जीना चाहूं वो लम्हे बार बार
जब तुमसे जुड़े थे मन के तार
जाने उसमें क्या जादू था ?
ना रहा जो खुद पे काबू था
कभी गीत बन कर हुआ मुखर
हंसी में घुल कभी गया बिखर
प्राणों में मकरंद घोल गया
बिन कहे ही सब कुछ बोल गया
इस धूल को बना गया चन्दन
सुवासित , निर्मल और पावन
कभी चाँद हुआ कभी फूल हुआ
या चुभ हिया की शूल हुआ
लाल था कभी - कभी नीला
कभी सिंदूरी - कभी पीला
कोरे मन को रंग निकल गया
कभी अश्रु बनकर ढुलक गया
ना खबर हुई क्या ले गया और-
भर गया क्या खाली झोली में
वो चुटकी भर..अबीर तुम्हारा
उस फागुन की होली में !!!!!!!!!
स्वरचित -- रेणु-
चित्र -- गूगल से साभार
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