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बात 1982 की है जब मैं राजनीति शास्त्र की एम.ए कर रहा था। उन दिनो मुझे एक आदत थी कि मैं पूरा का पूरा पाठ्यक्रम पढ़कर, अच्छी तरह समझकर ओर एक-एक प्रश्न को ढूंढ-ढूंढ कर उसकी तैयारी करता था। लोकप्रशासन का विषय और लोकपाल के नाम से एक विषय मैने पाठ्यक्रम में पाया। अपने पूरे प्रयासों के उपरांत भी मैं उसका उत्तर ढूंढ नहीं पाया। कोई विषय ढूंढने के मामले में अपने पूरे शैक्षणिक काल में मुझे इतनी परेशानी नहीं हुई, जितनी लोकपाल के विषय पर 1982 के दौरान मुझे झेलनी पढ़ी थी। मेरी तैयारी पूरी होती थी, इसलिए मैं पास भी अच्छे अंकों से हो गया लेकिल तब तक मेरे ख्वाबों-ख्यालों तक में भी यह बात नहीं थी कि जो विषय 1982 में मुझे इतना परेशान कर रहा था, वर्ष 2011 के आते-आते उसका महत्व इतना बढ़ जाएगा तथा पूरे विश्व के सामान्य ज्ञान में वृद्धि लाने के साथ ही साथ समाजसेवी अन्ना हजारे की चित्र के माध्यम से टाइम मैगजीन के प्रथम पन्ने तक पहुंच करा देगा, अमरीकी फॉरेन पॉलिसी में विश्व मंच की कई जानी- मानी हस्तियों व राष्ट्राध्यक्षों को पछाड़कर उन्हें इस पत्रिका के 100 चिंतकों की सूचि में 37वां स्थान दिलवादेगा(दिलचस्प बात यह भी है कि कश्मीर भारत का कभी अंग नहीं रहा है, इस विचार की समर्थक एक विवादास्पद भारतीय लेखिका का नाम भी इन सौ चिंतकों की सूचि में शामिल है) और जनलोकपाल बिल का प्रत्येक समर्थक यह सोचने लगेगा कि लोकपाल के पास एक जादू की छड़ी होगी, वह उसे घुमाएगा और भारत तो क्या विश्व के सभी चोर, ठग और भ्रष्टाचारी समाजसेवी अन्ना हजारे से प्रभावित होकर गुनाह की दुनिया से कोसों दूर भागने लगेंगे। भारत सहित विश्व की सभी सुसंस्कृत संस्कृतियां, धर्म एवं संप्रदाय मानव को इन कुरीतियों से दूर रखने के प्रयास में ही रत हैं किंतु इस भयानक बीमारी से भारत की तो बात छोड़िए विश्व का कोई भी देश अछूता नहीं है। जबसे समाज के विकास का क्रम आरंभ हुआ है, समृद्धि और उच्च संस्कृति के मामले में भारत का स्थान हमेशा सर्वोच्च रहा है। संपन्नता के मामले में भी भारत को सोने की चिड़िया की संज्ञा दी जाती रही है। महाभारत, रामायण एवं अन्य भारतीय ग्रंथों का अध्ययन करने मात्र से ही भारत की सैन्य ताकत, प्रगति एवं संपन्नता का अंदाजा लगाया जा सकता है। विकसित समाज तक, प्रत्येक जरुरतमंद पहुंचने को प्रयासरत तो रहता ही है। भारत के विषय में भी ऐसे ही हुआ। प्रवासी विदेशी और जरुरतमंदों ने भारत की संपन्नता का लाभ उठाने के लिए उचित/अनुचित सभी तरीके अपनाए। विदेशी यात्री एवं हमलावर के रुप में भी आए और सौदागर व साम्राज्यवादियों के रुप में भी। कोलंबस के भारत(आज का अमेरीका) की खोज करने वाले कोलंबस को भी यह अवसर इसलिए मिल गया क्योंकि उन दिनो विश्व की प्रत्येक साम्राज्यवादी ताकत भारत की खोज करके अपने नागरिकों की रोटी, कपड़ा, मकान और अन्य सुख-सुविधाओं को पूरा करने के जुगाड़ में लगी थी। विदेशी आक्रमणकारी आते रहे और लूट-खसूट व अत्याचार से भारत को बदहाल करते रहे। सदियों से ही भारत एक कमजोर राष्ट्र एवं मजबूत समाज रहा है। इसके मुकाबले चीन में मजबूत सत्ता रही है जबकि वहां का समाज कमजोर रहा है। 