विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का दसवां मंत्रिसम्मेलन अफ़्रीकी देश केन्या की राजधानी नैरोबी में चार की जगह पांच दिनों (15-19 दिसंबर) में संपन्न हुआ। अफ़्रीकी महादेश में होनेवाला यह पहला मंत्रिसम्मेलन था। कई कारणों से पूरी दुनिया की नजर इस मंत्रिसम्मेलन पर थी। इसकी पृष्टभूमि में सतत विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा इसी वर्ष अपनायी गई योजना (जिसे एमडीजी भी कहते हैं) तथा हाल ही में जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने को लेकर हुआ पेरिस का सफल समझौता था। अतः आशा की जा रही थी कि 2015 के समाप्त होते-होते यह सम्मेलन भी सफल होगा। वैसे भी डब्ल्यूटीओ के वार्ताचक्र पर पिछले चौदह सालों से ग्रहण लगा हुआ था। वर्ष 2001 में क़तर की राजधानी दोहा में ‘वार्ताचक्र’ आरम्भ हुआ पर विभिन्न कारणों से आज तक यह अपनी मंजिल तक नहीं पहुँच सका है।
नैरोबी में संपन्न सम्मलेन के परिणाम पर भारत ने घोर निराशा जाहिर की है। दरअसल भारत चाहता था कि दोहा वार्ताचक्र को लेकर सदस्य देश अपनी वचनबद्धता की पुनर्पुष्टि करें। वैसे तो दोहा एजेंडा में अनेक तरह के मुद्दे थे पर विकास इसके केंद्र में था। इसीलिए भारत सहित सभी विकासशील देश इससे भावनात्मक रूप से जुड़े रहे हैं। लेकिन इस सम्मलेन ने दोहा वार्ता को ही अनौपचारिक रूप से मृत घोषित कर दिया है। ‘नैरोबी पैकेज’ के अनुसार अब दोहा एजेंडा जैसे भारी-भरकम विषयों को छोड़कर छोट-छोटे मुद्दों पर ही वार्ता होगी।
जानकार लम्बे समय से दोहा वार्ता को औपचारिक तौर पर मृत घोषित किये जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। ऐसे में दोहा को पीछे छोड़ना बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। पिछले डेढ़ दशक में विश्व के आर्थिक परिदृश्य में क्रांतिकारी परिवर्तन हो चुका है। जहाँ अमरीका और यूरोपीय देशों का आर्थिक महत्व तुलनात्मक दृष्टिकोण से घटा है वहीँ चीन, भारत, ब्राज़ील और इंडोनेशिया जैसी उभरती शक्तियों का महत्व बढ़ा है। इसके आलावा 2007 के अंत से शुरू हुई आर्थिक मंदी से विकसित देश अब तक ऊबर नहीं पाये हैं और डब्ल्यूटीओ की किसी भी नई जिम्मेदारी से बच रहे हैं। पर विडम्बना है कि नई शक्तियाँ अभी नेतृत्व के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं।
उभरती शक्तियों में चीन और रूस बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। पर ये दोनों अपेक्षाकृत नए सदस्य हैं और इस कारण ये पहले से ही बड़ी जिम्मेदारियों से दबे हुए हैं। वैसे रूस की तुलना में चीन पुराना सदस्य है लेकिन चीन ने अब तक नेतृत्व करने की अपनी महत्वाकांक्षा जग-जाहिर नहीं की है। यह भी संभव है कि अभी हाल में आर्थिक वृद्धि दर में आई गिरावट के कारण भी चीन को अंतर्मुखी होना अधिक श्रेयस्कर लगता हो। इस तरह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में आज भारत ही है जो सबसे तेजी से बढ़ रहा है और डब्ल्यूटीओ का संस्थापक सदस्य होने के कारण इसे व्यापार वार्ता का लम्बा अनुभव है। अतः भारत से स्वाभाविक तौर पर नेतृत्व की अपेक्षा थी। लेकिन इस सम्मेलन के परिणाम से लगता है कि पिछले दो दशकों से भारत द्वारा जिस तरह की भूमिका निभायी जा रही थी उसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया है। इसका एक कारण संभवतः विदेश व्यापार को लेकर हमारा संकुचित दृष्टिकोण हो सकता है।
बिना विदेश व्यापार की सहायता के आज तक कोई देश समृद्ध नहीं हुआ है। मध्यकाल तक भारत की समृद्धि का भी मुख्य कारण विदेश व्यापार ही था। विदेश व्यापार का आर्थिक विकास में अन्यतम योगदान होता है जिससे अंततः गरीबी उन्मूलन में मदद मिलती है। चीन सहित पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देश इसका सफल उदाहरण हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार के रास्ते की बाधाओं को, जहां तक हो सके, दूर किया जाए। इस दृष्टि से इस सम्मेलन का सफल होना भारत के हित में होता। परन्तु भारत की दिक्कत यह है कि इसकी छवि विकसित देशों और उनके द्वारा उठाए गए अधिकतर मुद्दों के विरोधी की रही है। डब्ल्यूटीओ को लेकर भी इसका व्यवहार एक सहयोगी का नहीं रहा है।
