एक दिन वसंत वाटिका में सुबह की सैर करके जब मैं घर लौट रहा था तो दाहिने तलवे में थोड़ा दर्द महसूस हुआ। घर में कुर्सी पर बैठकर जब दाहिने पैर का जूता उतारकर देखा तो पाया कि जूते की तल्ली का अग्रभाग घिसकर एक स्थान पर गड्ढे जैसा बन गया है। मोजे को देखा तो उसी स्थान पर उसमें छेद दिखा। जोड़ेवाली चीजों के साथ समस्या यह है कि एक बेकार हुई तो दोनों ही बेकार। इस प्रकार जूतों के साथ- साथ मोजे भी बेकार हो गए। दिल बैठ गया। मन खिन्न हो गया। अभी अधिक दिन नहीं हुए थे इन जूतों को खरीदे हुए। एक साथ अनेक विचार मस्तिष्क में घूमने लगे।
ऐसे जूते खरीदने के अपने निर्णय पर ही संदेह होने लगा। मैंने तो ब्रांडेड जूते खरीदे थे। इसलिए ब्रांडेड विदेशी कम्पनियों को कोसने लगा। इतने महंगे जूते और चंद महीनों में इसकी तल्ली में गड्ढा ! सोचने लगा क्या करूं ? क्या दुकान जाकर शिकायत करूं या फिर से नए जूते खरीदूं ? अचानक मस्तिष्क में एक विचार कौंध गया। मन थोड़ा हल्का हुआ। याद आया कि पास ही मोची की एक दुकान है। क्यों न उसे दिखाया जाए। क्या पता उसके पास कोई ऐसा उपाय हो, जिससे जूता ठीक हो जाए। हमारे वसंत कुंज के एक मुख्य मार्ग की बायीं ओर एक तिराहे के पास मोची की एक दुकान है। मैं वहीं चला गया। दुकान क्या है, किसी भी तरह दो लोगों के बैठने के बराबर की जगह बना दी गई है। छत के नाम पर एक प्लास्टिक है और प्लास्टिक से ही दुकान को तीन तरफ से ढक दिया गया है। पत्थर की पटिया पर कपड़े की गद्दी रखकर मोची बैठता है और बगल में दो-दो ईंटों के सहारे लकड़ी की एक पटरी रखी गई है जिस पर जूते-चप्पल पहनने के लिए ग्राहक बैठते हैं। परंतु पटरी इतनी छोटी है कि एक बार में एक ही ग्राहक बैठ पाता है। मोची से किसी चमत्कार की आशा में मैं उस दुकान में जाकर पटरी पर बैठ गया। पटरी पर बैठते ही एक ही सांस में मोची को अपनी व्यथा-कथा कह सुनाई। मोची ने इतने प्यार से जूते को अपने हाथों में लिया जैसे कोई प्रौढ़ व्यक्ति बड़े स्नेह से किसी शिशु को हाथों में ले या कोई डॉक्टर अत्यंत
आत्मीयता से किसी रोगी को देखे। जूते को ठीक से निहारकर थोड़ी ही देर में मोची ने कहा कि ‘साहब, इसकी तल्ली बदलनी पड़ेगी।’ मेरे पूछने पर कि ‘क्या आपकी तल्ली काम करेगी ?’ मोची ने आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘आपको लगेगा ही नहीं कि जूते में कुछ हुआ है। यह जूता बिल्कुल नए जैसा हो जाएगा। हां, इतना जरूर है कि दोनों जूतों की तल्लियां बदली जाएंगी।’ मेरे पास कोई और चारा तो था नहीं सिवाय इसके कि मैं ‘हां’ में उत्तर देता।
मोची पूरे मनोयोग से काम करने लगा। रबर की एक बड़ी-सी शीट निकाली। उसमें से धीरे-धीरे करीने से जूते के नाप के बराबर तल्लियां काटीं और उन तल्लियों को जूतों में फिट करने में जुट गया। जिस एकाग्रता से मोची काम कर रहा था उसे देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैंने एक साथ उससे ढेरों प्रश्न कर डाले। आपका नाम क्या है, कहां के रहने वाले हैं, कब से वसंत कुंज में हैं, कितनी कमाई हो जाती है आदि-आदि ?
