखाने जैसी जगह पर पहुंचे| अंदर आते ही शिष्यो ने उस जगह का बडा सा दरवाजा अंदर से बंद कर लिया|
अजीब सी ठंडक थी वहा! और अंधेरा भी! इसलिए स्वामी जी के शिष्यो ने मशाले जलायी और रास्ता दिखाने लगे|
विवेक और शालिनी जी को तो वो जगह बहुत ही दिव्य प्रतीत हो रही थी| वहा का तापमान बाहर के तापमान से काफी कम था| इसवजह से शालिनी जी को तो ठंड लगने लगी|
वो लोग स्वामी जी और उनके शिष्यों के पीछे पीछे चल रहे थे| वो एक तहखाने जैसी जगह पर पहुंचे| वहा काफी अंधेरा था| इसलिए स्वामी जी के शिष्यो ने अपने हाथ की मशालों से कुछ और मशाले जलायी| हर तरफ रौशनी हो गई|
अब उस रौशनी मे शालिनी जी और विवेक जी ने सामने देखा| सामने दीवार मे शिवजी के अर्धनारीश्वर रूप की बहुत बडी शिला थी|
स्वामी जी ने उस शिला के आगे रखे बहुत बडे निरंजन के सारे दिपक जलाये| अब उन दिपको के प्रकाश मे वो शिला और भा दिव्य प्रतीत होने लगी|
सबने उनके सामने हाथ जोडकर प्रार्थना की!
फिर स्वामी जी उसी प्रतिमा के सामने एक बहुत बडा सा चबुतरे जैसा जो कुछ था उसके पास आये| सब लोग उनके साथ ही थे|
स्वामी जी के इशारे पर उनके एक शिष्य ने एक कोने मे पडे बडे से संदूक से दो बडी सी प्राचीन किताबे लाकर उनके सामने रख दी और दूसरे ने दूसरे कोने मे रखे संदूक से तीन पत्र जैसा कुछ निकाला और गुरुजी के पास दे दिया|
"गुरुजी हम आपको इतने सालो से जानते है और कई बार इस आश्रम में आकर पूरा आश्रम देख चुके है|पर ये जगह........... " विवेक जी बोले|
"ये हमारे आश्रम का गर्भगृह है| हमारे गुरुजी इसे सबसे पावन और पवित्र जगह कहा करते थे| क्योंकि उन्होने हमे बताया था कि स्वयं अर्धनारीश्वर यहा वास कर चुके हैं और उनकी कही बात की सत्यता खोजने का तो सवाल ही नही उठता|
यहा आने की अनुमति किसी को नही है! केवल मेरे!
हमे आप लोगो से जो बात करनी थी| वो बाहर नहीं हो सकती क्योंकि बाहर जो बूरी शक्तियां इस वक्त है वो हमे आपको ये सब बताने नही देती| पर इस जगह कोई बूरी शक्तियां प्रवेश नही कर पायेंगी|" स्वामी जी ने गंभीर मुद्रा मे कहा|
उनकी बातो से विषय की गंभीरता समझ आ रही थी|
"क्या बात है गुरुजी? मेरा तो दिल बैठा जा रहा है| प्लीज आप हमे जल्दी से बताइये!" शालिनी जी बोल पडी|
"वो दोनो कुंडलिया दिखाइये!" स्वामी जी ने उनके शिष्य से रुद्र और गौरी की कुंडली मांगी|
उसने वो तुरंत उनके हाथ मे रख दी|
उन्होने वो दोनो कुंडलिया खोली और सामने जो बडी सी जगह थी उसपर एक तरफ फैलाकर रख दी|
सब लोग उसके इर्दगिर्द आकर खडेे हो गए|
" ये है वो कुंडलिया जो आपने मुझे भेजी थी| ये है आपके बेटे रुद्र की और ये गौरी की! " स्वामी जी ने इशारे से समझाया|
फिर उन्होने उनके शिष्य के लाये तीन पत्रो मे से दो पत्र खोलकर उन्ही कुंडलियो के पास रखे| वो देखने मे बहुत पूराने लग रहे थे| जब उन्होंने उन्हें खोला तो वो पत्र नही दरअसल दो कुंडलिया थी|
"और ये कुंडली है आज से करीब 500 साल पुरानी!
