चैत्र मास समाप्ति की ओर है। यद्यपि दोपहर के बाद तो अब सूर्यदेव अपना प्रचंड रूप दिखाने लगे हैं, परंतु प्रातः बेला अभी भी शीतल है। बालसूर्य की नयनाभिराम बेला। टहलने के लिए उपयुक्त समय। इसलिए इसी बेला में मैं घर से निकला। मार्ग केदोनों ओर गेहूँ की पकी बालियों की सुनहरी चादर ओढ़े खेत। बीच-बीच में इस सुनहरी चादर को हरे रंग के छापे से दो-रंगा बनातीं गन्ने और मक्के की फसलें। कहीं-कहीं आम के बगीचे और उनमें से छनकर बाहर आती कोयल की कूक। सड़क किनारे यत्र-तत्र रंग-बिरंगे फूलों से आच्छादित कनेर, पलाश और शिरीष के वृक्ष। प्रकृति का मनमोहक स्वरूप।
मैंने भवानीपुर गाँव की ओर रुख किया। रास्ते में पहले मझगामा मिला। छोटा सा गाँव। यहाँ हमारे खेतों में काम करने वाले जन-मजदूर रहा करते हैं। इस गाँव को पार करते हुए मुझे एक भी परिचित चेहरा नहीं दिखा। मझगामा पार करने के बाद मैंअचानक दो-रास्ते पर खड़ा हो गया। यहाँ से अनजाने में मैं भवानीपुर के रास्ते को छोड़कर दूसरे रास्ते पर आगे बढ़ गया। थोड़ी ही देर में मुझे बसतपुर और उसके बाद बंगराहा गाँव मिला। इन दोनों गाँवों को संभवतः मैंने पहली बार देखा। हमारे परिवारका संपर्क इन गाँवों से भी रहा है। अक्सर मैंने इनकी चर्चा सुनी है। बंगराहा में एक राजकीय विद्यालय देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। लगा कि यहाँ के बच्चे इस विद्यालय में पढ़ते होंगे। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के कारण गाँव-गाँव में अच्छी पक्कीसड़क हो ही गई है। अब बिजली भी अधिकतर घरों में पहुँच गई है। शिक्षा की सहज उपलब्धता से इन गाँवों की अगली पीढ़ी अवश्य शिक्षित होगी। बंगराहा से थोड़ा और आगे बढ़ने पर भवानीपुर दिखाई देने लगा। भवानीपुर मैं पहले जा चुका था। पर इसबार इच्छा थी इसे ध्यान से देखने की। भवानीपुर में अपने नाम के विपरीत एक भी घर हिंदूओं का नहीं है। यहाँ सिर्फ और सिर्फ मुसलमान ही रहते हैं। इसी तरह एक गाँव तुरकौलिया है। अनुमान से इस गाँव का नाम तुर्क और औलिया को मिलाकर बनाहोगा। पर घोर आश्चर्य की बात है कि इस गाँव में शायद ही मुसलमानों का कोई घर हो ! लेकिन चूँकि यह रास्ता भवानीपुर का चालू रास्ता नहीं था, इसलिए आगे जाना कठिन प्रतीत हुआ। सामने कोई और विकल्प न होने के कारण मैं वापस लौटने लगा।सोचा कि भवानीपुर फिर कभी जाऊँगा।
बसतपुर और बंगराहा पार करके ज्यों ही मैं मझगामा में घुसा, तो देखा कि सड़क किनारे ही थोड़ी दूर पर कुर्सी पर बैठे गौरी लोहार अपनी कुर्सी छोड़कर अपने डंडे के सहारे तेज कदमों से मेरी ओर आ रहे हैं। गौरी ने मुझे पहचान लिया था। बउआ, बउआपुकारते हुए गौरी मेरी ओर लपके। मैंने गौरी के कंधे पर अपने हाथ रख दिए। गौरी का कंठ अवरुद्ध हो गया और आँखों से आँसू छलक पड़े। फिर भी दशकों से बिछड़े अपने किसी आत्मीय से मिलने पर जो बेपनाह खुशी मिलती है उसके कारण गौरी किसीतरह बोले ही जा रहे थे, “इ नरायने के किरपा है कि बउआ के दरसन भेल। न त हम बेर-बेर सोची कि अहां के दरसन कैले बिना ही हम दुनिया से चल जाएब। इ हमरे पुन्य के फल है कि आइ बउआ के दरसन भेल।”