मोची ने मद्धिम आवाज में और थोड़ा अन्यमनस्क-सा उत्तर देना शुरू किया। संभवतः मोची इतने व्यक्तिगत प्रश्नों के लिए तैयार नहीं था। अभी मोची ने बोलना शुरू ही किया था कि उसके सामने एक सब्जीवाले ने अपना ठेला खड़ा कर दिया क्योंकि दूर से किसी ने उसे सब्जी लेने के लिए आवाज दी थी। इसलिए वह जहां था वहीं रुक गया। एकाएक मोची अपनी पटिया से उठा और काफी झुककर दुकान से दनदनाते हुए बाहर निकल गया। दुकान की छत मुश्किल से चार फीट की ऊंचाई पर थी इसलिए अच्छा- खासा झुककर ही इसके बाहर निकला जा सकता था। मोची ने उस सब्जीवाले के पास
जाकर ऊंची आवाज में कहा कि ‘तुम्हें दिखाई नहीं देता कि पीछे मेरी दुकान है। मेरी दुकान घेर कर खड़े हो। बताओ ! आते-जाते किसी को मेरी दुकान ही न दिखे तो आखिर कोई मेरी दुकान पर आएगा कैसे ?’ सब्जीवाले ने बिना बहस किए अपने ठेले को थोड़ा आगे की ओर सरका दिया। अपनी जीत पर प्रसन्न लेकिन थोड़ी शिकायती मुद्रा में मोची मेरी ओर मुंह करके लौटते हुए बोला, ‘देखिए साहब, सिर्फ दो सौ कदम पर दूसरे मोची की दुकान है। अगर मेरी दुकान किसी को न दिखे तो उसे क्या, वह आगे बढ़कर दूसरे मोची के पास चला जाएगा। लेकिन इससे मेरा तो भट्ठा ही बैठ जाएगा।’ मेरे ‘बिल्कुल सही बात है’ कहने पर मोची को तसल्ली हुई कि उसने जो कुछ किया, सही किया।
अब तक मैंने मोची को बैठे हुए ही देखा था। अब खड़े होकर और चलते हुए देखा। मोची मुझे छह-फुटा छरहरा आदमी लगा। हथेली इतनी लंबी कि शायद ही कोई जूता उससे बाहर जा सके। मोची ने सफेद कुर्ता और पैजामा पहना हुआ था। दोनों ही कपड़े बिल्कुल धवल। यदि बाएं हाथ पर पॉलिश की कालिख न लगी हो तो इस आदमी को देखकर कोई मोची नहीं कहेगा। मोची की उम्र साठ के ऊपर ही होगी। सर और मूछों के बाल लगभग सफेद। रंग गहरा सांवला। शरीर में गजब की फुर्ती। बातचीत का ढंग थोड़ा परिष्कृत। कुल-मिलाकर अपने रंग-ढंग से मुझे ऐसा लगा कि यह मोची अन्य मोचियों से अलग है।
मेरे सामने अब एक कठिन समस्या खड़ी हो गई कि कैसे अपने प्रश्न दुहराऊं और कैसे मोची अपनी पुरानी मन:स्थिति में लौटे कि बात शुरू हो। मैं थोड़ी देर मौन रहा। मोची ने ही बात शुरू की — ‘साहब, मेरा नाम जीते है और मैं राजस्थान के झुनझुनू जिले का रहनेवाला हूं। मेरे जनम से पहले मेरे कई भाई-बहन अपने जनम के कुछ ही समय बाद गुजर गए थे। इसलिए मेरे मां-बाप ने मेरा नाम ही जीते रख दिया ताकि मैं जिंदा रहूं। मेरे बाप ने मुझे आठवीं तक पढ़ाया। लेकिन मेरी किस्मत खराब थी क्योंकि तभी मेरे बाप की मौत हो गई। घर में सिर्फ मेरी मां थी। उसकी देखभाल मेरे कंधों पर आ गई। मैं छोटा बच्चा, मुझे कोई काम आता नहीं था। बाप को जूते-चप्पल की मरम्मत करते देखा था, पर वह भी मैं सीख नहीं पाया था। अब मरता क्या न करता ! मैंने पढ़ाई छोड़ दी और गांव के जो बड़े जूते-चप्पल की मरम्मत करते थे उनके साथ काम
करने लगा। थोड़े ही समय में इस काम में मेरा हाथ साफ हो गया। मैं थोड़ा-बहुत कमाने लगा और घर-गिरहस्ती चल निकली।’मैंने बात को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से कहा कि ‘अगर आपके पिता जीवित रहते तो आपकी पढ़ाई चलती रहती। लेकिन परिस्थिति ने छोटी उम्र में ही आपको परिवारपालक बना दिया।’ जीते ने उत्तर दिया कि ‘हां साहब, वो तो ठीक है, लेकिन अभी ज्यादा समय नहीं बीता था कि मेरी मां के ऊपर मेरी शादी का भूत सवार हो गया। वह बार-बार कहती, ‘अब मेरी भी उमर हो रही है। कब तक मैं ही झाड़ू-बुहारु, चौका-बरतन करती रहूंगी ? मेरा भी मन होता है कि कुछ आराम मिले और घर में कोई बात करनेवाला भी हो। मन बहलाने के लिए मैं कब तक दूसरे घरों में जाती रहूं ? घर में बहू आएगी तभी तो बाल-बच्चे आएंगे। घर भरा-भरा लगेगा। जब तुम घर से बाहर जाते हो तो घर भूत का घर लगने लगता है।’ इतनी बातें सुनने पर भी जीते के कानों पर जुं नहीं रेंगती। जीते अपनी मां की बात सुनकर भी अनसुना कर देता। लेकिन मां भी हार माननेवाली नहीं थी। उसने धीरे-धीरे अपने सगे-संबंधी, अड़ोसी- पड़ोसी सबको समझाना शुरू किया। माहौल जीते की मां के पक्ष में बनने लगा। जीते का पलड़ा हल्का होने लगा और अंततः जीते की मां की जीत हुई और जीते को मां के आगे समर्पण करना पड़ा। जीते के शब्दों में कहें, तो — ‘साहब, रोज-रोज एक ही बात सुन-सुनकर मेरे कान पक गए थे। इसलिए ऊबकर एक दिन मैंने अपने हाथ खड़े कर दिए।’