नीलमगढ की युवराज्ञी भैरवी की!
और ये उनके सेनापती वीरभद्र की!" गुरुजी ने उन दोनो कुंडलियो की तरफ इशारा करके कहा|
"साधारण मनुष्य भी इन दोनो को देखकर बता सकता है कि इन दोनों ने जरा भी फर्क नही है!" स्वामी जी की ये बात सुनकर वो दोनो अचंभित हो गए और चारो कुंडलियो को ध्यान से देखने लगे|
स्वामी जी की बात सच थी|
गौरी की कुंडली बिल्कुल भैरवी की कुंडली जैसी थी और रुद्र की वीरभद्र जैसी!
वो दोनो बहुत चौंक गए थे|
"स्वामी जी! ये.... ये सब?
पर ऐसा कैसे.... ?"
"ये सत्य है और इससे बडा सदमा तो आप लोगो को तब लगेगा जब आप युवराज्ञी भैरवी और वीरभद्र के बारे मे जानेंगे!" स्वामी जी ने विवेक जी की बात काटते हुए कहा|
उन्होंने उनके शिष्य के लाये दो बडे पुस्तकों मे से एक उठाया और खोलने लगे|
"ये ग्रंथ मुझे मेरे गुरुजी ने भेट मे दिये थे| तब मै नही जानता था कि इनका उपयोग मुझे भविष्य मे होने वाला है| इसमे नीलमगढ राज्य का सारा इतिहास है और ये शायद उस राज्य से जुडी आखिरी निशानी भी!
ये देखिये! ये थे नीलमगढ के राजा! राजा चंद्रसेन!
एक न्यायप्रिय और प्रजाहितदक्ष राजा!" गुरुजी ने दिखाया|
किताब बहुत पुरानी थी और शायद सारे चित्र हाथो से बनाये गये थे| पर उसमे भी राजा का चेहरा साफ नजर आ रहा था| उनके मुख पर तेज और प्रसन्नता थी|
विवेक और शालिनी जी देख रहे थे|
फिर स्वामी जी ने कुछ पन्ने बदले|
"और ये है राज्य की युवराज्ञी!
भैरवी!" गुरुजी ने दिखाया|
वो देखकर तो विवेक और शालिनी जी भौचक्के रह गए|
मुख पर तेज, आँखो मे करुणा, नीली आँखें, लंबे बाल!
बहुत सुंदर और मनमोहक थी वो! हुबहू गौरी की तरह!
"गुरुजी!
ये.....ये तो हमारी गौरी है!" विवेक जी बोले|
"जानता हूँ और ये देखिये!
ये है नीलमगढ के सेनापति वीरभद्र!" गुरुजी ने कुछ और पन्ने पलटकर दिखाया|
वो देखकर अब तो दोनो को चक्कर आना ही बाकी रह गया था|
मजबूत शरीर, आँखो मे शौर्य, हाथो मे तलवार, बढे हुए लंबे बाल!
उसकी वीरता का तो उसे देखकर ही पता चल रहा था| वो हुबहू रुद्र था|
वो दोनो गुरुजी की ओर देखने लगे|
"मै जानता हूँ ये आपका बेटा रुद्र है!
ये दोनो एक ही है!
एक ही शक्ल एक ही कुंडली!
मै जानता था कि ये दोनो फिर से जन्म लेने वाले है| अपनी अधूरी कहानी पूरी करने! पर जब ये दोनो कुंडलिया एक साथ मेरे हाथो मे पडी तब मुझे पता चला कि ये दोनो अब करीब आ रहे हैं!