15 अगस्त. 1947 को अंग्रेजों के चंगुल से स्वतंत्र होने तक भारत ऐसे मरीजों का इलाज करता रहा है जो स्वस्थ होने पर अकसर अपने चिकित्सक का सामर्थ्य ध्वस्त करने की फिराक में रहते हैं। भारत डॉकटर के रुप में विदेशी साम्राज्वादियों की भूख और लालच का इलाज करके स्वयं मुसीबतें झेलता रहा है। मगर जो डाकू, लुटेरा और चालाक होता है, वह हमेशा अपने शिकार को हड़पने का कोई न कोई बहाना ढूंढने की फिराक में रहता है। साम्राज्यवादियों के चंगुल से स्वतंत्र हो जाने के बावजूद भी वे इस बीमार डॉकटर को स्वस्थ होने का अवसर नहीं देना चाहते हैं। भारत की उपज गुट निरपेक्ष लहर को प्रभावशून्य कर दिया गया है। कश्मीर के मसले पर भारत को तंग करना और पाकिस्तान को उकसाना। तरक्की करने के प्रत्येक प्रयास में अड़चने पैदा करना। अंदरुनी और बाहरी अतंकवाद को बल प्रदान करना और अब अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन की ओर से प्रत्येक क्षेत्र में भारत की घेराबंदी। भारत-अमेरीका के बीच होने वाले परमाणू करार को रोकने के लिए पाकिस्तान, नार्वे जैसे देशों को आगे करके चीन की ओर से पीछे से की गई घेराबंदी का पूरा का पूरा विश्व गवाह है। भारत को 125 करोड़ भूखे भारतीयों का पेट भरने वाले देश के स्थान पर एक सौ पच्चीस करोड़ उपभोक्ताओं के देश के रुप में देखा जा रहा है। अमेरीका भी चाहता है कि देशी-विदेशी दबंगाई का शिकार भारत चीन के साथ उलझे लेकिन उतना ही जितना अमरीका के लिए हितकारी हो।
भारतीय समाज को जब यह अच्छी तरह से मालूम है कि भारत एक विश्व बीमारी का शिकार होता रहा है तो भारतीय क्यों ऐसे आंदोलनो का समर्थन करें जिससे भारत की वही पुरानी गत होने का अंदेशा हो। जन लोकपाल बिल के पीछे जो मुहिम चलाई गई, उसका केवल एक और एक ही लक्ष्य था और यह था कि देश से भ्रष्टाचार खत्म हो । बात भी सही है। जब भ्रष्टाचार ही नहीं होगा तो देश तो उन्नति करेगा ही। परंतु मुहिम चलाने के जोश में भारतीयों को पुराना इतिहास नहीं भूल जाना चाहिए। जन लोकपाल बिल आंदोलन काल को कुछ लोग आपातकाल के समय से भी जोड़कर देखते रहे। आंदोलन टीम में कुछ ऐसे लोग भी थे जो 1977 में एक साथ-सुथरी छवि वाले प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गठित सरकार में मंत्री भी रह चुके थे। इतिहास गवाह है कि श्री मोरारजी देसाई के कार्यकाल में महंगाई भी बहुत कम थी और आम भारतीय सुखी भी थे। राजभाषा हिंदी के संबंध में भी इसी अवधि के दौरान एक इतिहास रचा गया था जब तब के विदेश मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने प्रथम बार संयुक्त राष्ट्र की जनरल असैंबली में राजभाषा हिंदी में भाषण दिया था। मगर वह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी और प्रशासन में आयी शिथिलता के परिणाम स्वरुप कुछ ऐसी समस्याओं ने सिर उठा लिया जिनमें से कुछ का इलाज आज तक भी इस डॉकटर को सूझ नहीं पा रहा है। आपातकाल से पूर्व जो हालात पैदा हुए थे और आंदोलन के दौरान जो स्थिति थी उनमें कुछ कुछ समानताएं अवश्य थीं। 