अटल बिहारी वाजपेयी भारत के राजनैतिक क्षितिज में पिछले कई दशकों से सर्वाधिक चमकता हुआ सितारा थे। अपनी मिलनसार प्रवृत्ति, विलक्षण वाकपटुता, मनमोहक वक्तृत्वकला और असाधारण प्रतिउत्पन्नमति के कारण सारे देश में उनकी लोकप्रियता सदा आकाश को छूती रही। उनका व्यक्तित्व विशाल था और उनके व्यक्तित्व के अनेक पहलू थे। वह पत्रकार, कवि और राजनेता थे। परंतु यहां उनके व्यक्तित्व के एक छोटे से पहलू पर विचार किया जा रहा है। इस पहलू का संबंध उनके हिंदी प्रेम से है।
अटल बिहारी वाजपेयी स्वयं कवि थे और कहा जाता है कि कई बार उन्होंने अपने मन का उद्गार व्यक्त करते हुए कहा था कि वह काव्य क्षेत्र में पूरी तरह लौटना चाहते हैं। लेकिन नियति को ऐसा मंजूर नहीं था और उन्हें राजनीति में जीवनपर्यंत रहना पड़ा। फिर भी उनका कवि रूप राजनीति में भी जागृत रहा। उनका हिंदी भाषा पर प्रबल अधिकार उनकी बातों को स्पष्ट करने में और देशवासियों से जुड़ने में सदा सहायक रहा। उनकी कही बातें, जुमले, तुकबंदियां आदि लंबे समय तक लोगों को याद रहती थीं। वाजपेयी ने अपने सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में हिंदी भाषा का निरंतर प्रयोग करके यह साबित किया कि इस भाषा के बल पर भी राजनीति में शिखर पर पहुंचा जा सकता है। उनसे पूर्व किसी भी प्रधानमंत्री ने हिंदी का ऐसा व्यापक प्रयोग नहीं किया था। उनकी अनूठी वक्तृत्वकला के कारण असंख्य लोग उन्हें सिर्फ सुनने के लिए आतुर रहते थे। उनकी भाषा इतनी सधी, सटीक और नपी-तुली होती थी कि गैर हिंदी भाषी भी समझ लेते थे। उनके भाषणों में हास्य और व्यंग्य का भी पुट रहता था जिससे श्रोता उन्हें सुनकर गदगद हो जाते थे। संभवतः यही कारण है कि हिंदी का इतना व्यापक प्रयोग करने के बावजूद गैर हिंदी भाषी लोगों में भाषा को लेकर उनके प्रति कभी कोई कटुता नहीं देखी गयी। उनकी सर्वप्रियता बताती है कि इस देश में हिंदी ही वह भाषा है जिसके माध्यम से यदि कोई चाहे तो इतना जनप्रिय हो सकता है। उनकी राजनीतिक सफलता में हिंदी की सामर्थ्य भी छुपी है जिस पर हमारा ध्यान कम जाता है।
चूंकि वाजपेयी को तीन बार प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिला, जो सौभाग्य जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के अलावा किसी और प्रधानमंत्री को प्राप्त नहीं हुआ; इसलिए देश के राजनीतिक शिखर पर बैठकर उन्हें हिंदी के प्रयोग का भी अच्छा-खासा समय मिला। पर ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री बनकर ही उन्होंने हिंदी का प्रयोग किया। पहली बार प्रधानमंत्री बनने से लगभग दो दशक पहले अर्थात 1970 के दशक में जब वह जनता पार्टी की सरकार में विदेशमंत्री बने तब उन्होंने पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ में अपना भाषण हिंदी में देकर इतिहास रच दिया था।