आपको शायद याद होगा जिस दिन रुद्र विलायत से लौटकर आये उसी दिन मैने कहा था कि उसकी जिंदगी मे उसकी ढाल बनकर कोई आने वाला है| जो हमेशा उसकी रक्षा करेगा| वो गौरी के बारे मे ही कहा था|
जिस दिन रुद्र के साथ दुर्घटना हुई उस दिन गौरी ने ही उसके प्राणों की रक्षा की थी|
ये दोनो बहुत ही ज्यादा अद्भुत कुंडलिया है|
शिवजी के अनुग्रह से जन्म लेने वाला वीरभद्र यानी रुद्र और गौरी नक्षत्र मे माँ गौरी के अनुग्रह से जनम लेने वाली भैरवी यानी गौरी! ये एक ही है! शरीर बदल चुके हैं पर आत्मा! वो एक ही है!
जिस प्रकार शिव और शक्ति का नाता अटूट है| उसी प्रकार इन दोनो को मृत्यु भी विलग नही कर पायी|
धरती पर साक्षात् शिवपार्वती का अवतार है दोनो!
आप धन्य है जो इनका सानिध्य प्राप्त हो रहा है आपको!
दोनो अपनी अधूरी गाथा पूर्ण करने आये है जो 500 साल पहले अपूर्ण रह गयी थी|" गुरूजी भावूक होकर कह रहे थे|
विवेक और शालिनी जी तो उनकी बाते सुनकर सुन्न रह गए थे|
"अपूर्ण रह गयी कहानी? हम कुछ समझे नही गुरुजी!" विवेक जी बोले|
ये सुनते ही स्वामी जी अचानक बहुत गंभीर हो गए|
"हम्म!
इस कहानी का एक और किरदार है जिससे मैने आपको अभी अवगत नही कराया है| ये उसका सही समय नहीं है| मै तो चाहता हूँ कि उस संकट कि छाया भी अब इनके प्रेम पर ना पड पाये|" गुरुजी बता रहे थे|
"गुरुजी कृपा कर हमे पूरा सच बताइये| इस प्रकार आधा अधूरा सच जानकर हम चैन से नहीं रह पायेंगे| ये हमारे बच्चों की जिंदगी का सवाल है| मै आपके आगे हाथ जोडती हू| कृपा कर हमे पूरा सच बताइये|" शालिनी जी हाथ जोडकर रोते हुए बोली|
"हम्म्म्म्म! ठीक है!
किंतु आपको मुझे शिव-शक्ति को साक्षी मानकर ये वचन देना होगा कि आप ये सत्य उन दोनो पर तब तक उजागर नही करेंगे जब तक उन्हें स्वयं इस बारे मे पता नही चल जाता!" गुरुजी बोले|
"हमे मंजूर है गुरुजी!" विवेक जी बोले|
उन्होने अर्धनारीश्वर की प्रतिमा को साक्षी मानकर गुरुजी को वचन दिया|
तब गुरुजी ने बताना शुरू किया|
'ये बात अबसे लगभग 500 साल पुरानी है|'
अब आगे से शुरू होती है भैरवी और वीरभद्र की कहानी!
अब से रुद्र और गौरी आपसे मिलेंगे इसी रुप मे!
पर्बतो मे बसा नीलमगढ!
बहुत ही मनमोहक और खुबसुरत राज्य हुआ करता था|
बहुत सुंदर वन, कई झरने, फूलों के बाग,खेत!
हर तरफ हरियाली और खुशहाली!
नीलमगढ मानो धरती पर बसा दूसरा स्वर्ग ही था!
और इस सब का कारण था वहा का राजा!
राजा चंद्रसेन...!
अपने कुल का सबसे ज्यादा पराक्रमी और प्रजाहितदक्ष राजा!
रणभूमि मे राजा का पराक्रम सराहनीय था शत्रुओं पर क्रूर और साथ ही अपनी प्रजा पर निस्सिम ममता लुटाने वाला राजा हर तरह से परिपूर्ण था!
उसकी पत्नी यानी नीलमगढ की महारानी प्रियांशी!
