28 जुलाई 2018 को द इंडियन एक्सप्रेस में हरबंस मुखिया ने एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने कुल मिलाकर इस बात पर घोर आपत्ति जताई है कि क्यों आजकल टीवी चैनलों पर ऐसी बात की जाती है कि भारत में मध्यकाल में तलवार के बल पर बड़े पैमाने पर लोगों को मुसलमान बनाया गया?
इस संदर्भ में उन्होंने प्रतिप्रश्न किया है कि क्यों आखिर मुसलमानों की आबादी का सर्वाधिक घनत्व उन क्षेत्रों में है जहां पर मध्यकाल में मुस्लिम शासकों का प्रभाव या तो कम था या हाशिए पर था। उदाहरण के लिए उन्होंने अविभाजित भारत का पश्चिमोत्तर क्षेत्र (आज का पाकिस्तान), पूर्वी क्षेत्र (आज का बांग्लादेश), कश्मीर और केरल के मलाबार या तटीय क्षेत्र का उल्लेख किया है जहां मुस्लिम जनसंख्या घनत्व सर्वाधिक है परंतु जो मुस्लिम शासन के केंद्र से दूर थे। इसलिए उनका प्रश्न है कि यदि शासन का धर्मांतरण में हाथ होता तो आज उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में मुस्लिम आबादी का घनत्व अधिक होता। इस लेख में मुखिया के इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है।
सबसे पहले बात भारत के पश्चिमोत्तर हिस्से की। जैसा कि विदित है सिंध के राजा दाहिर को मुहम्मद बिन कासिम ने सन 712 में हराकर सिंध में मुस्लिम शासन आरंभ किया। तब से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक लगातार सिंध पर मुस्लिम शासन रहा। लगभग ग्यारह सौ साल के इस लंबे कालखंड में यह क्षेत्र मुस्लिम बहुल हो गया और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक हो गए। ऐसी ही कहानी कश्मीर की भी है। जहां तक भारत के पूर्वी हिस्से की बात है तो यहां भी मुस्लिम शासन 1204 में आरंभ हुआ और उसके बाद से लंबे समय तक मुस्लिम शासन कायम रहा।
इस संदर्भ में केरल का उल्लेख बहुत अधिक महत्व नहीं रखता क्योंकि वहां की मुस्लिम आबादी 1901 में सिर्फ पंद्रह लाख के आस पास ही थी। इसलिए आज की लगभग 90 लाख की मुस्लिम आबादी पिछले सात दशकों की तेज जन्म दर का परिणाम है। केरल में मुसलमानों की जन्म दर हिंदुओं और ईसाइयों की जन्म दर से बहुत ज्यादा है। फिर भी ‘स्वराज्य’ में प्रकाशित अप्रैल 2015 के अपने लेख में डॉ काजल बताती हैं कि केरल में टीपू सुल्तान के शासन काल में बड़ी संख्या में लोगों को मुसलमान बनाया गया। इससे पहले मुस्लिम की जितनी भी आबादी केरल में थी वह अरब सौदागरों और उनके साथ आनेवाले मुस्लिम गुरुओं के प्रयास से धर्मांतरण का परिणाम थी।
यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि मेल-मिलाप से और नए और पुराने धर्मों के बीच तुलना करके यदि धर्मांतरण होता तो इस में समय लगता और थोड़े ही लोग ऐसा करते क्योंकि ऐसा करने को वे किसी भी तरह से बाध्य नहीं होते। इस प्रकार कहीं भी यदि इस प्रक्रिया को अपनाया जाए तो परिणाम में जो संख्या हाथ लगेगी वह सिर्फ सैकड़ों या बहुत कठिनाई से हजारों में होगी और उसमें भी सदियां बीत जाएंगी। केरल दरअसल इसका उपयुक्त उदाहरण है जहां बिना बल प्रयोग के लगभग हजार वर्ष से भी अधिक के प्रयास से सिर्फ कुछ लोग ही मुस्लिम बन पाए। कहा जाता है कि अरब व्यापारियों से केरल का संबंध ईसा पूर्व से ही था। जब इस्लाम का उदय हुआ तो स्वाभाविक रूप से ये व्यापारी भी मुसलमान हो गए और मुहम्मद पैगंबर के जीवन में ही केरल में एक मस्जिद का निर्माण हुआ जिसके लिए स्थानीय राजा ने भूमि दी। इसके बाद से धीरे-धीरे मुस्लिम मिशनरी आने लगे और कुछ लोग इस्लाम में दीक्षित होने लगे। लेकिन इनकी संख्या सदा नगण्य रही।