सीमित साधनों के साथ जीते का विवाह हुआ। पास के गांव की ही लड़की थी — लगभग अनपढ़। जीते के हिसाब से बेमेल विवाह क्योंकि जीते स्वयं को पढ़ा-लिखा मानता था। लड़की का नाम था झुनिया। जीते ने बताया कि असल में झुनिया जब
बहुत छोटी थी तो हर समय झुनझुना पकड़े रहती थी। जब भी कोई हाथ से झुनझुना लेता तो रो पड़ती, इसलिए घरवालों ने झुनझुनिया नाम रख दिया जो बाद में चलकर सिर्फ झुनिया हो गया। विवाह के समय जीते की उम्र थी अठारह साल और झुनिया की सोलह। जीते की तरह ही झुनिया भी दुबली-पतली और छरहरी थी। उसके नाक-नक्श अच्छे थे पर रंग थोड़ा दबा-सा था। हर हिसाब से झुनिया मनमोहक थी और स्वभाव से हंसमुख। जहां झुनिया को पाकर जीते की मां की जैसे सारी मुराद पूरी हो गई, वहीं जवान जीते को तो एक नई रहस्यमयी दुनिया ही मिल गई। एक ऐसी दुनिया जिसके बारे में अभी तक उसने उड़ती-उड़ती बातें ही सुनी थीं। उसे पहली बार स्त्री के सान्निध्य सुख की अनुभूति हुई। उसे झुनिया के सभी अंगों का अर्थ और महत्व समझ में आने लगा। वैसे तो झुनिया अर्थाभाव के कारण मामूली श्रृंगार ही कर पाती थी, लेकिन
इतने कम श्रृंगार पर भी झुनिया का यौवन सौंदर्य देखने योग्य था। दिन में काम करते समय जब उसके मुंह पर पसीने की बूंदें छलक जाती थीं तो जीते उसे अपलक देखता रहता था। झुनिया की कोमल और पतली गर्दन से होकर जब पसीने की बूंदें ढुलक जाती थीं तब तो जीते के शरीर में कंपन-सी उठने लगती। जब झुनिया की बगलें पसीने से तर हो जातीं तब तो जीते की दीवानगी और बढ़ जाती। जब झुनिया अपनी बड़ी-बड़ी आंखों में काजल लगा लेती तब तो जीते को वे आंखें और भी बड़ी लगने लगतीं। जीते सोचने लगता कितनी बड़ी-बड़ी आंखें हैं, जैसे सारा जहां हों और मैं उनमें डूब जाऊं।
नई नवेली दुल्हन — झुनिया के हाथों में चूड़ियां, पैरों में पायल और पैरों की उंगलियों में बिछिया होती। रात में जब वह अपनी सास और पति को खिला देती और बाकी काम भी निपटा देती तब अपने मुंह और हाथ धोकर अपने कमरे की ओर आने लगती। दूर से पास आती चूड़ियों की खनक और पायल की रुनझुन से जीते का मन व्याकुल हो उठता। विनोद कक्ष में प्रवेश करने पर झुनिया चाहती कि आराम से अपना गीला मुंह और हाथ पोंछ ले। लेकिन जीते के पास इतना धैर्य कहां होता ! झुनिया कहती भी कि थोड़ी देर तो रुको। पर जीते कहता कि तुम्हारा गीला चेहरा मुझे ज्यादा अच्छा लगता है।
कभी-कभी झुनिया चाहती कि यदि उसके पास सामर्थ्य होती तो वह भी इत्र-गुलेल लगाती जिससे उसका बदन भी हकता। फिर भी अपनी ओर से कोशिश करके वह कभी गेंदे तो कभी कनेर के फूल अपने बालों में खोंस लेती। रात में जब वह जीते की बाहों में आती तो फूल बालों से निकलकर बिस्तर पर बिखर जाते और विनोद कक्ष सुगंधित हो उठता। इसी तरह झुनिया कभी-कभी बालों में सुगंधित तेल लगा लेती। पर जीते को इस सब से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। वह तो झुनिया के बदन की गंध का दीवाना था। यही गंध उसे दीवानगी की हद तक पहुंचा देती थी। हां, उसे अच्छा लगता कि झुनिया के होंठ सदा लाल और तर रहें। झुनिया अपने होंठों को लाल रखने के सारे जतन करती। कभी-कभी शाम को वह पान भी खा लेती। उसके लाल-लाल होठों पर जीते लट्टू हो जाता। जीते कहता भी कि न जाने क्या छिपा है तुम्हारे होठों में !