1971 में भारत-पाक युद्ध में भारत की जीत तथा 1974 में पोखरन में परमाणू धमाके के उपरांत विश्व के दबंग भयभीत हो गए थे और अपनी दादागिरी को कायम रखने के लिए किसी न किसी बहाने की तलाश में थे। भारत को दबाने के लिए भारत पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए गए थे और साजो-सामान की आपूर्ति भी रोक दी गई थी जिससे महंगाई बहुत बढ़ गई और नतीजा सामने था। महंगाई बढ़ेगी तो सामान्य जनता आंदोलन में साथ देने के लिए आसानी से तैयार हो जाएगी। विश्व की यही दबंग लॉबी आज भी अपने आर्थिक संकट के चलते सुविधाजनक स्थिति में नहीं है और उनको यह अच्छी तरह से मालूम है कि भारत की प्रगति भी उनकी दुरगत का मुख्य कारक है। अपनी पूंजी को मुख्यत: शेयर बाजार. रीयल एस्टेट और वायदा बाजार में निवेश करने की अपनी आदतों और गलतियों के परिणाम स्वरुप वे कंगाली की दहलीज पर खड़े हैं। किंतु अपनी गलतियों को सुधारने के बजाए उन्हें अपनी दबंगाई पर ही अत्यधिक भरोसा है। 1971 से 1977 की अवधि के दौरान चलने वाली सरकार को अंग्रेजों के भारत छोड़ने के बाद से भारतीय इतिहास की अबतक की सबसे ताकतवर सरकारों में गिना जाता है। तब की प्रधानमंत्री के विरोधी भी श्रीमती इंदिरा गांधी को दुर्गा का नाम दे चुके हैं।
विश्व के दबंगों ने तब भी भारत पर अनावश्यक दबाव बनाया था तथा आज की तिथि में भी इन दबंगों के प्रयास बादस्तूर जारी हैं। इसलिए भारत में प्रगति और खुशहाली लाने के लिए जनलोकपाल आन्दोलन तो क्या प्रत्येक ऐसी मुहिम चलानी चाहिए जिससे आम एवं खास भारतीय खुशहाल एवं समर्थ हो। लेकिन हो इसका उलटा रहा है। अपनी युवा अवस्था में मैने एक कहावत सुनी थी जो निम्नानुसार है :
छोटी मोटी मिल के सभी मैनेजर और
कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि जैसे तुझे बनाया गया है ठगे जाने के लिए।
देशी-विदेशी दबंगों, भ्रष्टाचारियों, कालाबाजारियों और व्यभचारियों की करतूतों के कारण भारतीय बहुसंख्यक परेशान है तथा पिस रहा है। परंतु दबंग सरीखे अनेक आंदोलनकारी नेता भारतीयों की कठिनाइयां घटाने की बजाए उनको बढ़ा रहे हैं। उन के स्वयं के गलत काम सामने आते हैं तो धमकाना तय है और दूसरों की गलतियां निकालना तो मानव का जन्म सिद्ध अधिकार है। शहीद भगत सिंह. राजगुरु, सुखदेव, सुभाष चंद्र बोस, सरदार पटेल, महात्मा गांधी सरीखे स्वतंत्रता सेनानी और अन्ना हजारे सरीखे समाज सेवक जब तक लाभ दें तो अपने लेकिन उनकी कठिनाइयों का भार वहन करने का अवसर आने पर उन्हें पड़ोसी के घर में पैदा होना चाहिए हमारे साथ उनका कोई लेना-देना नहीं है। मीठा-मीठा मेरा कड़वा किसी और के लिए। कोई भी बात तब तक