विश्व बैंक ने
प्रमाणपत्र स्वरुप एक आंकड़ा जारी किया है जिसके अनुसार वर्ष 2015 में भारत में
अत्यधिक गरीबी वाली आबादी 9.6 प्रतिशत तक पहुंच गई है जबकि 2012 में यह आंकड़ा
12.8 प्रतिशत था। वर्ष 1990 से जबसे विश्व बैंक ने यह आंकड़े इकट्ठे करने शुरु किए
हैं तबसे पहली बार ऐसी कमी दिखाई दी है। ऐसा तब है जब ग्लोबल हंगर इंडेक्स के
आंकड़ों के अनुसार भारत में 19 करोड़ लोग रोजाना भूखे पेट सोते हैं। देश में चार
में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है। 58 फीसदी बच्चों की ग्रोथ भारत में 2 साल से
कम उम्र में रुक जाती है। दुनिया में भारत की गरीबी बिकती रही है। भारत से ऑस्कर
के लिए नामित होने वाली अधिकतर फिल्में वहीं हैं जिनमें भारत की गरीबी और भूखमरी
को दिखाया गया हो। आखिरकार भूखमरी से जद्दोजहद करने वालों की विदेशिओं की ओर से
तैयार कहानी सलम डॉग मिलेनियम ऑस्कर पुरस्कार जीतने में सफल हो ही गई। अब गरीबी के साथ भूख भी बिकने लगेगी। दुनिया में
तेल के भाव पानी से भी सस्ते हो जाने तथा रिकॉर्ड स्तर पर गिर जाने के बावजूद भी
मंहगाई से जनता को कोई राहत नहीं मिल पा रही है। रोजमर्रा की चीजों के भाव आसमान
छू रहे हैं और दाल गरीब की थाली में से गायब होकर अमीरों का महंगा व्यंजन बन चुकी
है। कुछ क्षेत्रों में तो गरीब घास, फूस और बथुए के सेवन के सहारे जिंदा रहने का
प्रयास कर रहे हैं। और तो और सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियों और व्यापत
भ्रष्टाचार ने लोगों को अकाल मृत्यु मरने को मजबूर कर दिया है। वितरण किए जाने
वाले अनाज का 50 प्रतिशत से भी अधिक वितरण, परिवहन और भंडारण की खामियों के चलते
नष्ट हो जाता है या बाजार में ऊंचे दाम पर बेच दिया जाता है। भारत के लिए एक
शर्मनाक खबर यह भी है कि भूखमरी के मामले में हमारे हालात पाकिस्तान और बंगलादेश
जैसे देशों से भी कहीं ज्यादा खराब हैं। विश्व के परिदृश्य के नजरिए से देखा जाए
तो रुस के नेतृत्व में साम्यवादी सोच का सामना पश्चिमी सोच के साथ होने के उपरांत
राज्यों का अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप बढ़ा था किंतु वर्तमान में भारत सहित दुनिया
के तमाम देशों में यह विमर्श भारी पड़ रहा है कि सामाजिक क्षेत्रों में राज्य का
दखल कम से कम होना चाहिए। भारत एक विकासशील देश है गुलामी की जंजीरों से निकल आने
के बावजूद साम्राज्यवादी ताकतों के आगे झुकने को मजदूर है। भारतीय बाजार चीन में
तैयार माल से भरे पड़े हैं। भारत के वर्तमान
प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी योजना ‘मेक इन इंडिया’ का बहुचर्चित लोगो मशीनी बाघ एक विदेशी कंपनी
विडन-केनेडी इंडिया लिमिटेड की भारतीय इकाई ने तैयार किया है। मेक इंडिया का सपना
पूरा होना तो अभी बहुत दूर की कौड़ी है। कम से कम जब तक संयुक्त राज्य अमेरीका(अमेरीका)
और यूएसएसआर(रुस) में शीत युद्ध चल रहा था तो भारत में हो रहे विनिर्माण की वजह से
भारतीय मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा की गारंटी युक्त रोजगार की सुविधा तो मिल रही थी।
यूएसएसआर के विघटन के बाद वर्तमान में सामाजिक सुरक्षा गरीबों से दूर हो रही है। यूएसएसआर
के विघटन में विश्व बैंक, आई एम एफ और नाटो सहित फोबर्स जैसी संस्थाओं की भी महती
भूमिका है। मुझे आज भी याद है कि उन दिनों काम करने के चाहवान कामगारों को कोई न
कोई सुरक्षा की गारंटी युक्त काम मिल जाता था। नगर के बाहर एक चुंगी नाका होता था।
