महाभारत के पात्र एकलव्य, द्रोणाचार्य. कर्ण और अर्जुन का चरित्र चिंतन करने से ज्ञात होता है कि एक समय में भारत में अव्वल दर्जे के निशानेबाज रहे हैं। निशानेबाजी के प्रशिक्षण के दौरान मछली की आंख पर निशाना साधे अर्जुन से जब गुरू द्रोण पूछते हैं कि तुम्हें मछली की आंख के सिवाए क्या-क्या नजर आ रहा है – तो मछली की आंख पर निशाना साधे अर्जुन की ओर से गुरू द्रोण को उत्तर मिलता है कि उसे सिवाए मछली की आंख के और कुछ नजर नहीं आ रहा है। परंतु 13 अगस्त से 29 अगस्त, 2004 तक चलने वाले 28वें ओलंपिक खेलों में भारतीय दल का प्रदर्शन दर्शाता है कि कर्ण-अर्जुन के इस देश में ओलंपिक पदकों पर निशाना साधने के लिए निशानेबाजों का किस कदर अकाल है। भारतीय खेल तंत्र के सभी प्रयास और दावे खोखले साबित हुए। इस ओलंपिक में भारतीय दल के लिए 10 पदक झटकने की उम्मीद जताई गई थी परंतु वे ऐसा कर नहीं पाया। यहां तक कि उसके बाद के दो ओलंपिकस में अभी तक यह कारनामा नहीं हो पाया।
जब भारत में एफ्रो-एशियाई खेलों का सफल आयोजन हुआ तो बहुत बड़े-बड़े दावों के साथ यह भी उम्मीद जताई गई कि भारत 2011 की एशियाई खेलों और 2016 के ओलंपिक खेलों की तैयारी में लगा है। 40 साल बाद जब ओलंपिंक मशाल भारत आई तो भव्य समारोह का आयोजन किया गया। 33 किलोमीटर की मशाल यात्रा में 105 हस्तियों ने भाग लिया। पाकिस्तान के साथ सुधर रहे रिश्तों में और मिठास भरने के लिए पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल को भी आमंत्रित किया गया। पाकिस्तान कराटे महासंघ के अध्यक्ष और पूर्व हाकी अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी मुनीफ अहमद डार, पाकिस्तानी रस्साकशी महासंघ के अध्यक्ष मुहम्मद नवाज कसूरी और पाकिस्तान टेबल टेनिस महासंघ के प्रमुख एएसएच शाह प्रतिनिधिमंडल में शामिल थे। पाकिस्तानी खेल मंत्री भी सपत्नीक शामिल होना चाहते थे परंतु मसरुफियत की वजह से वे भाग नहीं ले सके। मशाल यात्रा में पाकिस्तानी प्रतिनिधिमंडल की भागीदारी ने खेल सिद्धांतों की एक बड़ी उपयोगिता भी तर्कसंगत करदी कि खेलों से अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सहयोग बढ़ता है तथा प्रतियोगी खिलाड़ियों में कितना सहकार, सहयोग और असहयोग है, उसकी भी जानकारी मिल जाती है। भारतीय सिने और खेल जगत की हस्तियों ने इस मशाल दौड़ में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया किंतु इस आयोजन में खेल जगत की कुछ हस्तियों से दुरव्यवहार हुआ। निश्चय ही यह विचारणीय विषय है।
पूर्व की ही भांति 2004 के एथेंस ओलंपिक में हिस्सा ले रहे खिलाड़ी एक के बाद एक स्पर्धाओं से बाहर होने लगे। स्वतंत्र भारत के इतिहास में भारतीय दल के एक सदस्य राज्यवर्धन सिंह राठौर रजत पदक जीतने में सफल रहे। हैरानी की बात है कि अमेरिकी खिलाड़ी दल 574, चीनी खिलाड़ी दल 404, जर्मनी खिलाड़ी दल 467, ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी दल 491 के मुकाबले भारतीय खिलाड़ी दल की संख्या 76 थी। भारत की प्रतिष्ठा केवल खेलों पर ही निर्भर नहीं है फिर भी यह सोचने का विषय है कि क्यों विश्व के संपन्न देश एवं महाशक्तियां अधिक से अधिक पदकों पर अपने