पर जीते को रात में अपने विनोद कक्ष में पहले ही चले जाकर अपनी सेज पर लेटना और झुनिया की प्रतीक्षा करना सबसे अधिक भाता था। वह दिनभर इसी क्षण की प्रतीक्षा करता रहता। झुनिया सारे काम निपटा कर कक्ष में प्रवेश करती। जीते जब उसे बाहों में लेता तो पसीने में सनी स्त्री-गंध से जीते का सारा शरीर हिलोरें लेने लगता। जीते की नसों में तरंगें प्रवाहित होने लगतीं। मद्धिम रोशनी में वह झुनिया की बंद आखें देखता और उसका यौवन निहारता। झुनिया तो जीते की बाहों में आते ही मोम हो जाती। जीते और झुनिया एकमेव हो जाते। झुनिया की सारी थकान मिट जाती। इस प्रकार जीते और झुनिया अपनी इस नई दुनिया के आनंदरूपी समुद्र में डूबते-उतरते रहे। झुनिया जीते की हर इच्छा को पूरा करने के लिए जी-जान लगा देती। इधर जीते मन ही मन पुलकित रहता कि झुनिया उसका कितना खयाल रखती है।
दूसरी ओर कालचक्र अपनी गति से चलता रहा और जैसी जीते की मां की अभिलाषा थी घर में एक बालक उत्पन्न हुआ। अब घर का स्वरूप ही बदल गया। घर में चहल- पहल होने लगी। सभी बालक के लालन-पालन में लग गए। अभी यह बालक दो वर्ष का भी नहीं हुआ था कि दूसरा बालक आ गया। जीते की मां तो अब फूले नहीं समाती थी। वह बार-बार कहती – ‘एक बच्चा भी कोई बच्चा होता है। आखिर बच्चे के खेलने के लिए भी तो बच्चा चाहिए।’ पर गाड़ी दूसरे बच्चे पर भी नहीं रुकी। इस बार घर में एक कन्या प्रविष्ट हुई। जीते की मां तो इस बार और ज्यादा खुश हुई। वह कहा करती कि‘बिना बेटी के भी कोई घर होता है ! सिर्फ पापी के ही बेटी नहीं होती। धरम-करम वाले के घर बेटी जरूर होती है। अब जाकर मेरा घर पूरा हुआ है।’
जीते अतीत से बाहर आते हुए बोले — ‘साहब, तीन बच्चों के जनम जाने के बाद मेरा मन परेशान रहने लगा। न रात को नींद आती थी और न दिन में चैन। मेरी परेशानी झुनिया समझ नहीं पा रही थी। वह तो तीनों बच्चों में उलझी और उसी में मगन रहती थी। मेरी मां का भी यही हाल था। मैं घंटों सोचा करता कि क्या मेरे बच्चे मेरी तरह ही जूते-चप्पल सिएंगे या पढ़-लिखकर कुछ और करेंगे ?’ जीते ने पानी की बोतल उठाकर पानी पीकर कहा — ‘साहब, मैंने ठान लिया कि मेरे बच्चे पढ़ेंगे और उसके लिए मैं कुछ भी करूंगा।’
इस बीच जीते की दुकान के आगे एक ऑटो आकर खड़ा हो गया। जीते सब कुछ भूलकर उसे जोर-जोर से बोलने लगे कि ‘तुमने हमारी दुकान के आगे ऑटो क्यों खड़ा किया ?’ ऑटोवाले ने जीते को अनसुना कर दिया। अब जीते का क्रोध बढ़ गया। जीते बोलने लगे, ‘बताइए साहब, किसी बड़ी दुकान के आगे कोई इस तरह ऑटो खड़ा कर सकता है ? मोची की दुकान क्या दुकान नहीं होती ?’ यही सब बोलते हुए वह ऑटोवाले के पास चले गए । अब ऑटोवाले को जीते की बात माननी पड़ी और उसने ऑटो आगे बढ़ा लिया। जीते लौट आए। पर उनका मूड बदल चुका था। मैंने भी बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा। इसलिए जूते लेकर मैं घर वापस आ गया। कई दिनों बाद एक बार फिर मुझे जीते के पास जाने का अवसर मिला। हुआ यह कि मेरी बेटी की सैंडिल टूट गई थी और जब मैंने उससे पूछा कि क्या इस सैंडिल की मरम्मत करवाओगी ? तो उसने कहा, ‘हां, करानी तो है। पर मैं मोची के पास जा नहीं पा रही हूं।’ मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं, मैं ही मोची से बनवा दूंगा।’ सैंडिल लेकर मैं जीते के पास चला गया और आराम से पटरी पर बैठ गया। देर तक इधर-उधर की