वो भी राजा की तरह ही बहुत करूणामय थी| दोनो मे बहुत ही प्रेम था| रानी हमेशा अपने पतिव्रत धर्म की पालन करती थी|
राजा के जीवन मे सब कुछ ठीक चल रहा था|
पर वो दोनो केवल एक ही बात से निराश रहा करते थे की विवाह के कई वर्ष हो गए पर उन्हे अब तक संतानप्राप्ति नही हो रही थी|
तब उनके अमात्य यानी राजगुरू ने उन्हें एक उपाय सुझाया कि वो दोनो संतानप्राप्ति के लिए शिवपार्वती की नौ माह की एक दीर्घ आराधना का आयोजन करे| पर उसके लिए राजा की नौ माह उस पूजा मे उपस्थिति अनिवार्य थी|
राजा और रानी दोनो ही शिव और पार्वती के भक्त थे और साथ ही संतान के लिए आतुर भी! इसलिए वो मान गए|
राज्य मे कैलाशधाम नाम का बहुत बडा पर्बत था|
नाम के अनुरूप ही उसका स्वरुप कैलाश से कम ना था|उसपर शिवपार्वती का बहुत ही बडा और जागृत मंदीर था|
वहा पर शिव और पार्वती की गगनभेदी मूर्ति थी|
अमात्य के कहे अनुसार वही पर पूजा का आयोजन किया गया|
नौ माह तक लगातार प्रज्वलित होने वाला ओम आकार का यज्ञकुंड तैयार किया गया|
राज्य के हर दिशा से ब्राम्हण बुलाये गए और अमात्य की देखरेख में पूजा का आरंभ किया गया|
इस दौरान राज्य का सारा कारोबार महाराज चंद्रसेन ने अपने बहुत ही खास शिवांग कबिले के सरदार...
सरदार विजयभान पर सौपा था|
शिवांग कबिला राज्य का बहुत ही विश्वसनीय था|
उस कबिले का हर सिपाही राजा का बहुत ही वफादार था और ऐसे समय मे राजा को सिर्फ विजयभान पर ही भरोसा था|
नौ माह तक राजा चंद्रसेन पूजा मे उपस्थित रहे और तब तक राज्य का कारोबार विजयभान ने बखूबी संभाला|
उस पूजा का फल इतना तीव्र था कि राजा के पूजा मे जाने के पहले दिन ही रानी को गर्भधारणा हो गई थी|
राजा ने पूरे विधिवत तरीके से पूजा संपन्न करायी|
देखते ही देखते पूजा का अंतिम दिवस आ गया| आज अमात्य कुछ अस्थिर लग रहे थे|
ओम आकार मे शिवपार्वती की प्रतिमा के सामने यज्ञ प्रज्वलित हो रहा था|
पूजा के अंत मे सभी पंडितो ने साथ मे शंखनाद किया|
तभी आकाश मे कुछ होने लगा| नवग्रह अपनी दिशा बदलने लगे| एक तेज रौशनी आसमान से होकर सीधे शिवपार्वती की प्रतिमा पर पडी और पार्वती के आशीर्वाद देते हाथ से होकर राजमहल पर पडी|
सब लोगो ने एक साथ 'हर हर महादेव' और 'जय माँ गौरी' की गुहार लगा दी|
ये देखकर सब अचंभित हो गए|
कुछ क्षण पश्चात वो रौशनी गायब हो गई|
सब पंडित यज्ञकुंड के पास से उठे और राजा के पास गए|
अमात्य आगे आकर बोले,"इस पूजा से आपने राज्य मे चैतन्य भर दिया है राजन!