डब्ल्यूटीओ की 1995 में स्थापना के बाद से आज तक एक भी मंत्रिसम्मेलन भारत में आयोजित नहीं हुआ है। जबकि दूसरी ओर क़तर जैसे देशों ने एक ख़ास रणनीति के तहत प्रयास करके अपने यहाँ मंत्रिसम्मेलन का आयोजन किया है। इतने बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन से मेजबान देश की विश्व भर में ब्रांडिंग होती है। इसके अलावा आमतौर पर मेजबान देश सम्मेलन की सफलता के लिए भरपूर प्रयास भी करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि इनके रूख में थोड़ा लचीलापन और व्यावहारिकता आ जाती है। विदेश व्यापार की नीति की दृष्टि से ऐसे देश उदार माने जाते हैं। दुर्भाग्य से भारत ने अब तक ऐसा कोई संदेश नहीं दिया है। यह विडंबना ही है कि पच्चीस सालों से आर्थिक उदारीकरण को अपनाने और उससे लाभान्वित होने के बावजूद हम कई बार अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उदारीकरण के विरूद्ध खड़े दिखते हैं।
पिछले दो दशकों पर यदि हम नजर डालें तो हम पाते हैं कि भारत ने डब्ल्यूटीओ के ऐसे सम्मेलनों में अधिकतर कड़ा रूख ही अख्तियार किया है। सम्मलेन के एजेंडा के तीन स्तम्भ थे – कृषि, विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) तथा सेवा। जहाँ तक कृषि का प्रश्न है तो विश्व व्यापार में इसका हिस्सा लगातार घटता जा रहा है । 1960 के दशक में जहाँ विश्व भर में वस्तु व्यापार में कृषि का हिस्सा 25 प्रतिशत था वह अब घट कर 10 प्रतिशत के नीचे आ गया है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में भी कृषि का योगदान घटकर 15 प्रतिशत के नीचे आ गया है। इसी तरह अब रोजगार में भी इसका योगदान 50 प्रतिशत के आसपास आ गया है। आनेवाले समय में विनिर्माण तथा सेवा क्षेत्रों में ही रोजगार के बढ़ने की संभावना है। इस दृष्टिकोण से देखें तो विश्व व्यापार में हमारा ध्यान कृषि के इतर विषयों पर भी होना चाहिए। परन्तु अब तक हुआ यह है कि कृषि क्षेत्र पर अपेक्षाकृत अधिक ध्यान दिया गया है। यह सच है कि विकसित देशों द्वारा भारी मात्रा में दी जा रही सब्सिडी के फलस्वरूप कृषि का अंतरराष्ट्रीय बाजार विकृत हो गया है और विकासशील देशों के कृषि उत्पाद प्रतिस्पर्धा में ठहर नहीं पाते हैं। पर यह भी सच है कि ऐसी स्थिति सभी विकासशील देशों की है। इसलिए सिर्फ भारत द्वारा आनुपातिक रूप से अधिक ऊर्जा खर्च करना वांछनीय नहीं था।
इसके स्थान पर हमें चाहिए था कि हम कृषि की बात करते हुए दूसरे क्षेत्रों पर भी सफलता हासिल करते। भारत द्वारा दिए गए आधिकारिक वक्तव्य का केंद्रीय विषय कृषि था और इसकी भाषा में कड़वाहट थी। विनिर्माण का जिक्र तक नहीं था जबकि देश का सारा ध्यान अभी ‘मेक इन इंडिया’ पर है। इसी तरह सेवा क्षेत्र पर सिर्फ एक पैरा था जबकि भारत विश्व का छठा सबसे बड़ा सेवा निर्यातक है। आनेवाले समय में भारत विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की क्षमता रखता है। पर भारत के वक्तव्य में ऐसा कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं हुआ।
वैसे, अपने किसानों का बचाव करने के लिए विशेष सुरक्षा तंत्र का सहारा लेने की अनुमति प्रदान करने की भारत की माँग मान ली गयी है। साथ ही, भारत के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के लिए बफर स्टॉक रखने की माँग मान ली गई है। इसी तरह विकसित देशों द्वारा कृषि निर्यात पर दी जा रही सब्सिडी पर रोक लगाने का निर्णय भारत के पक्ष में जाता है। लेकिन सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत को अपने विनिर्माण और सेवा निर्यात बढ़ाने के लिए कुछ भी हासिल नहीं हुआ। इसके अलावा एक बहुपक्षीय संस्था के रूप में डब्ल्यू टी ओ की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लग गया है क्योंकि इसके परे सदस्य देश द्विपक्षीय तथा क्षेत्रीय व्यापार समझौतों पर अधिक भरोसा करने लगे हैं। कुछ जानकारों का मानना है कि इस सम्मेलन में जीत विकसित देशों की हुई है क्योंकि न केवल वे विकासशील देशों के ज्यादातर मुद्दों को दरकिनार करने में सफल रहे बल्कि भविष्य में अपने मुद्दों को एजेंडा में शामिल करने जैसे निर्णय लिवाने में भी सफल रहे।
फिर भी इतना तो हुआ है कि सम्मेलन पूरी तरह असफल नहीं रहा और डब्ल्यूटीओ अपना अस्तित्व बचाने सफल रहा। इस प्रकार बाली के बाद इसे लगातार दूसरी सफलता नैरोबी में मिली है। अब असली चुनौती भारत के सामने है । भारत को चाहिए कि वह अपना पुराना बोझ उतारे और विश्व व्यापार के नियमन में सकारात्मक और निर्णायक भूमिका निभाए।
लेखक निवेश एवं लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग , वित्त मंत्रालय ,भारत सरकार में संयुक्त सचिव हैं। लेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं ।
4 सितम्बर 2018