बातें करने के बाद मैं पिछली कड़ी जोड़ने की कोशिश करने लगा। जीते ने बोलना शुरू किया, ‘अपने बच्चों का भविष्य बनाने के लिए मैंने अपने गांववालों से बात की। कई लोगों ने तो मुझे बेबकूफ समझा। पर कइयों ने कहा कि ‘देखो गांव में रहकर तो तुम इतना नहीं कमा पाओगे कि बच्चों को पढ़ा सको। हां, अगर शहर निकल जाओ तो कुछ बात बन सकती है।’ जीते का गांव झुनझुनू जिले में पड़ता था, इसलिए उनके सामने यही रास्ता था कि या तो पास ही जयपुर जाएं या थोड़ी दूर पर दिल्ली। जीते ने सुन रखा था कि दिल्ली बहुत बड़ा शहर है और वहीं अधिक कमाई हो सकती है, इसलिए जीते ने दिल्ली का रास्ता चुना ।
यद्यपि जीते के लिए अपना गांव, अपना पैतृक घर और अपनी पत्नी को छोड़ना एक ऐतिहासिक और युगांतरकारी निर्णय था, परंतु जवान जीते को अपनी प्रिया से दूर रहने का बिछोह सबसे अधिक पीड़ादायक प्रतीत हुआ। न तो अभी जीते और झुनिया के विवाह के ही बहुत साल हुए थे और न ही उनकी ऐसी कोई अवस्था ही थी। मैं सोचने लगा कि अपनी प्रिया के सुख से वंचित होने का जीते द्वारा लिया गया निर्णय क्या भगवान राम द्वारा लोक-लाज से बचने के लिए सीता का त्याग करने के बाद के पत्नी वियोग से कम था ? क्या महाकवि कालिदास के प्रसिद्ध महाकाव्य मेघदूत के यक्ष की विरह-वेदना से किसी भी अर्थ में जीते की विरह-वेदना कम थी ?
अंततः जीते अपने चंद औजारों के साथ दिल्ली के लिए चल पड़े। आरंभ में वह वसंत कुंज के पास ही महिपालपुर में सड़क किनारे अपनी दुकान लगा दी। श्रमसाध्य काम करने के आदी जीते थोड़े ही दिनों में एक अच्छे मोची के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए। जो भी एक बार जीते से जूते-चप्पल मरम्मत करा कर ले जाता या जूते पॉलिश करा लेता, वह बार-बार जीते के पास ही आता। अभी कुछ वर्ष ही हुए होंगे कि वसंत कुंज बसने लगा। जीते को मालूम था कि यहां पढ़े-लिखे और संपन्न लोग बसाए जाएंगे। इसलिए जीते ने वसंत कुंज में अपनी दुकान सजा दी। यह दुकान जीते के लिए कल्पतरु सिद्ध हुई। जीते जैसा फल मांगते मिल जाता। या फिर कामधेनु कहिए। जीते जब चाहते उन्हें मनचाहा फल मिल जाता। झुनझुनू में पढ़ रहे बच्चों कि मांगें और फरमाइशें बढ़ती जा रही थीं और जीते कमर-तोड़ मेहनत करके उन्हें पूरा कर रहे थे। बच्चों की किताब-कापी, बस्ते, टिफिन के डब्बे, स्कूल के यूनीफ़ॉर्म, परीक्षा की फीस आदि के लिए पैसे की मांग आती रहती और जीते पैसे भेजते रहते ।
जीते अपने ऊपर न के बराबर खर्च करते। एक छोटी-सी कोठरी किराए पर। उसी में रसोई। जीते सुबह ही नाश्ता और दोपहर का भोजन एक साथ बना लेते। नाश्ता तो वह अपनी कोठरी में ही खा लेते पर दोपहर का भोजन बांध कर साथ ले जाते जिसे
वह दुकान पर खाते। रात का खाना जब दुकान से लौटते तब बनाते। खाना बिल्कुल सादा होता। आमतौर पर जीते रोटी और दाल बनाते क्योंकि यही उन्हें सबसे आसान लगता। कभी-कभार ही सब्जी बनाते। जीते के लिए दिन का समय बहुत अच्छा
बीतता। दिन में लगातार ग्राहक आते रहते और वह काम में व्यस्त रहते। काम की एकाग्रता तभी भंग होती जब उन्हें पानी पीना होता या पानी लेने के लिए दूसरी दुकान जाना होता। जब कभी थोड़ा अवकाश मिलता तो जीते बीड़ी पीते। यही वह
समय होता जब वह पास ही खड़े संतरी से, ठेले पर सब्जी बेचनेवाले से या किसी और से बातें करते। जीते अखबार पढ़ना नहीं भूलते। अखबार में वह राजस्थान के समाचार ढूंढकर पढ़ते। इस तरह दिन कैसे बीतता जीते को पता ही नहीं चलता। लेकिन रात तो काटे नहीं कटती। अपने हाथ से खाना बनाते समय उन्हें अनायास झुनिया की याद आती। खाकर सोने के लिए जब जीते बिस्तर की ओर कदम बढ़ाते तब तो उनकी विरहाग्नि और तेज हो जाती जैसे तेज हवा का सहारा पाकर आग की लपटें और बड़ी हो जाती हैं। उन्हें बिस्तर काटने लगता। कहां तो बिस्तर पर सदेह झुनिया का साथ और कहां यह खाली- खाली बिस्तर ! झुनिया की चिर-परिचित गंध की याद ताजा हो जाती और जीते के नथुने फूलने लगते। जीते बेचैन हो उठते। तब फोन की भी आज जैसी सुविधा नहीं थी कि जीते झुनिया की मीठी आवाज सुनकर ही मन को शांत कर लेते। निरंतर पैसे कमाने और पैसों को दांत से पकड़ने का ऐसा जुनून जीते के ऊपर सवार था कि वह झुनझुनू जाते ही नहीं थे विशेषकर आरंभिक समय में। उन्हें लगता क्या बेकार आने-जाने में पैसे खर्च करना। उन्हें तो बस झुनझुनू से किसी के आने की प्रतीक्षा रहती ताकि वह उसके हाथों पैसे भेज सकें।