आप ही के कारण हम इन नवग्रहों का एकसाथ दर्शन कर पाये| आपको दिव्य पुण्य कि प्राप्ति होगी|" सब लोगो ने राजा को खूब आशीर्वाद दिया|
तभी एक सेवक भागते हुए वहा पहुंचा|
"महाराज बधाई हो! बधाई हो महाराज! आपको कन्यारत्न की प्राप्ति हुई है! आपके प्रस्थान के एक दिन पश्चात ही रानी को पता चला कि वो गर्भवती है! बधाई हो महाराज! बधाई हो!" वो सेवक खुश होकर कह रहा था|
ये सुनते ही राजा फूले ना समाये|
सब ब्राम्हण राजा को बधाई देने लगे|
उसी वक्त सब ब्राम्हण राजा के साथ नवजात बालिका को आशिष देने राजमहल पहुंचे|
राजमहल के बाहर सारी प्रजा एकत्रित होकर अपने राज्य के नन्हे महमान को एक नज़र देखने की अभिलाषा मे खडी थी|
राजा अपनी पुत्री को देखकर बहुत खुश हुए| ये क्षण राजा रानी के जीवन का सबसे बड़ा क्षण था|
जब राजा ने सब ब्राम्हणो को पुत्री का मुखदर्शन करवाया तो सब ब्राम्हणों ने उसी वक्त कह दिया की वो बालिका नवग्रहो का तेज लेकर जन्मी है| जो बहुत ही ज्यादा शुभ है|
तभी अमात्य आगे आये|
उन्होने उस बालिका के पैर लेकर अपने माथे से लगा लिये|
ये देखकर राजा रानी सहित सब चौंक गए|
"ये आप क्या कर रहे हैं अमात्य? " राजा ने चौंककर पूछा|
"मै जो कर रहा हूँ वो सब सही है राजन! ये बालिका कोई सामान्य बालिका नही है| साक्षात देवी पार्वती के अनुग्रह से जन्म लेने वाली इस राज्य की लक्ष्मी है| साक्षात माँ गौरी का अवतार है| तो इनके पैर अपने माथे से लगाकर मैने गलत क्या किया? " अमात्य की बात सुनकर सब चौंक गए| पर सभी ब्राम्हण उनकी बात से सहमत थे|
"इनकी कुंडली मै स्वयं अपने हाथो से बनाऊंगा! ये होंगी हमारे राज्य की राजकुमारी भैरवी!" अमात्य खुश होकर बोले|
सारे वातावरण मै उनकी बातो से चैतन्य छा गया|
"राजा ने अपनी पुत्री को हाथो मे उठाया और प्रजा के सामने लो जाकर कहा," ये है आपकी राजकुमारी भैरवी!"
राजकुमारी को देखकर सब लोग बहुत बहुत खुश हो गए|
"राजकुमारी भैरवी की जय! महाराज चंद्रसेन की जय! महारानी प्रियांशी कि जय!" सारी प्रजा घोषणा करने लगी| लगने लगा कि साक्षात देवी अवतरित हुई है|
विजयभान भी राजकुमारी के आगमन से बहुत खुश थे|
सब ब्राम्हणों को आदरातिथ्य करवाने का सारा जिम्मा उन्होने ही उठाया और फिर उन्हे विदा भी दी|
विजयभान के होते राजा को किसी भी बात कि चिंता करने की जरूरत नही होती थी|
अगले ही दिन अमात्य ने राजकुमारी भैरवी की कुंडली बनायी|
वो कुंडली बनाने के बाद अमात्य कुछ चिंतित हो गए|
तभी वहा महाराज भैरवी की कुंडली लेने पहुंचे| पर अमात्य ने उन्हे चिंता का कोई विषय नही बताया| केवल कुंडली की अच्छी बाते ही बतायी| इस कारण राजा कुंडली लेकर बडी हसी खुशी रानी के पास चले गए|
"हे प्रभु! जिस प्रकार भैरव बनकर माता की रक्षा कि थी आपने! उसी प्रकार इस बार भी हमारी माता की रक्षा करना!" पर अमात्य कहा जानते थे की महादेव अपनी महादेवी का साथ कभी नही छोड सकते|
इसी तरह देखते देखते समय बितता गया और राज्य मे भैरवी के आते ही हर तरफ खुशहाली छा गई| मानो राज्य मे अब किसी चीज की कोई कमी नही रही| भैरवी सच मे गौरी का रूप साबित हुई|
परंतु इस बीच.....