देश के खिलाड़ियों का कब्जा देखना चाहते हैं। भारत एक ऐसा देश है जिसमें विश्व की महाशक्ति बनने के प्रत्येक गुण हैं तो फिर इस क्षेत्र में सुधार क्यों न हो। खेल जगत में भारत की असफलता के एक नहीं अनेक कारण हैं। जनसंख्या की अधिकता को देखते हुए, अमीरी गरीबी को देखने से, संप्रभुता काल को देखने से व आकलन करने से यह कतई नहीं लगता कि भारत की इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में ऐसी दुर्दशा हो सकती है। फिर भी ऐसा हो रहा है। इसका स्पष्ट कारण यही है कि भारतीय निजी, सार्वजनिक, कार्पोरेट एवं राजनीतिक क्षेत्र का योगदान बहुत ही नीरसता भरा है। जिस तरह के समन्वय की आवश्यकता है उसका अभाव है। जिस आयु वर्ग से खिलाड़ियों का चयन एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उस समय अवधि का सदुपयोग नहीं हो रहा। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत इस क्षेत्र में पिछड़ने का एक प्रमुख कारण है भारतीयों का केवल एक ही सफल क्षेत्र में अत्यधिक झुकाव। डॉक्टरी के क्षेत्र में लाभ देखा तो सभी का झुकाव इधर। सूचना प्रौद्योगिकी के युग में माँ-बाप अपनी हैसियत से अधिक खर्च करके अपने बच्चों का भविष्य संवारने में लगे हैं। बिना पूर्व अनुमानों का आकलन व जायजा लिए ! किसी को यह नहीं मालूम और न किसी के पास उन्हें बताने/समझाने का समय है कि किसी विशिष्ट क्षेत्र का व्यवसाय कितने नागरिकों को रोजगार प्रदान करने में सक्षम है। देश को प्रत्येक क्षेत्र के विशेषज्ञों की आवश्यकता है। किसी एक क्षेत्र के विशेषज्ञों का वर्चस्व नहीं। पार्थिव पटेल और इरफान पठान की भारतीय क्रिकेट टीम में छोटी आयु से ही सफलता को देखकर नवयुवकों की भीड़ इस क्षेत्र में उमड़ पड़ी है। (वर्तमान में आईपीएल का दौर आने से यह चलन और भी बड़ा है। मुनाफा, प्रचार तथा पार्टियों की चकाचौंध से क्रिकेट, सिनेजगत और कार्पोरेट जगत बहुत ही उत्साहित है, इतना कि हाकी लीग, बैडमिंडन लीग, फुटबाल लीग, कब्बडी लीग जैसी अनेकों अनेक खेल लीग बनकर अस्तित्व में आ चुकी हैं। किंतु आईपीएल तथा खेल लीगों की बढ़ती संख्या से खेल भी प्रभावित हो रहे हैं तथा विवादों की संख्या भी दिनोदिन घटने की बजाए बढ़ती जा रही है। सानिया मिर्जा और साइना नेहवाल लॉन टेनिस और बैडमिंटन में ऐसे नाम हैं जिससे नवयुवकों और नवयुवतियों की इस क्षेत्र में रुचि बहुत अधिक बढ़ गई है। 2008 बीजिंग तथा 2012 के ओलंपिक के अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाले मैडल अवश्य ही भारतीयों को अपने-अपने क्षेत्र का अच्छा फल चखने का अवसर दिलाने की क्षमता रखते हैं। इससे पूर्व हेलसिंकी में आयोजित 1952 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक में भारत ने हॉलैंड को 6 -1 के गोल अंतर से हराकर हाकी का स्वर्ण पदक जीता था। बलबीर सिंह सीनियर ने भारत के छह गोल में से पाँच गोल दागे थे, कुश्तीबाद के.डी.यादव ने कांस्य पदक जीता। 