मनोरंजन के नाम पर जीते के पास कोई साधन नहीं था। घर से दुकान और दुकान से वापस घर तक आते-जाते जब वह सिनेमा के पोस्टर देखते जिसमें नायक-नायिका आलिंगन-बद्ध दिखते तो जीते के मन में लहरें उठने लगतीं। उन्हें अपना विनोद कक्ष याद आने लगता। कई बार रात को बिस्तर पर लेटे-लेटे वह सोचा करते क्या सिर्फ मेरा ही जीवन ऐसा एकाकी है या औरों का भी ? तभी उन्हें सड़क पर किसी संतरी द्वारा डंडा पटकने की आवाज सुनाई देती। वह सोचते वैसे तो यह संतरी भी अपने घर से दूर है और दाम्पत्य सुख से वंचित। फिर भी उससे तो मैं कहीं अच्छा हूं कि मुझे रात को सोने को मिल जाता है। तभी उन्हें ट्रक की आवाज सुनाई देती। वह ट्रक के ड्राइवर के बारे में सोचते। इन ड्राइवरों की जिंदगी भी तो संतरी की जिंदगी जैसी ही है। ये भी रात-रातभर जगकर ट्रक चलाते हैं। इस प्रकार जीते खुद को समझाते-बुझाते। उन्हें इस
बात से बहुत शांति मिलती कि उनका उद्देश्य बहुत महान और बहुत बड़ा है। कहते हैं लक्ष्य जितना बड़ा होता है, तपस्या उतनी ही कठोर होती है। पार्वती साक्षात भगवान महादेव को ही वर के रूप में प्राप्त करना चाहती थीं, इसलिए उन्हें वर्षों कठोर तप करना पड़ा। जीते अपनी अगली पीढ़ी को बदलना चाहते थे। इतने बड़े उद्देश्य के लिए इतना कष्ट बहुत बड़ा नहीं है। यही सब सोचते-सोचते जीते को नींद आ जाती। ऋतुएं बदलती रहीं — कभी वसंत, कभी ग्रीष्म, कभी पावस, तो कभी शरद। जीते को झुनिया के साथ की हर ऋतु की अनुभूति थी। जीते ने हर ऋतु का आनंद उठाया था। पर यहां इस महानगरी में सिवाय झुनिया की यादों के जीते के पास कुछ भी नहीं था। ऋतुराज का समय भी अन्य ऋतुओं की तरह ही बीत जाता। कामदेव के दनादन चलते बाणों का भी अब जीते पर असर नहीं होता। लंबे अभ्यास से जैसे कोई अपने क्रोध पर नियंत्रण कर ले वैसे ही जीते ने भी अपनी इच्छाओं को अपने वश में कर लिया। मेरा काम हो चुका था और हमारी बातचीत में ग्राहकों के आने-जाने से लगातार व्यवधान हो रहा था, इसलिए मैं यह सोचकर कि किसी और दिन आगे की बात करुंगा अपने घर वापस आ गया।
कई दिन बीत गए पर जीते से मिल नहीं पाया। एक शाम टहलते हुए जीते के पास पहुंचा और बात को आगे बढ़ाने की कोशिश की। इस बीच अपने गांव, घर और अपनी पत्नी को छोड़ने की जीते की कसक को लेकर मैंने काफी मनन-चिंतन किया था। मेरे मन में आया कि क्या ऐसा हो सकता था कि जीते को गांव भी नहीं छोड़ना पड़ता और उनके बच्चे भी पढ़ लेते। यही जानने के प्रयास में मैंने जीते से पूछ ही लिया। जीते ने जो बताया उसका सारांश यह था कि तब गांव में जूते-चप्पल पहननेवाले गिनती के लोग होते थे। इसलिए वहां अधिक कमाई की कोई संभावना नहीं थी। इस पर मुझे अचानक समझ में आया कि हमारे देश में जूते-चप्पल पहनना भी समृद्धि की एक निशानी है। मुझे अपना गांव याद आया जहां अभी भी बड़ी संख्या में मजदूर जूते-चप्पल नहीं पहनते हैं। इसलिए चालीस साल पहले तो मुट्ठी भर लोग ही जूते-चप्पल पहनते होंगे। अपने प्राचीन साहित्य से हमें पता चलता है कि जिसे हम चरण पादुका कहते हैं, वह खड़ाऊं है। और खड़ाऊं तो लकड़ी की होती है, जिसे बढ़ई बनाता है। फिर इसमें मोची का क्या काम ! ऐसा लगता है कि प्राचीन काल में हमारे देश में चमड़े के जूतों का चलन अत्यल्प ही रहा होगा। बाहर से जो हूण, कुषाण आदि यवन हमारे यहां आए उनके पैरों में जूते अवश्य होते थे। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि जूतों का प्रयोग राजा और बहुत ऊंचे लोगों तक ही सीमित रहा होगा।