महारानी प्रियांशी ने 2 साल बाद ही महाराज का साथ छोड दिया| भैरवी के जन्म के दो साल बाद ही रानी का स्वर्गवास हो गया| पर महाराज ने कभी भैरवी के पालनपोषण मे कोई कमी नही आने दी|
इस तरह समय बितता गया और राजकुमारी बडी होती गई| राजकुमारी के 18 वर्ष पूर्ण होते ही उन्हे राज्य की युवराज्ञी बना दिया गया|
प्रजा भैरवी पर असीम माया करती थी| वो भी राजा के समान दयावान और करूणामय थी| राज्य के दुख अपने दुख समझती थी| राज्य का कोई भी इंसान भैरवी के पास से खाली हाथ लौटकर नही जाता था|
आगे की कहानी भैरवी के जन्म से 20 साल बाद
एक दासी भागते भागते राजमहल के बडे से बागीचे मे बने महादेव के बहुत बडे मंदीर मे पहुंची| वो अंदर पहुंचकर रुकी| वो हाँफ रही थी|
"युवराज्ञी! युवराज्ञी वो.... वो सेनापति......." वो हांफते हुए बोली|
ये सुनते ही महादेव की मूर्ति के सामने ध्यानावस्थामे बैठी युवराज्ञी ने अपनी आँखें खोली|
वो झट् से उठकर खड़ी हो गई और उस दासी की तरफ मुडकर देखा|
युवराज्ञी का वो रुप देखते ही बन रहा था|
सफेद रंग का लेहेंगा, वैसा ही ऑफ शोल्डर ब्लाउज, उसी ओपन शोल्डर से बाहो तक जाती शोल्डर ज्वेलरी!
शरीर पर ज्यादा गहने नही थे| पर जितने भी थे असली हिरे थे!
गले मे हार, कानो मे लंबे झुमके, जो उनके अचानक मुडने से हिल रहे थे|
माथे पर सीधी माँग मे लगा माँगटीका, हाथों मे कडे, कमर पे कमरबंद!
उनकी पतली खुली कमर को वो और भी निखार रहा था!
खुले और कमर से भी नीचे जाते लंबे बाल! नीली हिरणी जैसी आँखे! गुलाब की पंखुड़ीयो जैसे होठ!
बहुत ही ज्यादा खुबसुरत थी युवराज्ञी भैरवी!
(ये हम सबकी प्यारी गौरी है! हुबहू वही रंग रूप!)
"पद्मा! सेनापति....सेनापति क्या? आगे भी तो बोलिये!" भैरवी ने उसकी बाहे पकडकर पूछा|
"युवराज्ञी भैरवी! वो सेनापति वीरभद्र! वो....वो कंचन प्रदेश से लौट रहे हैं!" पद्मा हाँफते हुए बोली|
ये सुनते ही युवराज्ञी ने उसे छोड दिया और मनमे कुछ निश्चय कर लिया|
उन्होने महादेव के चरणस्पर्श किये और पद्मा के पास वापिस लौटी|
"चलिये पद्मा! "
"पर कहा युवराज्ञी जी?" पद्मा ने उनकी तरफ देखकर पूछाट
पर भैरवी ने कोई जवाब नहीं दिया पर उनकी आँखों मे पद्मा को उसका जवाब मिल गया| वो अचानक डर गई|
"नही युवराज्ञी जी! नही! हमे वहा नही जाना चाहिए!" पद्मा बोली|
"हमने आपसे आज्ञा नही मांगी| ये हमारा आदेश है| आइये हमारे साथ और जैसा हम कहते हैं वैसा ही किजीये| समझी आप?" भैरवी के आदेश पर पद्मा गर्दन झुका कर उनके पीछे चल दी|
पर युवराज्ञी के चेहरे पर इस वक्त निश्चय के साथ साथ गुस्सा भी साफ नजर आ रहा था|
उधर नीलमगढ राज्य की सीमा मे कुछ 10-12 सैनिको ने अपने सरदार के साथ प्रवेश कर लिया| उनके चेहरो पर कपडे बंधे हुए थे|
वो सब लोग तेजी से अपने घोडो के साथ राजमहल की ओर बढ रहे थे|
तभी हवा से उनके सरदार के चेहरे पर का कपडा हट गया|
मुख पर तेज, आँखो मे शौर्य, मजबूत शरीर!