1996 में 1948 के बाद से पहली बार ओलंपिक की किसी व्यक्तिगत स्पर्धा में ब्राजील के फर्नांडो मेलिगेनी को हराकर लिएंडर पेस ने कांस्य पदक हासिल किया था।) ओलंपिक के परिणामों का आकलन करने से केवल ऑस्ट्रेलिया ही एकमात्र अपवाद दिखता है जिसकी पदक तालिका में स्थिति कुछ अच्छी होती है। बाकी के 9 क्रिकेट खेलने वाले देशों की स्थिति क्या है ? अनुशासित तरीके से सफलता पाने की भावना भरने के स्थान पर अधिकतर भारतीय माँ-बाप अपनी कमाई से अधिक बच्चों की पढ़ाई पर खर्च करके व अपने बच्चों को दिशाहीन शिक्षा दिलाकर अपने आपको सबसे अधिक जिम्मेदार माता-पिता साबित करना चाह रहे हैं। गरीब और उपेक्षित वर्ग को अगर एक ओर कर दिया जाए तो एक विशिष्ट शिक्षा प्राप्ति उपरांत सभी एक समान हैं क्योंकि अभिभावक चाहे जितना चाहें अधिक खर्च करलें रोजगार पाने के लिए उनके लिए प्रतिस्पर्धा में सफलता पाना आवश्यक है। निजी क्षेत्र और कार्पोरेट जगत तो अधिक से अधिक लाभ कमाने वाले अपने लक्ष्य के अनुसार ही प्राथमिकता देकर उसी अनुसार प्रतिभागियों को भर्ती करेगा। आयोजक अपनी चकाचौंध दिखाकर युवा पीढ़ी को केवल क्रिकेट के बुखार में बांधकर रखना चाहते हैं। अभिभावकों की ओर से बच्चों की शिक्षा पर धनबल खर्च करने की होड़ का लाभ निजी शिक्षण संस्थान मनमाने ढंग से फीस वसूली करके धड़ल्ले से उठा रहे हैं। बच्चों को सुविधाएं न्यूनतम और खर्च बेशुमार। किंतु जब-जब बच्चा क्लास दर क्लास आगे बढ़ता है तो उनको मिलने वाली सुविधाओं का स्तर घटता जाता है। क्योंकि निजी शिक्षण संस्थान कागजी खानापूर्ति करके खेलकूद सहित दी जाने वाली अधिकतर सुविधाओं को कागजों में ही प्रदान कर देते हैं। सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं की ओर तो मुख तब ही घुमाया जाता है जब तथाकथित संभ्रांत परिवारों के लिए निजी शैक्षणिक संस्थाओं के दरवाजे बंद हो जाते हैं। सरकारी शिक्षण संस्थाओं की दयनीय स्थिति के फलस्वरुप भी खेलों की कुछ नरसरियां प्रभावित हुई हैं। हाकी, कब्बडी और कुशती जैसे खेलों में भी भारत की स्थिति प्रभावित हुई है। एक समय था जब हाकी में ओलंपिक स्वर्ण पदक भारत में ही आता था किंतु वर्तमान में भारतीय हाकी की स्थिति क्या है ?
एक ही क्षेत्र में अत्यधिक लाभ व व्यय से दूसरे क्षेत्रों को न तो प्रायोजक मिलते हैं और न ही सभी खिलाड़ी एवं अभिभावक अपने पास से इतने संसाधनों का उपयोग कर सकते हैं, जहां से अंतरराष्ट्रीय स्तर हासिल करना आसान हो। प्रायोजक भी तब तक पैसा लगाने को तैयार नहीं होता जबतक उसको यह एहसास नहीं हो जाता कि यह सौदा उसके लिए लाभकारी है। या फिर प्रायोजक किसी विशेष क्षेत्र में रुचि रखता हो तभी उस क्षेत्र को प्रायोजित करेगा। राजनैतिक हस्तक्षेप इस क्षेत्र में असफलता का एक प्रमुख कारण है। अनेक खेल संघों के अध्यक्ष प्रमुख राजनीतिक पार्टियों से हैं व लंबे समय से यह पद संभाले रहने के बावजूद भी खेलों की स्थिति में सुधार न के बराबर ही हैं । श्री वी. के मल्होत्रा, राष्ट्रीय तीरंदाजी संघ (30 साल से अधिक अवधि), श्री सुखदेव सिंह ढींढसा राष्ट्रीय साइकलिंग संघ(14 वर्ष से अधिक), कैप्टन सतीश शर्मा राष्ट्रीय ऐयरो क्लब(24 साल से अधिक), श्री वी.के वर्मा बैंडमिंटन संघ(12 साल से अधिक), श्री बी.के आदित्यान वालीबाल(12 साल से अधिक) और श्री सुरेश कलमाड़ी भारतीय ओलंपिक संघ दस साल से अधिक अवधि तक संभाले रहे (आंकड़ा वर्ष 2010 पर आधारित)।