केवल माल लाने ले जाने पर ही चुंगी कर लगता था। मगर आज के टोल प्लाजा युग में
प्रत्येक आने जाने वाली गाड़ी पर कर है। अधिकतर सड़कें टूटी-फूटी होंगीं, किसी को
पता तक नहीं चल पाता कि टोल नाका कब तक है फिर भी आने वाले समय में पैदल यात्रियों
पर कब और क्यों कर लग जाएगा इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। मुझे भी
अपने यौवन काल में निजी क्षेत्र के कारखाने में प्रत्येक सामाजिक सुरक्षा प्रदान
करने वाली नौकरी आसानी से मिल गई थी जो आज के युवा को आसानी से नहीं मिल पाती।
महंगी से महंगी शिक्षा अर्जित कर लेने के बाद भी अधिकतर युवाओँ को 5000 या 6000
रुपए से अधिक वेतन नहीं मिल पाता । मार्कीटिंग क्षेत्र में उन्हें सात पीढ़ियों के
लिए कमाई कर लेने के सब्ज बाग दिखाए जाते हैं। लेकिन उस क्षेत्र में अधिकतर वही
लोग अमीर बन पाते हैं जो सहारा के सुब्रत सहारा की नीति अपनाएं, किंगफिशर के विजय
माल्य की तरह अपने कामगारों को मरने पर मजबूर करदें, हवाई चप्पल बेचने से चलकर
हवाई जहाज चलाने वाली कंपनियां चलाने तक पहुंच जाने वाले तथा अपनी महिला कर्मचारियों
का शोषण करके परिवार सहित आत्महत्या पर मजबूर करने वाले गोपाल कांडा और पीएसीएल के
निर्मल सिंह भंगू की तरह भारतीय नागरिकों के साथ 45000 हजार करोड़ का घपला करके
अपने लिए अकूत संपत्ति इकट्ठा कर लें। बात बिल्कुल सीधी है कि जो कंपनी आज के युग
में अपने ग्राहकों को सबसे अधिक मूर्ख बनाने में सफल होगी वही लाभ कमा पाएगी।
ईमानदारी से अकूत संपत्ति इकट्ठा कर पाना आज के समय में संभव नहीं है। जो लोग जनता
के साथ धोखादड़ी करते हैं उनमें से ही अधिकतर ईमानदार नागरिकों का सिवल रिकॉर्ड जांचने
के काम में लगे हुए हैं। विश्वबैंक
ने भारत की डिजीटल पहचान प्रणाली ‘आधार’ की भी तारीफ की है। विश्व बैंक के मुख्य
कार्यकारी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है कि आज दुनिया की 40 प्रतिशत आबादी
इंटरनेट से जुड़ी है । उन्होंने विश्व को सावधान भी किया है कि यह उपलब्धियां जश्न
मनाने लायक नहीं हैं। उन्होंने इसके बीच एक नए उपेक्षित वर्ग के उबरने की आशंका भी
व्यक्त की। विश्व में 20 प्रतिशत आबादी अभी भी निरक्षर है तथा निरक्षरों का आंकड़ा
सबसे अधिक भारत और चीन में है। मनरेगा मजदूरों के पारिश्रमिक के बाइस करोड़ रुपए
सरकार के पास बकाया रहने की स्थिति बता रही है कि जॉबकार्डधारकों के इस महत्वाकांक्षी
कानून के प्रति दिलचस्पी क्यों नहीं है। 100 दिन का रोजगार देने की गारंटी के
बावजूद मानसिक, आर्थिक, सामाजिक और शारीरिक प्रताड़ना के बावजूद मजदूर दूसरे
राज्यों में जाकर दैनिक मजदूरी को तरजीह देते हैं। दलाली से समय पर भुगतान सहायक
था किंतु इलैक्ट्रॉनिक भुगतान होने की वजह से जो परिवार कमाओ-खाओ के आधार पर चलते
हैं मजदूरी के पैसे का हफतों इंतजार नहीं कर सकते। सूद-दर-सूद साहूकारों के चंगुल
में फंसने के सिवाए उनके पास अब कोई चारा नहीं है। विश्वबैंक का आंकड़ा स्थानिक
हितलाभ के स्थान पर पश्चिमी देशों के हितलाभ में अधिक होता है। इसलिए कोई करिश्मा
नहीं हुआ है जिससे भारतीय खुश हों कि भारत में गरीबों की संख्या कम हुई है और वे
रातों रात अमीर हो रहे हैं। यह केवल किसी एक वर्ग को खुश करने के लिए आंकड़ों का
खेल मात्र है। वर्ष 2015 के नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. एंगस डीटॉन का तो यहां तक मानना
है कि अर्थव्यवस्था में राज्य का हस्तक्षेप होना चाहिए।