ऐसे में केवल जूतों की सिलाई करके इतने बड़े मोची समाज का पालन पोषण तो हो नहीं सकता था। अतः प्राचीन काल से ही मोची समाज अन्यान्य आर्थिक गतिविधियों से जुड़ा रहा। असल में पहले जब गाय, भैंस, बैल आदि पशु मरते थे तो उनके शरीर के अंग-अंग का किसी न किसी रूप में प्रयोग होता था। और इस काम में मोची सिद्धहस्त होते थे। चमड़े को सुखाकर उससे चप्पल-जूतों से लेकर नाना प्रकार के वाद्य यंत्र, सामान रखने के बड़े-बड़े झोले, पानी रखने के मशक आदि जीवन में प्रयोग में आनेवाली अनेक वस्तुएं बनायी जाती थीं। जिस डमरू को भगवान शिव का वाद्ययंत्र कहा जाता है और जो उनके एक हाथ की शोभा भी है, उसके लिए मोची समाज ही चमड़ा उपलब्ध कराता रहा है।
परंतु मुसलमानों के इस देश में प्रवेश के बाद बीतते समय के साथ चमड़े के कारोबार पर उनका वर्चस्व होता चला गया। आधुनिक युग में जब से बड़ी-बड़ी कम्पनियां चमड़ा उद्योग में प्रविष्ट हुईं तब से चमड़े के काम से मोची शनै शनै बाहर निकलने लगे और उनकी कमाई का क्षेत्र भी संकुचित होता चला गया। इन्हीं सब कारणों से जीते के पास भी गांव छोड़ने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था। उधर गांव में जीते के तीनों बच्चे कक्षाओं की एक-एक सीढ़ी साल-दर-साल चढ़ने लगे और इधर जीते हर पढ़े-लिखे ग्राहक से देर तक बातें करते कि कैसे उनके बच्चे पढ़ाई में अच्छा करें। जीते इन बातों को कंठस्थ कर लेते और जब कभी अपने गांव जाते तो अपने बच्चों को बताते। बच्चों पर इन बातों का प्रभाव भी पड़ता। कालक्रमानुसार जीते के तीनों बच्चे स्कूल से निकल कर कालेज चले गए। दोनों बेटे तो दिल्ली आ गए और बेटी वहीं राजस्थान के किसी कालेज में पढ़ने लगी। दोनों बेटों ने दिल्ली में एमए तक की पढ़ाई की। बड़े बेटे को राजस्थान सरकार के किसी विभाग में सम्मानजनक पद मिला और छोटे बेटे को दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कालेज में तदर्थ शिक्षक का पद। उधर बेटी ने बीए करके बीएड किया और राजस्थान के ही किसी स्कूल में शिक्षिका के पद पर उसकी नियुक्ति हुई। जीते ने तीनों बच्चों का धूमधाम से विवाह भी कर दिया। अब जीते दादा-नाना बन चुके हैं।
इस प्रकार जीते ने अपनी लगभग चार दशकों की तपस्या से अभूतपूर्व उपलब्धि हासिल की। जीते ने अपने घर का ताब्दियों पुराना इतिहास बदल दिया। मेरे पूछने पर कि बच्चों की नौकरी में सरकारी सुविधाओं का कितना लाभ मिला ? जीते ने झटउत्तर दिया कि ‘साहब, सबसे पहले तो खुद को सरकारी सुविधा का फायदा उठाने लायक बनाना होता है। हमारे गांव में आज भी बहुत ऐसे बच्चे हैं जिन्होंने स्कूल की ही पढ़ाई पूरी नहीं की तो फिर सरकार क्या कर लेगी !’ मैंने जीते से यह भी पूछा कि आपके दिमाग में ऐसी बात कैसे आई कि आपको अपने बच्चों को पढ़ाना है ? आखिर यही बात आपके गांव के दूसरे लोगों के दिमाग में क्यों नहीं आई ? जीते ने कुछ सोचकर उत्तर दिया, ‘साहब, इसके लिए तो मेरा बाप जिम्मेदार है। मेरा बाप मुझे पढ़ाना चाहता था। मेरे बाप को पढ़ाई का मतलब मालूम था। मुझे आठवीं तक पढ़ाया भी। मैं पढ़ने में अच्छा था। अगर मेरे बाप को कुसमय जमराज नहीं उठाता तो मैं बहुत आगे तक पढ़ता।’ बात जारी रखते हुए जीते ने कहा, ‘साहब, दूसरी बात यह है कि मुझे बचपन में ही यह गुरु मंतर मिल गया था कि अगर बच्चों को पढ़ाना है तो दो-तीन से अधिक बच्चे नहीं होने चाहिएं। अब देखिए हमारे समय में हमारे गांव में कई ऐसे लोग थे जिनके पांच-पांच, सात-सात बच्चे हुए। इतने बच्चों को पढ़ाना कोई हंसी-खेल है !’