उपरोक्त विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि बड़े पैमाने पर लोगों द्वारा किया गया धर्मांतरण केवल किसी सदप्रयास का परिणाम नहीं हो सकता। लगभग यही स्थिति भारत के पूर्वी हिस्से की भी है। वहां भी पहले से अरब सौदागर बंगाल की बंदरगाहों पर आते रहे और आस पास के कुछ लोग इस्लाम को स्वीकारते रहे। परंतु इसमें तेजी तभी आई जब मुस्लिम शासन आरंभ हुआ जो 1757 में जाकर समाप्त हुआ।
अब रही बात कि मुस्लिम शासन का जो हृदय स्थल था उसमें क्यों बड़ी संख्या में लोगों का धर्मांतरण नहीं हुआ? वैसे तो राजस्थान से लेकर बिहार तक आज जितने मुस्लिम हैं उनकी संख्या भी बहुत बड़ी है और इतनी बड़ी संख्या में लोगों का धर्मांतरण किसी भी तरह छोटी घटना नहीं है। फिर भी निस्संदेह इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी का घनत्व कम है। अब हम इस प्रश्न का उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे कि आखिर ऐसा क्यों है?
असल में मुसलमानों के कट्टर तबके ने हर कोशिश की कि पूरे का पूरा देश मुसलमान बन जाए। परंतु यदि वे ऐसा करने में विफल रहे तो संभवतः इसके दो प्रमुख कारण हो सकते हैं। पहला कारण हो सकता है इस देश की भौगोलिक विशालता। यह देश इतना बड़ा था कि मुसलमानों के लिए लगभग वह सब कर पाना संभव ही नहीं था, जो वे चाहते थे। अरबों को ईरान, इराक, सीरिया, मिस्र, फिलिस्तीन जैसे देशों पर अधिकार जमाने और वहां के लोगों को मुसलमान बनाने में बहुत अधिक समय नहीं लगा। इस संदर्भ में हमारे सामने बलपूर्वक धर्मांतरण का सबसे सटीक उदाहरण तो पारसियों का है जो इस्लाम के प्रहार से बचने के लिए अपना देश ईरान छोड़कर भारत में आ बसे। लेकिन भारत इन देशों के मुकाबले बहुत बड़ा था। जब मुस्लिम शासन अपने चरमोत्कर्ष पर था तब भी पूरा का पूरा देश उसके नियंत्रण में नहीं था। इस प्रकार जब बहुत सुदूर क्षेत्रों में मुसलमानों की पहुंच ही नहीं थी तो धर्मांतरण की बात कहां से आती। कुछ कुछ यही बात चीन पर भी लागू होती है। वैसे चीन अपनी ऐतिहासिक दीवार के कारण अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित रहा है। फिर भी वहां मुसलमानों की कोशिश रही कि स्थानीय लोगों का धर्मांतरण किया जाए। इसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली और आज चीन में लगभग दो करोड़ मुसलमान हैं। परंतु इसकी भी भौगोलिक विशालता ने मुस्लिम हमलावरों के प्रयासों को पूरी तरह सफल नहीं होने दिया।
दूसरा कारण है इस देश का अति प्राचीन धर्म और संस्कृति। मुस्लिम आक्रमण काल में इस देश के तीनों धर्म – हिंदू, जैन और बौद्ध अत्यंत प्राचीन धर्म थे और विशेषकर हिन्दू धर्म तो कहते हैं संसार का प्राचीनतम धर्म था। इसी तरह इस देश की संस्कृति की जड़ें पाताल तक पहुंची हुई थीं। जितने भी मुस्लिम हमलावर यहां आए उनकी संस्कृति से इस देश की संस्कृति कई अर्थों में कहीं अधिक समृद्ध थी। इसलिए ऐसी ऐसे धर्मों और इतनी गहरी संस्कृति से लोगों को अलग करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण काम था।
इसके अतिरिक्त इस देश में सर्वत्र छोटे-बड़े राजा राज कर रहे थे। जब यहां मुस्लिम शासन था तब भी स्थानीय स्तर पर बहुत सारे हिंदू राजा राज कर रहे थे। इनके राज में हिंदू अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र थे और इसलिए धर्मांतरण बहुत कठिन था। राजस्थान इस अर्थ में एक ऐसा उदाहरण है जहां मुस्लिम आक्रमण से पहले से कई राजा जो शासन कर रहे थे उनके राजपरिवार अब तक अस्तित्व में हैं। इसलिए हमें इस पहलू को ध्यान में रखना होगा कि जहां जहां हिंदू राजा अपने क्षेत्र में बरकरार थे वहां वहां मुसलमानों के लिए हिंदुओं को मुसलमान बनाना बहुत बड़ी चुनौती थी। साथ ही जब भी केंद्रीय सत्ता कमजोर होती थी तब ये हिंदू राजा मजबूत हो जाते थे।