(“नारायण की ही कृपा है कि बउआ के दर्शन हो गए। मैं बार बार सोचता था कि बउआ के दर्शन किए बिना ही मैं दुनिया से चला जाऊँगा। यह मेरे पुण्य का ही फल है कि आज बउआ के दर्शन हो ही गए।”)
गौरी से काफी देर तक बातचीत होती रही। गौरी ने सगर्व अपने तीनों बेटों के घर दिखाए और अपना माथा ऊँचा करके बताया, “भगवान के किरपा से हमरा कोनो चीज के कमी न हय।”
(भगवान की कृपा से मुझे किसी भी चीज की कमी नहीं है।)
अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट गौरी मुझसे मिलकर आत्म-विभोर थे। मुझसे कहा, “हम केनाहितो चल के अहां के दुरा पर जाएब। अहां के दुरा पर हमरा गेल जुग बीत गेल।”
(मैं किसी भी तरह आपके द्वार पर जाऊँगा। आपके द्वार पर गए एक युग बीत गया है।)
मैं गौरी का उत्साह देखकर दंग हो गया। इस अवस्था में लगभग तीन किलोमीटर की दूरी गौरी कैसे पार करेंगे। मैंने गौरी से पूछा भी। अपनी शारीरिक क्षमता पर भरोसा करते हुए गौरी ने उत्तर दिया, “गमे-गमे चलइत दुरा पर पहुँच जाएब।”
(धीरे-धीरे चलकर द्वार तक पहुँच जाऊँगा।)
मैंने प्यार से कहा, “तोरा अतेक दूर पैदल न जाए के पड़तो। हम अपने आके तोरा ले जाएब और इहाँ पहुँचाइयो देब।”
(“आपको इतनी दूर पैदल चल के नहीं जाना पड़ेगा। मैं स्वयं आकर आपको ले जाऊँगा और वापस पहुँचा भी जाऊँगा।”)
गौरी की बाँछें खिल गईं। मैंने गौरी को आश्वस्त करते हुए कहा, “हम कोनियो बेरी आके तोरा ले जाएब।”
(“मैं किसी भी समय आकर आपको ले जाऊँगा।”)
विदा होते हुए मैंने गौरी से पूछा, “तोरा कोनो चीज के तकलीफ न न हौ ?”
(“आपको किसी चीज की तकलीफ तो नहीं है ?”)
प्रश्न सुनते ही गौरी की आँखें एक बार और छलछला गईं और रुंधे गले से गौरी ने हौले से उत्तर दिया, “हम अपना जिनगी में बहुत कुछ कइली, बहुत संपत्ति बनइली बाल-बच्चा के इहां तक पहुंचइली लेकिन वोकर सब के ब्योहार जेहन चाही तेहन न हय। बस एतने दुख हय।”
(“मैंने अपने जीवन में बहुत कुछ किया, बहुत संपत्ति अर्जित की, बाल-बच्चों को यहाँ तक पहुँचाया। लेकिन मेरे प्रति जैसा उनका व्यवहार होना चाहिए वैसा नहीं है। बस इतना ही दुख है।”)
पता नहीं गौरी को अपने बच्चों से अपेक्षा अधिक थी या सचमुच उनका गौरी के प्रति व्यवहार अच्छा नहीं था। यह जानना मेरे लिए कठिन था। वैसे मेरा अनुभव बताता है कि वृद्ध जन बड़ी कठिनाई से ही अपने बच्चों से संतुष्ट हो पाते हैं। मैंने गौरी कोआश्वस्त किया कि
“तु चिंता न करा। हमरा से जे भी होतो से हम तोरा लेल करबो।”
(“आप चिंता मत कीजिए। मुझसे जो भी बन पड़ेगा मैं आपके लिए करूँगा।”)
