सामाजिक सुरक्षा से वह सुरक्षा अभिप्रेत है जो समाज अपने सदस्यों को अपने जीवनकाल में किसी भी समय घट सकने वाली अनेक प्रकार की आकस्मिकताओं के विरुद्ध प्रदान करता है। यह असाधारण न्याय के सिद्धांत पर आधारित है। प्रत्येक समाज के मानव के जीवन में अनेक प्रकार की आकस्मिक विपत्तियां आती हैं। कामकाजी महिलाओं को बीमारी/प्रसूति अवस्था, श्रमिकों को बीमारी, वृद्धावस्था, बेरोजगारी, असमर्थता, दुर्घटना, मृत्यु आदि में। समाज में संगठित और असंगठित क्षेत्रों के श्रमिक नागरिकों को आकस्मिक विपत्तियों का सामना कभी भी करना पड़ सकता है। इन विपत्तियों पर मानव एकाकी रुप में विजय नहीं पा सकता। वही समाज सब जोखिमों और आकस्मिकताओं के विरुद्ध पर्याप्त व्यवस्था कर सकता है जिसका वह एक अंश होता है। जोखिमों के विरुद्ध पर्याप्त सुरक्षा प्रदान करना ही सामाजिक सुरक्षा कहलाता है। मानव जाति को अपने जन्म काल से ही अनेक आकस्मिकताओं का सामना करना पड़ रहा है। सामाजिक सुरक्षा के विचार की उत्पत्ति मनुष्यों के अभाव के भय से अपने आप को मुक्त करने की गंभीर एवं तीव्र इच्छा से भी हुई है। भविष्य में आने वाले जोखिमों का संज्ञान लेकर कभी-कभी कारोबारी, सिनेजगत की हस्तियाँ और अब आईपीएल सहित अनेक खेल लीगों के आने से क्रिकेटर तथा अन्य खेलों के खिलाड़ी भी अधिक से अधिक संपत्ति अर्जित करते हुए नजर आते हैं।
सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का संचालन, संवैधानिक व्यवस्था, निरोधात्मक या उपचारात्मक चिकित्सा, सामाजिक सहायता, सामाजिक बीमा तथा सामाजिक सेवा को सामाजिक सुरक्षा के अत्यंत व्यापक क्षेत्र में सम्मिलित किया जाता है। प्रत्येक समाज में सामाजिक सुरक्षा एक मानवीय अधिकार है। न्यूनतम जीवनस्तर चलाने के लिए संतोषप्रद व्यवस्था करना सरकार के दायित्वों में शामिल है। भारत की कानून की किताबों में 260 से ज्यादा कानून मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए हैं, लेकिन इसके बावजूद भी कुछ मामलों में इनमें से कोई भी कामगार के काम नहीं आता। भारतीय कामगारों को सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध करा रहे कुछ अधिनियम और योजनाएं निम्नानुसार हैं:--
कर्मकार प्रतिकर अधिनियम
यह अधिनियम नियोजकों पर दायित्व डालता है कि दुर्घटना से मृत्यु, सात दिन से अधिक के लिए पूर्ण अपूर्ण रुप से अयोग्य हो जाने पर, कुछ व्यवसाय जनित बीमारियों की अवस्था में कामगारों को क्षतिपूर्ति प्रदान करें। शक्ति की सहायता से काम करने वाले दस मजदूर नियोजित करने वाले तथा यहां बिना शक्ति के काम होता है पचास मजदूर नियोजित करने वाले रेलवे, कारखानो, बागानो, खानो, मशीनो से चलने वाले वाहनो व निर्माण कार्यों पर यह अधिनियम लागु होता है। इस अधिनियम अंतर्गत क्षतिपूर्ति तभी देय है जब दुर्घटना की अवस्था में मजदूर नशे के प्रभाव में न हो तथा स्वार्थपूर्ण ढंग से आदेशों की अवहेलना न की हो। मृत्यु, स्थाई पूर्ण असमर्थता, स्थाई आंशिक असमर्थता और अस्थाई असमर्थता, क्षतिपूर्ति का निर्धारण, हानि के प्रकार व श्रमिक की औसत मासिक मजदूरी पर निर्भर करता है तथा संवितरण कर्मकार प्रतिकर आयुक्त के माध्यम से किया जाता है जोकि इस योजना का प्रशासक भी होता है।