अब हम जबरन धर्मांतरण के विषय को लेते हैं। इतिहास में जबरन धर्मांतरण इस तरह दर्ज है कि संभवतः इसी के फलस्वरूप इस देश के हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वैमनस्य, कड़वाहट और कटुता रही है। मध्यकाल का भक्ति साहित्य इसका प्रमाण है जब बहुत सारे भक्त कवि इस बात पर बल देते रहे कि आपस में भाईचारा हो। नानक तो आजीवन इस प्रयास में लगे रहे कि किस तरह इन दोनों समुदायों को करीब लाया जाए। कालांतर में धर्म का रूप लेने वाले सिख पंथ के बारे में कहा जाता है कि यह हिंदू और अरबी धर्म का सम्मिश्रण है। यदि सब कुछ ठीक होता तो इन भक्त कवियों को इस विषय पर इतनी ऊर्जा खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ती। किस कद्र हिंदू-मुसलमान लड़ते थे इस बारे में कबीर तो बड़ी बेबाकी से कहते हैं —“हिंदू कहत है, राम हमारा, मुसलमान रहमाना, आपस में दोउ लड़े मरत हैं, भेद न कोई जाना।” इतनी ही बेबाकी से बुल्लेशाह भी कहते हैं — “होर न सबमें गल्लड़िया अल्ला अल्ला दी गोल, कुझ रौल पाया आलमां कुझ कागजां पाया भल्ल।” इसका अभिप्राय है कि अंतर्जातीय अथवा संप्रदायों के बीच होनेवाली ‘कलह’ का मुख्य कारण या तो पंडित लोग हैं या उनकी पोथियां ( बुल्लेशाह, डॉ हरभजन सिंह, 2012, पृष्ठ 20 )। इन महान संतों की वाणी में ‘लड़ मरना’ और ‘कलह’ जैसे शब्दों को देखकर हमारे सामने दोनों समुदायों के बीच के तत्कालीन वैमनस्य और कड़वाहट का अंदाजा हो जाता है। स्पष्ट है कि यह वैमनस्य उतना ही पुराना है जितना कि इस्लाम का भारत में आगमन।
मुखिया की बात से ऐसा प्रतीत होता है कि इस्लाम की कुछ विशेषताओं ने यहां के लोगों को आकृष्ट किया होगा। पर यदि ऐसा है तो अब वे विशेषताएं कहां चली गईं? अब तो धर्मांतरण इतिहास हो गया है। और धर्मांतरण लगभग अचानक रुका पर तब जब मुगल सल्तनत कमजोर पड़ गई। जब से मराठों, सिखों, जाटों आदि की ताकत बढ़ी तब से धर्मांतरण की बात कम सुनाई देने लगी। नानक और अन्य गुरुओं के मेल-मिलाप के प्रयास के बावजूद दसवें गुरु गोविंद सिंह के समय धर्म रक्षा का विषय इतना बड़ा बन गया कि सिख पंथ एक सैन्य शक्ति में परिणत हो गया।
हमें ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता जो यह साबित करे कि इस्लाम इस देश के तत्कालीन धर्मों से बेहतर था जिससे लोग स्वेच्छा से इस्लाम का वरण करते। इस देश के धर्म जिस सीमा तक अपने अनुयायियों को स्वतंत्रता देते थे उसकी तुलना में इस्लाम न तो तब स्वतंत्रता देता था और न ही आज देता है। इससे भी बड़ी बात तो यह है कि इस्लाम अपने अनुयायियों को इस्लाम से बाहर जाने की अनुमति नहीं देता। इस्लाम की तो आलोचना ही नहीं हो सकती तो इसको छोड़ने की बात तो बहुत दूर की है। हमें इतिहास से अनेक प्रमाण मिलते हैं जिनसे यह साबित होता है कि पिछले चौदह सौ सालों में शायद ही कभी इस्लाम ने अपनी आलोचना स्वीकार की हो! यही कारण है कि इस्लाम के सुधार के लिए कभी कोई व्यापक सुधार आंदोलन नहीं चला। इस प्रकार जो भी इस्लाम के अनुयायी हैं उनके पास सिवाय इसके कि वे इस्लाम का गुण गाते रहें, कोई विकल्प नहीं रहा। इस्लाम आलोचना से परे है। इसी के मद्देनजर ईशनिंदा का कानून इतना सख्त बनाया गया है कि अनेक मुस्लिम बहुल देशों में इसके लिए मौत तक की सजा है। ऐसे में कौन हिम्मत करेगा इस्लाम की आलोचना करने की?