गौरी को आश्वस्त करके मैंने उनसे विदा ली। दिन चढ़ने लगा था। मैं घर आकर अपने कामों में लग गया। इस प्रकार दिन निकल गया और शाम हो गई। पर मैं गौरी को लेने नहीं जा सका। कल का दिन भी यूँ ही बीत गया। ऐसा नहीं था कि मैं गौरी कोभूल गया था। असल में कामों में उलझे रहने के कारण और असमय लाने में गौरी को कष्ट होगा ऐसा सोचकर मैं उपयुक्त समय तय नहीं कर सका। तीसरे दिन सुबह से ही मन बना लिया कि आज गौरी को लेने जाऊँगा। अन्यथा भी अगले दिन मुझेदिल्ली के लिए गाँव से प्रस्थान करना था, इसलिए अब इस काम को मैं टाल नहीं सकता था।
अंततोगत्वा सायंकाल अपने चचेरे भाई बबलू के साथ मैं गौरी के घर पहुँचा। गौरी अपने घर के बाहर ही कुर्सी पर बैठे मिल गए। मैंने गाड़ी रोकी और सीधे उनके पास गया। मैंने कहा, “तोरा दुरा पर ले चले लागी अइलियो ह।”
(“आपको अपने द्वार पर ले जाने के लिए मैं आया हूँ।”)
बिना एक भी पल गँवाए गौरी झट से उठ गए और साथ चलने के लिए आगे बढ़ने लगे। गौरी के पैर में न जाने अचानक कहाँ से बल आ गया। गौरी तेज डग भर रहे थे। मेरे द्वार पर जाने के उत्साहातिरेक में बोलने गले, “हमरा पूरा भरोसा रहे कि बउआ हमरा लेबे जरूर अएतन।”
(“मुझे पूरा भरोसा था आप मुझे लेने अवश्य आइएगा।”)
मैंने स्पष्टीकरण में इतना ही कहा कि “घर के काम में लागल रहला के चलते हम पहिले न आ सकलियो।”
(“घरेलू कामों में व्यस्त होने के कारण मैं पहले नहीं आ सका।”)
गाड़ी की पिछली सीट पर मैंने गौरी को बैठने को कहा। गौरी ने धीरे धीरे अपना डंडा संभाला और बैठ गए। आगे की सीट पर मेरी बायीं ओर बबलू बैठा। रास्ते में कभी मुझसे तो कभी बबलू से गौरी ने थोड़ी-बहुत बात की। हमें अपने द्वार तक आने से पहलेबाजार से होकर गुजरना था। गाड़ी में से ही गौरी ने अपने किसी परिचित को देख लिया। बच्चों जैसा उल्लसित गौरी जोर-जोर से उस आदमी को पुकारने लगे। गौरी चाहते थे कि वह आदमी उन्हें गाड़ी में बैठे हुए देखे। लेकिन संभवतः गौरी को अहसासनहीं था कि गाड़ी के सारे शीशे बंद हैं और ऐसे में मुश्किल से ही अंदर की आवाज बाहर जा पाती है। गौरी मन मसोस कर रह गए।
थोड़ी ही देर में गौरी हमारे घर के सामने खड़े थे। हमारा घर देखकर गौरी की खुशी का ठिकाना नहीं था। इतने सालों में हमारा घर बदल गया था। हमारे बदले हुए घर को गौरी सगर्व देखने लगे। मैंने गौरी को कुर्सी पर बिठाया। चाय पिलाई। फिर ताजा भुनाहुआ चिड़वा खिलाया। अंत में पानी भी पिलाया। गौरी बहुत ही धार्मिक तथा सात्विक प्रवृति के व्यक्ति हैं। खाने-पीने से पहले बर्तन के बारे में पूछते कि मांस-मछली खाने में तो इनका प्रयोग नहीं होता ? मेरे बार-बार ‘नहीं’ कहने पर ही वह आश्वस्त होते।कुछ भी मुँह में लगाने से पहले अपनी कंठीमाला (तुलसीदल की माला) के एक मनके को उससे छुआकर उसे पवित्र करते। फिर थोड़ा-सा अंश धरती माता को समर्पित करते। तब जाकर उसे ग्रहण करते।
कुर्सी पर बैठे गौरी अतीत में चले गए। कहने लगे, “हम अहां किहाँ पाँच पीढ़ी के सेवा कैले छी। अहां सब के और अहां के बाबूओजी के भी हम गोदी में खेलैले छी।”
(“मैंने आपके यहाँ पाँच पीढ़ियों की सेवा की है। आप सब को और आपके बाबूजी को भी मैंने गोद में खिलाया है।”