एक हाथ मे लगाम और दूसरे मे तलवार!
वो शूर योद्धा कोई और नही! सेनापति वीरभद्र थे!
(ये हमारा रुद्र है| वही शक्ल, वही रुप|)
वीरभद्र अपने साथियों को साथ तेजी से महल की ओर बढ़ रहे थे|
राजमहल के रास्ते मे एक जंगल पडता था| उससे गुजरते वक्त अचानक वीरभद्र के पीछे कुछ आवाजे हुई| वो रुक गए|
उन्होंने पीछे मुडकर देखा तो उनके कई साथीयो के उपर जाल पडे हुए थे और वो सब जालो मे छटपटा रहे थे|
ये सब देखकर उनके कुछ समझ मे ही नही आया| वीरभद्र और उनके बाकी बचे साथी घोडे से नीचे उतरे| तभी उन लोगो पर कुछ लुटैरो ने हमला कर दिया|
उन सबने काले कपडे पहने हुए थे| चेहरे के साथ साथ अपना पूरा शरीर ढक रखा था|
उन लोगो ने वीरभद्र और उनके साथीयो पर हमला कर दिया|
वीरभद्र ने अपनी तलवार निकाली और उनसे लडने लगे| वो एक एक कर सबको हराने लगे| कईयो को तो उन्होने पेडो से बाँध दिया|
तभी उनमे से एक लुटैरा आकर सेनापति वीरभद्र के सामने खडा हो गया|
वो वीरभद्र को टक्कर देने लगा|
उसमे उसे कई बार सेनापति की तलवार से चोटे भी लगी|
"कौन हो तुम लोग? तुम लोगो को पहले यहा नही देखा?" वीरभद्र ने उसके गले के पास अपने हाथो का पाश बाँधकर पूछा|
पर उसने कोई जवाब नहीं दिया और सेनापति को जोर से धक्का देकर नीचे गिरा दिया| वो पूरा प्रयास कर रहा था कि सेनापति उसकी आँखे ना देख पाये|
उसने सेनापति के गर्दन पर तलवार रख दी| पर उन्होने लात मारकर उसे पीछे पेड पर धकेल दिया और उसके पीठपर तलवार से वार किया| उसे चोट लगी|
पर वो फिर से सेनापति से लडने लगा|
सेनापति ने उसे पेड पर पकड के रखा| उन्होने एक पल के लिए उसकी नीली आँखों मे देखा| उसकी आँखो मे गुस्सा और आँसू दोनो एक साथ थे| उन्हें ये कुछ अजीब लगा|
"कौन हो तुम? आखिर हो कौन तुम? ऐसी आँखे तो सिर्फ....." सेनापति ने तडपकर पूछा|
इसका फायदा उठाकर वो लुटेरा भागकर जाने लगा|
पर वीरभद्र ने उसे फिर से पकड लिया| उसके दोनो हाथ उसी की पीठ की तरफ पीछे कसकर पकड लिये और अपने एक हाथ से उसके चेहरे का कपडा हटाने ही जा रहे थे कि उस लुटेरे ने अपना सिर जोर से सेनापति के सिर से ठोक दिया और उनके हाथो छुट गया|
वो फिर से भागकर जाने लगा पर सेनापति ने उसकी टोपी का कपडा पकड लिया| उसके भागने की वजह से उसके सिर पर बँधा कपडा उसके मुखौटे के साथ ही खुल गया और वो नीचे गिर गया|
वो कपडा हटते ही उसके लंबे बाल आजाद होकर उडने लगे|
वो एक लड़की थी|
वो नीचे बैठ गई| उसके सारे बाल उसका चेहरा किसी को देखने नही दे रहे थे|
वो लडकी है ये देखकर सब सैनिक भा अचंभित हो गए| उसके जिन साथियो को उन्होने पकडा था वो भी डर गए|
उनमे से एक चिल्ला पडी," युवराज्ञी!"