मातृत्व हितलाभ अधिनियम
स्त्री श्रमिकों को बच्चा पैदा होने के पहले और बाद में उचित भोजन, चिकित्सा और नवजात बच्चे के लिए दुग्धपान ब्रेक व्यवस्था के लिए मातृत्व हितलाभ अधिनियम प्रभावी है।
कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948
15000 रुपए प्रतिमाह की दर से मजदूरी पाने वाले श्रमिकों, (कम से कम 10 मजदूर नियोजित करने वाली स्थापनाओं के) मालिकों के अंशदान, व केंद्र व राज्य सरकार के अनुदान, स्थानीय सत्ता, व्यक्तियों या संस्थाओं के दान और उपहार से कर्मचारी राज्य बीमा कोष का निर्माण होता है। कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम के तहत कर्मचारी राज्य बीमा निगम कामगारों को मुख्यत: पांच प्रकार के हितलाभ प्रदान करता है। बीमारी हितलाभ, वर्धित बीमारी हित लाभ, अस्थायी अपंगता हितलाभ. स्थायी अपंगता हितलाभ व अंत्येष्टि खर्च इत्यादि।
कोयला खान भविष्य निधि एवं प्रकीर्ण व्यवस्ताएं अधिनियम, 1948
भारत की संपूर्ण कोयला खानो में यह योजना प्रभावी है। इस भविष्य निधि कोष में एक खास रक्म श्रमिक और मालिक की ओर से होती है। मजदूर के पास अपने हिस्से की रक्म बढ़ाने का भी विकल्प है। पर्यावरण के लिए खतरा उत्पन्न करते हुए कई बड़ी-बड़ी कंपंनियां भारी मुनाफा कमाने में लगी हैं किंतु खतरनाक हालात में काम करने की मजबूरी के साथ-साथ बेरोजगारी, शोषण, विस्थापन और गरीबी की मार झेलते रहना इन मजदूरों की फितरत बनकर रह गई है। अशिक्षा, दो जून की रोटी का झुगाड़ करने के लिए थोड़ी सी मजदूरी के लिए खतरनाक से खतरनाक काम करने को तैयार हो जाना ही इनकी जीवनशैली है। सरकार की तरफ से बेशक उन्हें सुविधाएं देने या मजदूरी के निर्धारण की बात की जाए पर असली चांदी तो भ्रष्ट राजनेताओं और उद्योगपतियों की ही होती है। मजदूरों के हितों की बात करने वालों को चाहे वे उनका सगा भाई ही क्यों न हो इन्हीं को बहला फुसलाकर उनकी जान का दुश्मन बना दिया जाता है।
कर्मचारी भविष्य निधि एवं प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1952
20 या इसे अधिक संख्या में श्रमिक नियोजित करने वाले कारखानों/स्थापनाओं पर यह अधिनियम लागु होता है। 15000 रुपए प्रतिमाह की दर से मजदूरी पाने वाले श्रमिकों, मालिकों एवं सरकार के अंशदान से भविष्य निधि एवं पेंशन कोष का निर्माण होता है। कर्मचारी भविष्य निधि एवं प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम के तहत कर्मचारी भविष्य निधि योजना(इसके तहत कर्मचारी के खाते मे जमा पूरी की पूरी राशी ब्याज सहित लौटा दी जाती है), कर्मचारी पेंशन योजना,1995(10 साल की सेवा उपरांत नौकरी छोड़ने/सेवानिवृत्ति पर