गौरी मेरे बाबूजी से चौदह साल बड़े हैं।
वैसे तो गौरी लोहार हैं, पर बढ़ई का काम भी बखूबी करते थे। इसलिए हमारे सभी दरवाजों, खिड़कियों, कुर्सियों, चौकियों और मेजों को निहारने लगे। इनमें से अधिकतर गौरी के ही बनाए हुए थे। गौरी निर्निमेष इन्हें देर तक निहारते रहे। जैसे बहुत दिनोंबाद किसी को अपनी ही कृतियों को देखने का अवसर मिले, कुछ वैसा ही भाव गौरी की आँखों में था। गौरी अपनी धंसी हुई आँखों से सब कुछ निहारते और बोलते रहे, “इ सब हमरे बनाएल हय।”
(“यह सब मेरा ही बनाया हुआ है।”
गौरी आज बानवे साल के हैं। उनका शरीर जर्जर को चुका है — बिल्कुल कृशकाय। ऊपर के दो ही लंबे दाँत बचे हैं। इसीलिए जब वह बोलते हैं तब बहुत कान लगाकर सुनना पड़ता है। दोनों गाल पिचक गए हैं। बदन पर उनका कुर्ता झूलता रहता है। जबमैंने होश संभाला उस समय गौरी की अवस्था चालीस और पचास के बीच की रही होगी। छह-फुटा इकहरा शरीर, पर गजब की ताकत। लंबी-लंबी बाहें और लंबे-लंबे पैर। गौरी की बाहों में इतना बल था कि एक ही चोट में वह बसूले से लकड़ी को फाड़ देतेथे। यह सचमुच लोहार की चोट होती थी। गौरी को बसूला चलाते, आरी चलाते और रंदा चलाते देखना मुझे बहुत भाता था और मैं घंटों मगन होकर गौरी को काम करते देखता रहता था। गौरी के हाथों टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ी सीधी हो जाती और उससे कुछ-न-कुछ बन जाता था। गौरी के हाथों बनती रचना या निर्माण मेरे बाल मन को बांधे रखता था।
मेरे बाबूजी लगातार महीनों गौरी से कोई-न-कोई काम करवाते ही रहते थे। इसलिए गौरी अक्सर हमारे द्वार पर ही दिन बिताते थे। लोहार होने के कारण हल, कुल्हाड़ी, कुदाल जैसे किसानी के सारे औजार बनाना और उनकी धार बनाना गौरी का मुख्यकाम था। गौरी इस काम में भी निष्णात थे। गौरी को लोहारी और बढ़ईगिरी का हुनर विरासत में मिला था। मैंने संयोगवश गौरी के पिता को भी देखा था। गौरी जैसा ही लंबा कद और वैसी ही काठी। तब वह अपने जीवन की अंतिम बेला में थे। लेकिन गौरीने अपने हुनर को और भी विकसित किया था। अनपढ़ गौरी ने अभ्यास से लकड़ी को सीधी रेखा में चीरने के लिए 90 डिग्री का कोण बनाना सीख लिया था। अपने हुनर को धार देने के लिए गौरी अनवरत कोशिश करते रहते। कभी-कभी अन्य गाँवों औरशहरों तक नए-नए काम देखने के उद्देश्य से जाते रहते थे। इसीलिए जैसा अभिमान गौरी के व्यक्तित्व में था वैसा ही गुमान उन्हें अपने हुनर का भी था।
गौरी ने अपना हुनर अपने तीनों बेटों को दिया। पर धीरे-धीरे युग बदला। किसानी का स्वरूप भी बदला। ट्रैक्टर, थ्रेशर जैसी मशीनों के आ जाने से हल, कुल्हाड़ी, कुदाल का प्रयोग घटने लगा। प्लास्टिक और लोहे के बने-बनाए फर्नीचर ने पारंपरिकफर्नीचर का स्थान लेना शुरू किया। अब गौरी के बेटों को गाँव में काम मिलने की संभावना भी घटने लगी। इसके परिणामस्वरूप गौरी के बेटों ने दिल्ली, पुणे, मुंबई आदि शहरों की ओर रुख किया। अपने लंबे जीवन काल में गौरी ने ठीक-ठाक संपत्तिअर्जित की थी। परंतु उनके बेटों ने अधिक कमाया। कालांतर में तीनों बेटों के पक्के मकान बन गए। अक्सर गाँव से बाहर रहने के कारण गौरी के बेटों का हमारे घर से मालिक और लोहार का रिश्ता नहीं बन पाया। लेकिन गौरी सदा मन-ही-मन अपनेमालिक और लोहार के रिश्ते को जीते रहे।