ही गलत लगती है जबतक कोई दूसरा उसे करता है। जब मामला मेरे से संबंधित है तो मैं कभी गलती नहीं कर सकता। भाव यह है कि मेरे पास तो असीमित अधिकार होने चाहिए लेकिन कर्तव्य शून्य हों। वास्तविकता चाहे जो भी हो वर्तमान में कालेधन और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम चलाने वाले भी घूमफिर कर महांभ्रष्टों की ही मदद करने को मजबूर हैं। यह भी समझ में नहीं आता कि यह उनकी किसी महत्वाकांक्षा का परिणाम है या कुछ और। मेरा स्वयं का अनुभव है कि दिल से नियमों की पालना करना एक कठिनतम कार्य है। इस रास्ते पर चलकर कठिनाइयों का ही सामना करना पड़ता है। अपने सेवा काल में मैं वित्त, लेखा तथा जनसंपर्क के काम से अधिक जुड़ा रहा हूं और यह अनुभव किया है कि आमजन कमजोर एवं स्वच्छ छवि वाले कार्मिकों की शिकायत करने के लिए तो आसानी से तैयार हो जाते हैं लेकिन इसे भ्रष्टाचार की कला कहें या कुछ और - महांभ्रष्ट लोगों की या तो कोई शिकायत करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाता, यदि शिकायत होती भी है तो अधिकतर मामलों में भ्रष्ट इसका हल निकाल लेते हैं। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को सुचारु रुप देने के लिए उसके तीनो मुख्य विंगों कृषि, उद्योग(उत्पादन) और सेवा क्षेत्र में संतुलन होना चाहिए। उन्नत खेती, सिंचाई के लिए पानी संरक्षित करने के लिए उन्नत साधनो का उपयोग हो, उद्योग जगत की उन्नति हो और सेवा क्षेत्र में उन्नत तकनीक। फलों सब्जियों की पैदावार बढ़ाई जाए, बीज और धरती की गुणवत्ता में सुधार लाया जाए। देश को अपने प्राकृतिक साधनो और क्षमताओं के अनुकूल ही काम करना चाहिए और सेवा क्षेत्र को उसके असल हक के अनुसार ही प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। दूसरों की नकल के सुपरिणाम नहीं होते हैं। जनलोकपाल बिल के समर्थन में आंदोलन चलाने वाले अधिकतर लोग सेवा क्षेत्र से जुड़े हुए थे और मध्य वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। क्योंकि मध्य वर्ग महंगाई से त्रस्त भी है और गरीब जनता के मुकाबले अपने अधिकारों के प्रति अधिक सतर्क है। स्वाभाविक है कि जब किसी के सगे-संबंधी का इलाज करने के मामले में सभी विशेषज्ञ डॉकटर हाथ खड़े करके इलाज करने में असमर्थता जता देंगे तो उसके संबंधी या तो किसी झोलाछाप कहे जाने वाले नीम हकीम के पास जाएंगे या किसी तांत्रिक के चक्कर में फंसकर अपने बचे खुचे संसाधन भी गंवा बैठेंगे। समाज सेवा से संबंधित मैने अपने बचपन में दो वाक्य पढ़े थे। एक में श्री गुरू नानक देव जी यह साबित कर देते हैं कि उनके अमीर एवं भ्रष्ट मेजबान की रोटी में खून था क्योंकि वह रोटी गरीबों का खून चूस-चूस कर की गई आमदन से बनी थी। दूसरे कथन में एक महात्मा की कहानी है जो मुसाफिरों के लिए सराय चलाते हैं और उस सराय में ठहरने वाले यात्रियों के लिए पास के गांव से खाना इकट्ठा करके उन्हें खिलाते थे। एक दिन कुछ मसखरे यात्री सराय में