इस्लाम की इस कठोरता से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि कोई एक बार मुसलमान बन जाए, तो चाहे भी तो, वह इससे बाहर नहीं आ सकता। हां, जबरन यदि कोई उसे बाहर कर दे तो ऐसा हो सकता है। इस संदर्भ में स्पेन का उदाहरण बहुत ही समीचीन है। वहां करीब छह सदियों तक इस्लाम का शासन रहा और बड़ी संख्या में ईसाई मुस्लिम बनाए गए। परंतु जब ईसाइयों ने मुस्लिम शासन को समाप्त कर दिया तब उन्होंने भी सभी मुसलमानों को जबर्दस्ती ईसाई बना दिया। इसी तरह की स्थिति आज हम चीन में भी देख सकते हैं। जिस सीमा तक चीन अपने मुसलमान नागरिकों को उनके मजहबी रीति-रिवाजों से दूर कर रहा है और किशोर व किशोरियों को तो इस्लाम से ही दूर कर रहा है, उससे संभव है अगली पीढ़ी के मुसलमान पूरी तरह मुसलमान न रह पाएं।
दूसरे धर्मों के अनुयायियों को मुसलमान बनाने के लिए बल प्रयोग का सबसे बड़ा प्रमाण तो कुरान है। कुरान में बिना लाग-लपेट कहा गया है:
“फिर जब हुरमत (पवित्र) के चार महीने गुजर जाएं तो मुशरिकों ( बहुदेववादियों या मूर्तिपूजकों ) को जहां पाओ कत्ल करो और उनको गिरफ्तार कर लो और उनको कैद करो और घात की जगह में उनकी ताक में बैठो। फिर अगर वे लोग ( अब शिर्क यानी मूर्तिपूजन से ) बाज आएं और नमाज पढ़ने लगें और जकात दें, तो छोड़ दो।” (9:5)
इस आयत के बारे में हुग केनेडी की राय है कि यह आयत अनेक मुस्लिम विजयों का आधार है और इसकी अनुगूंज अनेक देशों और शहरों द्वारा किए गए आत्मसमर्पण की कथाओं में सुनी जा सकती है।
जहां तक हिंदुओं के जातियों में विभक्त होने और इस कारण से इस्लाम को अपनाने की बात है, तो यह तर्क बहुत ही कमजोर है। यदि ऐसा होता तो देश के सारे दलित इस्लाम को अपना लेते। लेकिन सच यह है कि आज भी बड़ी संख्या में दलित हिंदू धर्म का हिस्सा हैं। दूसरा, यदि भारत की जाति समस्या ने इस्लाम को फैलने में सहायता की तो अन्य देशों में तो ऐसी समस्या नहीं थी फिर वहां क्यों इस्लाम फैला? जबकि इस हिसाब से दूसरे देशों का समाज तो भारतीय समाज से कहीं कम विभेदकारी रहा होगा। परंतु दूसरे देशों में तो कहीं अधिक आसानी से इस्लाम फैला। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत में इस्लाम तभी क्यों फैला जब मुस्लिम शासन था? जब एक बार मुस्लिम सल्तनत कमजोर पड़ गई तभी से धर्मांतरण अचानक रुक क्यों गया? क्या औरंगजेब के बाद जाति प्रथा समाप्त हो गई थी?