वो पद्मा थी|
उस लुटेरे के भेस मे युवराज्ञी भैरवी थी और उनके साथी बनकर आयी थी उनकी दासिया!
ये सुनते ही सब सैनिक डर गए और वीरभद्र तो सुन्न हो गए|
वो नीचे युवराज्ञी के पास बैठ गए|
उन्होने युवराज्ञी के चेहरे पर गिरे बाल हटाये|
वो अब भी नीचे ही देख रही थी और जोर जोर से साँसे भर रही थी|
"युवराज्ञी! युवराज्ञी हमे क्षमा कर दीजिए! आपको कही चोट तो नहीं लगी? " सेनापति कह ही रहे थे|
तभी युवराज्ञी ने गुस्सेमें उनकी तरफ देखा|
उनकी आँखे गुस्से से लाल हो गई थी| उनके मुंह से खून निकल रहा था|
"हे ईश्वर! युवराज्ञी! आपके मुंह से..... " ये कहकर वीरभद्र उनको हाथ लगाने ही जा रहे थे कि उन्होंने गुस्से मे हाथ के इशारे से ही उन्हे रोक दिया|
कुछ देर भैरवी सेनापति की आँखो मे देखती रही पर कुछ देर बाद सेनापति ने अपनी गर्दन झुका ली| मानो उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया हो|
"मुर्खों खोलो हमे! दिखाई नहीं देता युवराज्ञी को कितनी चोट लगी है? उन्हें हमारी आवश्यकता है! खोलो हमे जल्दी!" पद्मा सैनिको से कहने लगी|
सैनिको ने भी डरकर उन सबको खोल दिया|
सेनापति ने फिरसे भैरवी की तरफ देखा|
अब अचानक भैरवी की आँखो मे पानी आ गया और वो उठकर खड़ी होने लगी| पर चोटे लगने के कारण वो गिरने वाली थी| सेनापति उन्हे संभालने लगे पर उन्होने उन्हे दूर धकेल दिया|
"आपको एक बार मे बात समझ नही आती? हमने कहा दूर रहीये हमसे! हमारे करीब आने की कोई आवश्यकता नही है| हम अपना खयाल रखने मे सक्षम है| हमे किसी के भीख कि आवश्यकता नही|" ये कहकर भैरवी जंगल की ओर जाने लगी|
"युवराज्ञी! युवराज्ञी रुकिये! कहा जा रही है आप? आप महल चलिये| आपको वैद के पास चलना होगा|" पद्मा कहने लगी|
ये सुनकर भैरवी और भडक गयी|
"हमे नही जाना महल और ना ही हमे किसी वैद की जरूरत है| हमे एकांत चाहिये|
हमारे पीछे कोई नही आयेगा| ये हमारा आदेश है और जो हमारे आदेश का उल्लंघन करेगा उसे हम स्वयं अपने हाथो से मृत्युदंड देंगे|" भैरवी ने बहुत ही गुस्से से कहा और वो चली गई|
देखते ही देखते वो झाडीयो मे गायब हो गई|
"सेनापति जी! सेनापति जी कुछ करिये! आपने देखा नही युवराज्ञी को कितनी चोट लगी है! उन्हें चिकित्सा की आवश्यकता है| आप ही है जो उनका क्रोध शांत कर सकते हैं| मै आपके आगे हाथ जोडती हू| आप युवराज्ञी को लेकर आइये|" पद्मा कह रही थी|
"आप चिंता मत करीये मै लेकर आता हूँ युवराज्ञी को!" कहकर वीरभद्र युवराज्ञी को लेने निकल पडा|