इससे कम अवधि के बहुत से पूर्व व वर्तमान अधिकारी, कारोबारी और राजनीतिज्ञ मिल जाएंगे जो खेल संघ चलाने के लिए खुद को ही सिद्धहस्त मानते हैं। अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक संघ से भारत की सदस्यता चाहे निलंबित हो जाए किंतु आने वाले समय के लिए भी उनको अपना विकल्प नजर नहीं आता किंतु भारतीय स्वाभिमान और खेल प्रतिष्ठा के प्रति जवाबदेही किस की है, कम से कम इसे गंभीरता से कौन स्वीकार करेगा ? 34 साल की अधिक की अवधि से राष्ट्रीय तीरंदाजी संघ के एक ही अध्यक्ष किंतु ओलंपिक पदक पर एक भी सटीक निशाना नहीं(वर्ष 2010 तक का आंकड़ा)। बाकी खेल क्षेत्रों का अंदाजा लगाने में हमें देर नहीं लगनी चाहिए। जब सरकार ने इनका वर्चस्व समाप्त करने के लिए प्रयास करके नियमों में बदलाव किया तो यही मठाध्यक्ष आग बबूला हो गए और राजनीतिक सीमाएं भूलकर इकट्ठे हो गए।
खेल संघों के प्रमुख गैर खिलाड़ी होने से खिलाड़ियों को सुविधाएं कम मगर भाई-भतीजावाद और गुटबाजी की संभावना ही अधिक रहती है। कई बार तो गुटबाजी व अंतर्विरोध खुलकर मीडिया के सामने ही प्रदर्शित होता है जिसका समादान बहुत ही आवश्यक है और जबतक इससे पार नहीं पाया जाता, भारत की ऐसी दुर्दशा होती रहेगी।
भारत जिस समय गुलाम हुआ था, वह युग सैनिक साम्राज्यवाद का युग था। दूसरे विश्वयुद्ध के उपरांत विश्व की दो महाशक्तियों में शीतयुद्ध आरंभ हुआ। सैनिक साम्राज्यवाद काल की तरह फौजी ताकत का अधिक इस्तेमाल करने के स्थान पर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का सहारा अधिक लिया जाने लगा। महाशक्तियों की इच्छा अनुसार सस्ता साहित्य गरीब देशों में सस्ते दामों पर पहुंचना आरंभ हो गया जिससे संबंधित देश के नागरिकों के दिमाग पर कब्जा करना आसान हो। 90 की दशक अवधि से नव साम्राज्यवाद का उदय हुआ है क्योंकि विश्व में एक ही महाशक्ति की तूती बोलती है। पहले इस महाशक्ति को खेलजगत में भी USSR से चुनौती मिलती थी। गत दो ओलंपिक से चीन एकमात्र महाशक्ति को पछाड़ने की होड़ में प्रयासरत नजर आ रहा है । इसलिए भारत के नीति निर्धारकों को यह बात हमेशा ही ध्यान में रखनी होगी कि भाई-भतीजावाद, गुटबाजी और क्षेत्रवाद की भावना को बढ़ावा देने से भारत के रास्ते मे कांटे ही कांटे बिखरे हुए नजर आएंगे, फूलों की कमी हमेशा की फितरत बन जाएगी। असफलता के इस दौर को जहन में रखकर सफलता की सीढ़ी का निर्माण आरंभ करना बहुत ही अधिक आवश्यक है। इसलिए आवश्यकता यही है कि सभी संबंधितों को मिलकर चढ़ते सूरज को सलाम करने के मुकाबले गुणों को ध्यान में रखकर नीतियां बनानी चाहिएं जिससे खेलों सहित सभी क्षेत्रों का समग्र विकास हो। किसी एक विशेष क्षेत्र का नहीं। भारत में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। केवल उन्हें तराशने की आवश्यकता मात्र है। भारतीय अगर दूसरे देशों के लिए पदक जीतने की क्षमता रखते हैं तो वे ऐसा अपने देश के लिए क्यों नहीं कर सकते ? भारत के निजी क्षेत्र, कार्पोरेट, सार्वजनिक, राजनैतिक और खेल जगत से अनुरोध है कि वे हीरों की तराशने के स्तर से ही पहचान करके क्षमताएं बढ़ाएं न कि चढ़ते सूरज को सलाम करने की तर्ज पर सफल व्यक्तियों का ही चयन।