वाजपेयी के हिंदी प्रेम को लेकर मुझे एक घटना याद आती है। घटना 1980 के दशक के उत्तरार्ध की है। हमलोग श्यामरूद्र पाठक के नेतृत्व में भारतीय भाषा आंदोलन चला रहे थे। इस आंदोलन का लक्ष्य था आईआईटी की संयुक्त प्रवेश परीक्षा में अंग्रेजी भाषा के विकल्प के रूप में भारतीय भाषाओं को स्थान दिलाना। हमारा मानना था कि देश के लगभग 90 प्रतिशत छात्र भारतीय भाषाओं में 12वीं तक की पढ़ाई करते हैं, जबकि आईआईटी में चयनित छात्रों में 90 प्रतिशत छात्र ऐसे होते हैं जिन्होंने अपनी पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम से की होती है। यह व्यवस्था भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने वालों के लिए अत्यंत अन्यायपूर्ण थी। हम इसी के विरुद्ध आंदोलनरत थे।
हम छात्रगण मानव संसाधन मंत्रालय के समक्ष शास्त्री भवन में धरने पर बैठ गए। जहां श्यामरूद्र पाठक अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे, वहीं शेष आंदोलनकारी क्रमिक अनशन पर। जब हमारा यह आंदोलन तीसरे सप्ताह में प्रविष्ट हुआ तो एक शाम डॉक्टर ने बताया कि श्यामरूद्र पाठक का स्वास्थ्य तेजी से गिर रहा है और यदि शीघ्र इनका अनशन समाप्त नहीं हुआ तो उन्हें बलात अस्पताल ले जाया जाएगा। यह सुनकर हम स्तब्ध रह गए। तब तक रात भी हो चुकी थी। फिर हमने निर्णय लिया कि इसी समय हम वाजपेयीजी से मिलने जाएंगे। इस प्रकार हम दो-तीन छात्र सामने ही अशोक रोड स्थित उनके आवास पहुंच गए, जहां उन दिनों हम अक्सर जाया करते थे।
वाजपेयीजी भोजन के बाद अपने लॉन में टहल रहे थे। हमने उन्हें श्यामरूद्र पाठक के तेजी से गिरते स्वास्थ्य के विषय में बताया और आग्रह किया कि आपको तुरंत कुछ न कुछ करना चाहिए। मुझे याद है, उन्होंने उस समय ज्यादा बात नहीं की थी और संभवतः इतना ही कहा था कि ठीक है, देखेंगे। हम निराश होकर धरना स्थल लौट आए। किसी तरह रात बीती। कल होकर हमें अलग-अलग सूत्रों से मालूम हुआ कि वाजपेयीजी ने हमारे मुद्दे को जोर-शोर से संसद में उठाया है। उनका प्रभाव इतना था कि उन्होंने इस मुद्दे पर पचास से भी अधिक विभिन्न पार्टियों के सांसदों को अपने समर्थन में कर किया। अंत में तत्कालीन प्रधानमंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा और दोपहर तक हमारी मांग मान ली गई। उसके बाद वाजपेयीजी सीधे धरना स्थल पहुंचे और श्यामरूद्र पाठक को जूस पिलाकर अनशन समाप्त करवाया। इस तरह इस आंदोलन को सफल बनाने में उनकी महती भूमिका रही।
ऐसा महान था उनका व्यक्तित्व कि हम बेधड़क उनसे मिल सकते थे और उनसे अपना काम करवाने का आग्रह कर सकते थे। वह सच्चे मन से भारतीय भाषाओं के समर्थक थे। यदि देश के स्वतंत्र होने के बाद से सभी प्रधानमंत्री वाजपेयीजी की तरह हिंदी भाषा के प्रति समर्पित रहे होते तो संभवतः हिंदी जिस पद की अधिकारिणी है उस पद पर काफी पहले से आसीन होती। इसके अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय भाषाओं का भी भला हुआ होता क्योंकि जब तक हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच अंगेजी रहेगी तब तक इस देश की किसी भी भाषा का भला नहीं होगा। स्वतंत्र भारत उनके इस अन्यतम योगदान के लिए सदा याद रखेगा और हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए जब भी इतिहास लिखा जाएगा उसमें अटल बिहारी वाजपेयी का नाम अवश्य ही स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
16 अगस्त 2018