मैंने जीते से एक दिन पूछा कि अब तो आपका सपना पूरा हो गया। आपके बच्चे इतना अच्छा कर चुके हैं जिसकी संभवतः आपने भी कल्पना नहीं की होगी। इसलिए अब तो आपको अपने गांव वापस चले जाना चाहिए। जीते ने तपाक से उत्तर दिया, ‘साहब, यही बात झुनिया भी कहती है कि, ‘अब गांव आ जाओ, यहां थोड़ा-बहुत भी कमा लोगे तो हमारा काम चल जाएगा। अब तुम्हें कौन से बच्चे पढ़ाने और ब्याहने हैं।’ वैसे तो अब मैं पहले से ज्यादा गांव जाने लगा हूं। लेकिन अभी कोई आखरी फैसला नहीं किया है।’ लेकिन थोड़ी ही देर में जीते का हाव-भाव बदल गया। जीते गंभीर हो गए।
उनका चेहरा तन गया। काम कर रहे अपने हाथों को रोककर और लंबी सांसे लेकर जीते ने कहा, ‘साहब, एक दिन की बात है। मेरा दिल्ली वाला बेटा मेरे पास आया और मुझसे बोला, ‘पापा अब ये मोची-वोची का काम छोड़कर गांव चले जाओ और वहां आराम से रहो।’ साहब। लगा, जैसे भरी सभा में किसी ने मेरे गाल पर थप्पड़ मारा हो, जैसे किसी ने मेरी जिन्दगी भर की कमाई डाका डालकर लूट ली हो, जैसे मैंने जिन्दगी में जो कुछ भी किया है वह सब अकारथ चला गया हो। मैं सन्न रह गया। मेरे मुंह से बोल नहीं निकल पाए। बहुत आंसू बहने को हुए। पर मैं यह भी नहीं चाहता था कि उसके सामने मेरे आंसू बाहर निकले। जब वह चला गया तब मैं जिंदगी में पहली बार जी भरकर रोया।’
जीते बोलते रहे, ‘साहब यही वह दुकान है जहां मेरा यही बेटा आता था और मुझसे पैसे ले जाता था। यही मैं हूं मोची जो उसके कालेज जाता था। मैं सीना चौड़ा करके उसके कालेज के शिक्षकों से मिलता था। उससे पहले मैं मोची बनकर ही बच्चों के स्कूलों में भी जाता था। पर किसी शिक्षक ने मुझे मेरे पेशे के लिए अपमानित नहीं किया। साहब, यह पेशा मेरी पहचान है और इसी की बदौलत मैंने अपने बच्चों को यहां तक पहुंचाया है। मैं अपनी तरह से पैसे कमाता हूं और खर्च करता हूं। किसी के आसरे नहीं हूं। भगवान की दया से अभी मैं कमाने लायक हूं तो कमाना क्यों छोड़ दूं ? चालीस सालों से यहां काम करते-करते मेरा छोटा-सा समाज भी बन गया है जिससे मैं हिल- मिल गया हूं। अब तो मैं गांव के लिए मेहमान-सरीखा हो गया हूं।’ जीते बोलते-बोलते रुआंसे हो गए। उनका गला भर गया। उनकी बूढ़ी आंखों के दोनों कोरों से आंसू की बूंदें ढुलक गईं। अस्पष्ट सी ध्वनि में जीते बस इतना ही बोल पाए कि ‘साहब मेरे उस बेटे को क्या मालूम कि अपने बच्चों की खातिर मैंने अपनी जवानी जला दी।’
इतना जानने के बाद जीते की दुकान मुझे उस मुनि की कुटिया-सी लगी जिसने अपने मन को जीत लिया हो। वैसे भी जीते की दुकान के आस-पास बड़े-बड़े छायादार वृक्ष हैं जिससे दुकान सचमुच कुटिया लगती है। दुकान की दाहिनी ओर भगवान शिव का एक छोटा-सा मंदिर है और बायीं ओर भगवान कृष्ण का एक विशाल मंदिर। मुझे लगा कि जिस व्यक्ति से मैं मिलता रहा हूं वह कोई मोची नहीं बल्कि एक तपस्वी, एक कर्मवीर, एक क्रांतिकारी और जीवन संग्राम को जीतने वाला एक योद्धा है। जब भी उस मार्ग से गुजरता हूं तो अपनी कुटिया में बैठे उस तपस्वी को देखकर श्रद्धानत हो जाता हूं।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
20 जुलाई 2019