सच तो यह है कि सिंध पर मुस्लिम शासन आरंभ होने से लेकर औरंगजेब तक कुछ अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर समय गैर-मुस्लिमों से जजिया वसूला गया था। यह ‘कर’ अत्यंत अपमानजनक था जो बार-बार अहसास दिलाता था कि गैर-मुस्लिम व्यक्ति मुस्लिमों से बराबरी नहीं कर सकते क्योंकि वे दोयम दर्जे के हैं और चूंकि शासन दारुल-इस्लाम है इसलिए गैर-मुस्लिमों को ‘कर’ देना होगा। आर्थिक रूप से भी यह ‘कर’ एक बोझ की तरह था। इसके अतिरिक्त समय-समय पर पूरे देश में हिंदुओं, जैनों और बौद्धों के आस्था स्थलों – मंदिरों, बौद्ध विहारों आदि को तोड़ा जाता था। यदि अकबर जैसे शासकों को छोड़ दिया जाए तो हिंदुओं को ऊंचे पदों पर स्थान मिलना बहुत मुश्किल था क्योंकि ऊंचे पद मुसलमानों के लिए आरक्षित होते थे। भारत जैसे देश में जहां अनेक भाषाएं पहले से ही मौजूद थीं वहां बतौर राजकाज की भाषा फारसी थोप दी गई। ये सभी ऐसे तत्व थे जिनसे इस्लाम को अनावश्यक रूप से बढ़त मिलती थी।
मुखिया ने मध्यकाल में हिंदुओं द्वारा मस्जिदों को तोड़े जाने के कुछ उदाहरण दिए हैं। लेकिन वह भूल गए कि हिंदुओं के लिए सभी सर्वाधिक महत्वपूर्ण आस्था स्थलों — काशी, मथुरा और अयोध्या के मंदिरों को तोड़ा गया जिनका वे पुनरुद्धार भी नहीं कर सके। यदि उनमें क्षमता होती तो सबसे पहले वे यही काम करते। ये आस्था स्थल मुस्लिमों के मक्का और मदीना जितने या उनसे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। इसलिए हिंदू किस हद तक मस्जिद तोड़ने का काम कर सकते थे इसमें संदेह है।
इसी तरह मुखिया ने कुछ मुस्लिमों को हिंदू बनाने की बात की है। इस संदर्भ में उन्होंने कश्मीर का उदाहरण दिया है। यह वही कश्मीर है जहां आज नाम लेने को भी हिंदू नहीं बचे हैं। किसी समुदाय विशेष को इस तरह अपने ही देश में विस्थापित होने की घटना स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है। और यदि सचमुच मुस्लिमों को तब हिंदू बनाया गया होता तो आज मुस्लिमों की संख्या इतनी नहीं होती। इसलिए मुखिया के उदाहरण अपवाद हो सकते हैं, नियम नहीं और अब तो ये अपवाद भी अदृश्य हैं।
कोई क्यों इस्लाम को स्वीकार करे इस बारे में इब्न वराक अपनी पुस्तक “मैं क्यों मुस्लिम नहीं हूँ” में सन 1280 में एक यहूदी दार्शनिक और वैद्य इब्न कम्मुना द्वारा बगदाद में लिखी एक महत्वपूर्ण पुस्तक का उद्धरण प्रस्तुत करते हैं: “आमतौर पर लोग आतंक से, या सत्ता प्राप्त करने की इच्छा से, या भारी-भरकम करों से बचने के लिए, या अपमान से बचने के लिए, या बंदी बना लिए जाने पर, या किसी मुस्लिम महिला से प्यार हो जाने की स्थिति में ही अपना धर्म त्यागकर इस्लाम को स्वीकार करते हैं।” कम्मुना ने आगे यह भी दावा किया कि “यदि आर्थिक रूप से संपन्न कोई व्यक्ति अपने धर्म को और इस्लाम को भली-भांति जानता है तो वह अपना धर्मांतरण नहीं करेगा।”
यदि प्यार वाले कारण को छोड़ दिया जाए तो उपरोक्त सभी कारणों का संबंध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन से है। फिर भी इन कारणों से बड़े पैमाने पर धर्मांतरण संभव नहीं लगता। जहां तक प्यार वाली बात है तो इससे भी इक्के-दुक्के ही लोग धर्मांतरण करेंगे जैसा कि आज भी होता है। उदाहरण के लिए सत्रहवीं शताब्दी के कवि आलम के विषय में रामचंद्र शुक्ल अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखते हैं कि – “आलम जाति के ब्राह्मण थे पर शेख नाम की रंगरेजिन के प्रेम में फंसकर पीछे से मुसलमान हो गए और उसके साथ विवाह करके रहने लगे।” (पृष्ठ 181)