गौरी स्वभाव से बहुत ही स्वाभिमानी रहे हैं। मुझे याद है यदि मेरे बाबूजी का कोई व्यवहार गौरी को पसंद नहीं आता था, तो वह बोल देते थे। तय मजदूरी में किसी तरह की कटौती या भुगतान में विलंब गौरी को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं था। गौरी का हृदयएक कलाकार के हृदय जैसा था। जब उन्हें कोई बात चुभ जाती तब बड़ी मुश्किल से ही मानते थे। गौरी का यह स्वाभिमानी स्वभाव आज भी बरकरार है।
गौरी के बूढ़े हो जाने और उनके बेटों के गाँव छोड़कर बाहर जाने के कारण बाबूजी एक दूसरे लोहार — रामदेव पर निर्भर रहने लगे। हमारे घर में रामदेव लोहारी और बढ़ईगिरी के अतिरिक्त विविध प्रकार के काम करने लगा। जैसे-जैसे रामदेव काकार्यक्षेत्र बढ़ता गया वैसे-वैसे बाबूजी की रामदेव पर निर्भरता भी बढ़ती गई। रामदेव सुबह हमारे घर आता और देर रात तक काम से मुक्त नहीं हो पाता था। बाबूजी रामदेव से सिर्फ काम ही नहीं करवाते, बल्कि उससे दुनियाभर की बातें भी करते। दोनोंकी बातचीत कुछ इस तरह होती कि बाबूजी बोलते रहते और रामदेव सिर्फ ‘हां’ और ‘हूं’ बोलकर उनका साथ देता। इस प्रकार रामदेव बाबूजी का सेवक-सह-सखा हो गया। बाबूजी की मृत्यु तक रामदेव ने अपनी भूमिका बखूबी निभाई। मृत्यु के बाद भीबाबूजी के दाह-संस्कार से लेकर श्राद्ध और साल बीतने पर उनकी पहली बरसी तक रामदेव का साथ हमारे परिवार को मिला।
परंतु अपने घर में बुढ़ापे का जीवन जीते गौरी को यह बात बिल्कुल नहीं भाती थी कि आखिर रामदेव ने हमारे घर से गौरी को अपदस्थ कर दिया है। आज हमारे द्वार पर बैठ कर गौरी की यह पीड़ा बाहर आ ही गई। गौरी ने कहा, “जब मालिक के बरखी के भोज के लेल रामदेव आएल हमरा न्योता देबे तब हम पूछली कि तू के हमरा न्योता देबे वाला ? अगर मालिक के घर के लोग के हम याद होयब त ऊहे हमरा न्योता देतन।”
(“जब मालिक की बरसी के भोज के लिए रामदेव मुझे न्योता देने आया तो मैंने पूछा ‘तुम कौन हो न्योता देने वाले ? यदि मालिक के घरवालों को मैं याद होऊंगा तो वे स्वयं मुझे न्योता देंगे।”’)
गौरी की यह बात एक तीर की तरह मेरी छाती में धँस गई। मुझे लगा कि गौरी को स्वयं न्योता न देकर और रामदेव को इस काम के लिए गौरी के पास भेजकर हमने कितनी बड़ी गलती की। एक अपराधी की तरह मैं गौरी की बातें सुनता रहा। मैं किसी भीप्रकार की सफाई देने लायक नहीं था। मैं निर्वाक, नि:शब्द बस गौरी को देखता रह गया। गौरी हमारे घर के इतने करीब रहे थे कि उन्होंने मुझसे पूछा भी कि “रामदेव हमरा बिसय में कोनो बात त न करइअ ?