पेंशन या सदस्य की मृत्यु की अवस्था में पारिवारिक पेंशन), कर्मचारी निक्षेप सहबद्ध बीमा योजना(इसके तहत सदस्य के सेवा में रहते मृत्यु हो जाने पर 3.60 लाख रुपए तक नामित व्यक्ति को बीमा राशी का भुगतान) इसके अतिरिक्त परिवार पेंशन योजना, सामाजिक सुरक्षा प्रमाणपत्र, व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा सुरक्षा योजना, अनुग्रह भुगतान संशोधित अधिनियम-1984, बेरोजगारी भत्ता(उन बेरोजगारों को जिनके नाम अनेक सालों तक रोजगार कार्यालयों में दर्ज रहते हैं भारत के कुछ राज्यों में उन्हें बोरोजगारी भत्ता दिया जाता है), विक्रय संवर्द्धन सेवा शर्तें अधिनियम-1976(केवल औषधि उद्योग पर लागू) श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम(समाचार उद्योग के लिए) स्वाबलंबन पेंशन योजना(असंगठित क्षेत्र के लिए स्वालंबन योजना को मंजूरी दी गई है। खास तौर से निर्धन और कमजोर वर्गों के लोगों को नई पेंशन योजना प्रणाली में नामित कराकर वृद्धावस्था के लिए प्रेरित किया जाएगा और जो भी अपनी पेंशन योजना में सालभर में 1000 रुपए बीस साल तक डालेगा केंद्र सरकार भी उसमें 5000 हजार रुपए डालेगी) और मनरेगा जैसी सामाजिक सुरक्षा योजनाएं उपलब्ध हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसकी 70 प्रतिशत से अधिक आबादी प्रत्यक्ष रुप से खेती पर ही निर्भर है। यह आश्चर्य का विषय है कि इस क्षेत्र के खेतीहार मजदूर को सामाजिक सुरक्षा की प्रत्येक योजना में शामिल नहीं किया गया है। सरकार की ओर से उनके लिए रोजगार गारंटी योजनाएं तो लागू की जा रही हैं किंतु एकीकृत सामाजिक सुरक्षा योजना का अभाव है। देश में बाजार को एक ऐसे समय में खोल दिया गया है जबकि समाज में भारी विषमताएं मौजूद थीं। विश्व बैंक एवं फोबर्स जैसी एजेन्सियां मनमाने ढंग से भारतीयों पर अपनी शर्तें थोप रही हैं। नई व्यवस्था निर्माण के स्तर पर है और पूरी तरह विवसित नहीं हो पाई है। नैमिक अनिश्चिता, असंयम, अनुशासनहीनता और राजनीतिक हस्तक्षेप अत्यधिक है। मालिकों का व्यवहार भी कोई अधिक उत्साहवर्धक नहीं होता और कॉर्पोरेट जगत में यह रुझान पनप चुका है कि वे वैधानिक पदधारियों के प्रबंधक बन जाएं और मनमाने तरीके से लाभ कमाएं। नियोक्ता द्वारा नियोजित कामगार कहां और किस क्षेत्र में काम कर रहा है यह भी सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाली इकाईयों के लिए अनुसंधान का विषय बनता जा रहा है। सोची समझी साजिश अंतर्गत मजदूरों की एक खेप से एक निश्चित अवधि से अधिक काम नहीं लिया जाता ताकि वे संगठित होकर बुनियादी अधिकारों की मांग न करने लगें। आज के बाजारवादी युग में उद्योगपतियों से यही अपेक्षा की जा सकती है। गैरसरकारी समाज कल्याण संस्थाओं, संगठित और असंगठित व्यावसायिक संस्थानो, राज्य और केंद्र सरकार के संयुक्त उद्धम से ही भारतीय नागरिकों के असहाय अवस्था काल में उचित सामाजिक सुरक्षा का प्रबंध किया जा सकता है।