फिर भी हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि इस्लाम मध्यकाल में शासक वर्ग का धर्म था। इसलिए केनेडी का विचार है कि “इस्लाम एक आभिजात्य धर्म बन गया था। इस्लाम को अपनाने वाला व्यक्ति कम से कम सैद्धांतिक रूप से उस वर्ग का हिस्सा बन जाता था। धर्मांतरण इस प्रकार सामाजिक और व्यवसायिक सीढ़ी चढ़ने में सहायक होता था। इसी के साथ घृणित जजिया देने से मुक्ति मिल जाती थी। ग्रामीणों को शहर में आने का अवसर भी मिल जाता था क्योंकि इस्लामी दुनिया में शहर तेजी से फैल रहे थे।” अंततः केनेडी का विचार है कि “मुस्लिम अधिकारियों ने लोगों पर धर्मांतरण के लिए बल प्रयोग नहीं किया, लेकिन मुस्लिम शासन का स्वरूप ही ऐसा था जिसने लोगों को धर्मांतरण के लिए प्रोत्साहित किया। इसके अलावा मुस्लिम शासन ने गैर मुस्लिमों पर अनेक प्रतिबंध भी लगाए — जैसे खास तरह की पोशाक पहनना, हथियार नहीं रखना, घोड़े पर नहीं चढ़ना आदि, जिससे अहिंसक तरीके से उन्हें धर्मांतरण के लिए मजबूर किया गया।”
केनेडी की स्पष्ट राय है कि यह इस्लाम की सैन्य और राजनैतिक विजय ही थी जिसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों का धर्मांतरण संभव हो पाया। थोड़े-बहुत लोगों का धर्मांतरण मिशनरी तरीके से भी हुआ होगा। पर इस बारे में उनका कहना है कि बहुत जानकारी उपलब्ध है।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी प्रतिष्ठित पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में धर्मांतरण को लेकर स्थिति स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने लिखा है — “इस्लाम के क्षिप्र प्रसार पर इतिहास आश्चर्य करता आया है और लोग कहते आए हैं कि यह प्रसार इतनी जल्दी इसलिए हुआ कि इस्लाम की सहायिका तलवार थी। खड्गवाद के साथ इस्लाम का संबंध इतना गहरा समझा जाता है कि स्वयं मुसलमान कवि अकबर इलाहाबादी इसका खंडन नहीं कर सके और सिर्फ इतना ही कहकर रह गए कि—“लोग कहते हैं, तलवार से फैला इस्लाम, यह नहीं कहते हैं कि तोप से क्या फैला है।”
कुछ कुछ इसी तरह की राय केनेडी की है। उन्होंने इस्लाम तलवार से फैला या नहीं? इस बारे में लिखा है, “मेरा उत्तर विरोधाभासी होगा।” उनका कहना है —“इस्लाम तलवार से नहीं फैला, लेकिन तलवार के बिना इस्लाम नहीं फैलता।” इस प्रकार इस्लाम के फैलने में तलवार सहायिका रही है इस पर विवाद नहीं होना चाहिए। ऐतिहासिक साक्ष्यों से तो हमें यही लगता है कि बिना तलवार इस्लाम फैलता ही नहीं। इसलिए तलवार इस्लाम के लिए अनिवार्य रही है। तलवार से यहां अभिप्राय सभी प्रकार के बल से है। चूंकि इस्लाम मुस्लिम शासकों के साथ साथ फैला इसलिए मुस्लिम सत्ता से इस्लाम का अन्योनाश्रय संबंध रहा है। ईसाइयत में मिशनरी की जैसी परंपरा है ठीक वैसी परंपरा का इस्लाम में न होना भी इस्लाम की तलवार पर निर्भरता को दर्शाता है। इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलिया के इमाम तौहिदी इस्लामी ग्रंथों के आधार पर अपनी वार्ताओं में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हमें यह सत्य स्वीकार करना चाहिए कि इस्लाम के प्रसार में तलवार की अन्यतम भूमिका थी जिसमें रक्तपात भी हुआ था।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
12 नवम्बर 2018