(“रामदेव मेरे विषय में कोई बात तो नहीं करता ?”)
मेरे “नहीं” में उत्तर देने पर गौरी को संतोष हुआ गौरी इस उम्र में भी अतीत के अपने पद और अपने स्थान के प्रति इस हद तक संवेदनशील होंगे, मैं सोच भी नहीं सकता था। हमारा स्वभाव है कि जब तक कोई व्यक्ति हमारे काम का है तब तक ही वहहमारी स्मृति में रहता है। इसके विपरीत जो भी वृद्ध हो गया और जिसका योगदान अब अतीत की बात हो गई, हम उसे अपनी स्मृति से निकाल देते हैं।
खिला-पिलाकर मैंने गौरी के गले में एक नया गमछा डाल दिया। गौरी की खुशी देखने लायक थी। मैं भी इतना खुश हुआ कि गौरी से कहा कि “हम तोहर एगो फोटो लेबे के चाहइछी।”
(“मैं आपकी एक तस्वीर लेना चाहता हूँ।”)
मेरे इतना कहते ही गौरी ने तपाक से पूछा कि “फोटो लागी खड़ा हो जाउ कि बइठले रहु ?”
(“फ़ोटो के लिए खड़ा हो जाऊँ या बैठा ही रहूँ।”)
गौरी के इस बाल-सुलभ व्यवहार को देखकर मैं पुलकित हुआ। तस्वीर लेने के बाद मैंने गौरी को गाड़ी में बिठाया और उनके घर के लिए प्रस्थान किया।
गाड़ी चलाते हुए मैं सोचने लगा कि जब से गौरी को अपने घर लाने का निर्णय किया था तब से मन में एक भाव जग गया था कि गौरी को गाड़ी में बिठाकर अपने घर लाऊँगा और उनका इतना स्वागत-सत्कार करूँगा कि उन्हें अभिभूत कर दूँगा और एकतरह से बड़ा बन जाऊँगा। मुझे रह-रहकर अपने बड़प्पन का गुमान भी होने लगा था। लेकिन गौरी द्वारा हमारी एक गलती की ओर इशारा करने से अचानक मुझे लगा कि गौरी के विशाल व्यक्तित्व के सामने मेरा व्यक्तित्व कितना छोटा, कितना बौनाहै ! एक क्षण में ही मेरे बड़प्पन का भाव तिरोहित हो गया। कपूर की तरह उड़ गया। गौरी के लिए कुछ करने की जगह मुझे लगा कि मैंने तो अपने किए का प्रायश्चित्त ही किया है।
गौरी का मेरुदंड सदा तना रहा है। ईश्वर की असीम कृपा है कि आज भी गौरी झुक कर नहीं चलते। गौरी ने कभी किसी से कुछ भी अनधिकार नहीं माँगा। जो कुछ भी लिया साधिकार लिया। ठसक से जीवन जीना उनकी विशेषता रही है।
गौरी के जब घर पहुँचा तो उन्होंने मुझे बैठने के लिए कुर्सी दी। फिर बातचीत होने लगी। गौरी तुरंत उठकर अंदर गए और लौटकर एक लंबी-सी माला ले आए। इस माला के प्रत्येक मनके पर राम नाम अंकित था। गौरी ने भक्ति-भाव से ओत-प्रोत होकरबताया कि “हम रात-दिन राम नाम जपइत रहइ छी। आ इ राम नाम के ही परताप हय कि सब कुछ ठीक ठाक चल रहल हय।”
(“मैं दिन-रात राम नाम जपता रहता हूँ। इस राम नाम का ही प्रताप है कि सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है।”)
मेरी निगाह पास ही रखी सिलाई मशीन पर पड़ी। मैंने पूछा, “एकरा कोन चलबइअ ?”
(“इसे कौन चलाता है ?”)