आकर ठहरते हैं। महात्माजी उन्हें भी सराय में ठहराकर उनके लिए भोजन की व्यवस्था कर देते हैं। लेकिन जब उन में से एक यात्री उस रोटी को खाने के लिए तोड़ता है तो उसमें से खून की बूंदें टपकने लगती हैं क्योंकि जिस घर से वो रोटी आई थी उस घर में केवल एक ही रोटी थी जिसे दानी महिला के भूखे बच्चे ने खेलने के बाद आने पर खाना था। इसलिए भारत की जनता को सुझाव है कि सेवा में रत किसी संस्था का समर्थन करने से पूर्व उसकी कार्यशैली और मंशा का ध्यान अवश्य करलें तथा अंशदान और समर्थन देने से पूर्व आपकी ओर से दिए गए अंशदान व समर्थन के दूरगामी प्रभावों का ध्यान अवश्य करलें।
समाज सुधारकों के लिए एक सुझाव यह भी है कि भारतीयों को सुव्यवस्था की जरुरत है, तानाशाही और दबंगाई की नही। भारत आज दुनिया के युवतम देशों में गिना जाता है। भारत की युवा पीढ़ी स्मार्ट है तथा एकसाथ अनेक काम करने में दक्ष है। लेकिन यह धारणा भी पनप चुकी है कि युवाओं को रोटी, कपड़ा और मकान की जगह आइपॉड ओर सेलफोन चाहिए। कोई राजनेता हो या समाज सुधारक, एक कटु सत्य यह भी है कि न तो उनको कोई तनख्वाह मिलती है तथा न ही उनकी कोई पक्की आमदनी होती है। नेतागिरी/समाज सुधार के लिए उन्हें संसाधनो की व्यवस्था तो किसी न किसी तरीके से करनी ही पड़ेगी। ताजा उदाहरण टीम अन्ना की प्रमुख सदस्या वर्तमान में बीजेपी नेता और पूर्व आईपीएस अधिकारी, किसी समय जिनका मुख्य दायित्व जुर्म रोकने का ही रहा है, अपने आमंत्रित करने वालों से अधिक हवाई किराया वसूल कर उसका समाज सुधार में उपयोग का है। लोकपाल बिल तो पास हो चुका है। उन समाज सुधारकों के लिए मुख्य काम जो अब बचता है कि वो आम भारतीयों को प्रशिक्षित करें ताकि वे अधिक से अधिक ज्ञानी बनें। पढ़े-लिखे सजग नागरिक होंगे तो कोई भी आसानी से उन्हें बुद्धु नहीं बना पाएगा। रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र पर दबाव बढ़ाया जाए ताकि सभी अपनी इच्छाओं की पूर्ती करने में सक्षम हों, मतदाताओं को मतदान करने के लिए प्रशिक्षित करें ताकि वे मतदान के माध्यम से ऐसी सरकार का चुनाव करें जो पूर्ण बहुमत की हो तथा विपक्ष भी कमजोर न हो जिससे सरकार की मनमानी पर लगाम लगी रहेगी।
अब जबकि लोकपाल बिल पास हो चुका है। डॉ मनमोहन सिंह की सरकार जा चुकी है और केंद्र में बीजेपी की सरकार है। अन्ना टीम के अधिकतर सदस्य उन का साथ छोड़कर राजनीतिज्ञ बन चुके हैं और सत्ता का सवाद चखने लगे हैं। चुनाव जीतने के लिए उन्हीं चुनावी पैंतरों की उनको भी आवश्यकता है जो अन्य राजनीतिक दल इस्तेमाल करते हैं। भ्रष्टाचार तथा ईमानदारी आम जनता की रोटी, कपड़ा ओर मकान जैसी जरुरतों के नीचे दबकर रह गई है। इसलिए मेरा अब बचे-खुचे समाज सुधारकों से अनुरोध है कि बीमार डॉकटर को स्वस्थ होने में उसका हाथ बटाएं और मूल कारण की जड़ में जाकर पुरातन काल से आर्थिक महाशक्ति रुपी डॉकटर भारत की संपन्नता के पुराने गौरव को वापस लौटाने में अपना-अपना योगदान दें।