गौरी ने उत्तर दिया, “हमर पतोह आ पोती। हमर पतोह दिल्ली से सिआइ सीख के आएल हय आ बहुत निम्मन कपड़ा सिअइअ।मगर हम दुन्नु के बता देले छी कि केवल लेडीज कपड़ा सिए के हव। जेंट्स कपड़ा कहियो न सिए के हव।”
(“मेरी बहू और पोती। मेरी बहू दिल्ली से सिलाई सीख कर आई है और बहुत अच्छी सिलाई करती है। लेकिन मैंने दोनों को बता दिया है कि सिर्फ लेडीज कपड़े सिलना। कभी भी जेंट्स कपड़े मत सिलना।”
इस बात पर और भी बल देते हुए गौरी ने कहा,
(हम एकरा दुन्नु के कहियो जेंट्स कपड़ा न सिए देबइ।”)
(“मैं कभी भी इन्हें जेंट्स कपड़े सिलने की अनुमति नहीं दूँगा।”)
मुझे समझते देर नहीं लगी कि गौरी के लिए धन-दौलत से मान-मर्यादा कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
मैं जब चलने को उठा तो गौरी को संभवतः लगा कि जीवन के इस संध्या काल में जो सपने जैसा सख मिल रहा था उसका कठोर अंत होनेवाला है। गौरी रोने लगे। उन्हें रोता देखकर मेरा गला भर गया। मैंने बमुश्किल गौरी को ढाढ़स बंधाने के लिए उनकेकंधे पर हाथ रख दिए। उसके बाद तो गौरी के आँसुओं का जैसे सोता ही फूट पड़ा। मैं गौरी को आश्वासन देकर कि “तु कोनो चिंता न करिहा आ अगर कोनो बात के जरूरत पड़तो त हम जरूर ओकरा पूरा करबो” (“आप किसी भी तरह चिंता नहीं कीजिएऔर अगर किसी बात की जरूरत हुई तो मैं उसको पूरा करने की भरसक कोशिश करूँगा”) आगे बढ़ा। गौरी की ओर पीछे मुड़कर देखने का साहस मुझमें नहीं था। कुछ देर तक गौरी के सिसकने की आवाज आती रही। मुझे यह भी लगा कि गौरी की बूढ़ीआँखें मुझे ही देख रही हैं। सोचा गौरी को अंदर से लग रहा होगा अब शायद ही हमारी फिर मुलाक़ात हो ! मेरे साथ मेरे एक चाचा का दस साल का नाती यानी मेरा भांजा था। उसका बाल हृदय इस दृश्य को देखकर पिघल गया। उसने कहा, “मामा, मामा,देखिए, ये तो आपके लिए बुरी तरह रो रहे हैं। मैं उसे कुछ भी नहीं कह सका। उसके कंधे पर धीरे से मैंने अपना एक हाथ रख दिया।
इस समय गौरी के लिए मशहूर शायर बशीर बद्र का एक लोकप्रिय शेर याद आया:
“उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में जिंदगी की शाम हो जाए।”
इतने लंबे जीवन को जी लेने के बाद गौरी कभी भी इस दुनिया को अलविदा कह सकते हैं। परंतु जिस स्वाभिमानी गौरी को पीछे छोड़कर मैं जा रहा था उसकी कमी हमेशा महसूस की जाएगी।
लौटते हुए गाड़ी में अन्यमनस्क-सा बैठा मैं सोचने लगा। न जाने इस दुनिया में कितने ही गौरी होंगे जिनके दिलों में कितनी ही बातों की खलिश जमी होगी और जो इस इंतज़ार में होंगे कि कोई उनके दिलों को सहलाने के लिए आएगा।
गौरी से मिलकर और उनकी बातें याद करके मैं अंदर से हिल जाता हूँ। क्या होगा इतने अभिमानी व्यक्ति का जब वह चलने-फिरने में अक्षम हो जाएगा। जो व्यक्ति अपनी पद-प्रतिष्ठा, मान-मर्यादा, धार्मिकता-नैतिकता को लेकर इतना सजग और एककलाकार की भाँति संवेदनशील है, उसके लिए थोड़ा-सा भी अपमान, थोड़ी-सी भी उपेक्षा असह्य होगी। और अगर ऐसा हुआ तो वह अपनी मौत से पहले ही मर जाएगा। अनायास मैंने ईश्वर से विनती की कि वह गौरी के मान-सम्मान की रक्षा करे।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
25 अप्रैल 2019