बचपन से हम एक कहावत सुनते
आए हैं कि फलां व्यक्ति को किसी खास विषय का कखग नहीं आता। अंग्रेजी में यह उपाधि
एबीसी को हासिल है। कहावत का अर्थ है कि वह व्यक्ति विशेष विषय से संबंधित कोई
जानकारी नहीं रखता। होली, हिंदी, जातिवाद और राष्ट्रवाद का भी आपस में गहरा संबंध है जिससे
सदियों से भारतीय प्रभावित हो रहे हैं और भारतीय जनमानस के लिए इनमें छुपे गहरे
अर्थों को समझना जरुरी है। 26 जनवरी, 1950 को लागु भारतीय संविधान में हिंदी को
भारत की राजभाषा घोषित किया गया है तथा राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार का जिम्मा
भारत सरकार को सौंपा गया है। भारत सरकार ने प्रसार की दृष्टि से पूरे देश को तीन
क्षेत्रों में बांटा हुआ है। क क्षेत्र में वो तमाम हिंदी क्षेत्र आते हैं जिनके
बारे में भारत सरकार का विश्वास है कि इन क्षेत्रों में बसे नागरिकों को हिंदी का सबसे
अधिक ज्ञान है। ख वह क्षेत्र है जिसमें भारतीयों को क क्षेत्र के मुकाबले कम हिंदी
आती है। ग क्षेत्र के भारतीय बाकी क्षेत्रों के मुकाबले सबसे कम हिंदी का ज्ञान
रखते हैं। होली एक सद्भावना, भ्रातृभाव और स्नेह बांटने वाला त्यौहार है। यह पूरे
देश में उक्त संदेश देने के लिए पूरे उत्साह और उल्लास से मनाया जाता है। किंतु
मनाने का क्रम शुद्ध भारत के राजभाषा हिंदी सरीखा कखग क्रम अनुसार ही है अर्थात
हिंदी भाषी क्षेत्रों में होली मनाने वालों की संख्या अधिक है तथा इस दिन प्रत्येक
रुठे को मनाने का प्रयास किया जाता है। ख क्षेत्रों में होली मनाने वालों की
संख्या क क्षेत्रों से कम तथा ग क्षेत्रों में यह आंकड़ा कम होना स्वाभाविक ही है।
मनु के समाज को चार जातियों में बांटने के आधार के परिणामस्वरुप सदियों से भारतीय
उपमहाद्वीप का जनमानस प्रभावित हो रहा है। उक्त जातियों में से हुए धर्म परिवर्तन
के परिणामस्वरुप देश के अनेक टुकड़े हो चुके हैं किंतु भारतीय राजनैतिक दल इतने
ढीठ हैं कि वो इतिहास की गलतियों से सीखने की बजाए भारतीयों को पिछले दरवाजे से
छदम राष्ट्वाद में उलझाकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने में व्यस्त हैं। वर्तमान
में भारत सरकार की बागडोर संभाल रहे राजनैतिक दल के ऊपर भी कखग की कहावत बहुत सटीक
बैठती है। इसका क क्षेत्र में आधार सबसे अधिक है, ख क्षेत्र में उससे कम और ग
क्षेत्र में लगभग न के बराबर। इस राजनैतिक दल की सरकार बनाने में हिंदी कखग
क्षेत्रों की अहम भुमिका है तथा उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वे किसी भी भारतीय
नागरिक के साथ भेदभाव किए बिना जनता तक यथासंभव सुविधाएं पहुंचाए। मगर हम भारतीय
सीधा सोचने की आदत नहीं रखते तथा भारतीय राजनैतिक दलों से यह उम्मीद करना तो
बिल्कुल बेमानी है। नतीजा यह होता है कि एक पार्टी या नेता दलित का विकास करने
लगता है तो दूसरा पिछड़ों का यानी पिछड़ी जातियों का तो तीसरा पीछे क्यों रहे तो
वह कोई अन्य पहचान समूह की तलाश कर लेता है मसलन दलित-मुस्लिम समूह या अति पिछड़ा
या महादलित अर्थात अपनी सुविधा अनुसार कखग का चयन। मगर इसके स्थान पर अगर हम
ईमानदारी से सीधे सोचते तो गरीबों के विकास पर अधिक ध्यान दे पाते। सीधी सोच न
होने का कारण हमारी चुनाव पद्धति है जो भारतीयों और राजनैतिक पार्टियों को उकसाते
हैं कि वे पहचान की नीति अपनाएं। वर्तमान सरकार आए दिन नए-नए जनोपयोगी कार्यक्रम जैसे
मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्किल डिवेल्वमैंट, डिजीटल इंडिया, नई मनरेगा, नई
फसल बीमा योजना, नई-नई पेंशन योजनाएं लेकर आ रही हैं । कख और ग की कहावत को अनदेखा
करके किसानों की हालत सुधारने की बजाए गलत तरीके से उनकी जमीनों को अधिगृहीत करने
का मुद्धा पिछले कुछ समय से गरमाया हुआ है। कन्हैया कुमार और रोहित वेमुला के
मामले मीडिया के चहेते बने हुए हैं। अगर दो समुदायों के नागरिकों में कोई सामान्य
कहा सुनी भी हो जाए तो उसका सांप्रदायक रंग रुप लेने का खतरा बढ़ता ही जा रहा है।
गाय प्लास्टिक खाने को मजबूर है लेकिन अनुमत गोश्त होने पर भी अगर कोई यह झूठी
अफवाह फैला दे कि अमुक व्यक्ति के घर में गाय का गोश्त है तो अंदाजा भलिभांति
लगाया जा सकता है। लाईसैंस राज की वर्तमान में बहुत ही अधिक आलोचना हो रही है।
मुझे यह भी याद है कि किसी समय जब किसी भारतीय ने स्कूटर खरीदना होता था तो उसे
पांच सौ रुपए जमा कराकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता था। किंतु वर्तमान में इतने
दोपहिया वाहन हैं कि चयन करने के लिए कंसलटैंट की आवश्यकता पड़ती है। घर में एक
लैंडलाइन फोन होता था तथा टेलीफोन एक्सचेंज की सहायता से ही फोन किया जा सकता था।
इसी तरह से ही शिक्षा क्षेत्र में कोई बिरला ही विदेश जा पाता था लेकिन वर्तमान
में झोंपड़ियों से भी विदेश पढ़ने के लिए विद्यार्थी विदेशों में जा रहे हैं।
विकास का आलम यह है कि भारत सरकार को सोने के आयात को कम करने के लिए इसपर कर
लगाया जाता है। कारण विदेशी मुद्रा बाहर जाने से रोकना। पर उस विकास का क्या फायदा
जिससे 251 रुपए के फोन के नाम पर भारतीयों से जालसाजी हो रही है। आम जनता के लिए
251 रुपए में दो किलो दाल पाना मुश्किल है। फोन संस्कृति से विदेशी मुद्रा बाहर
नही जाती क्या? मेरी युवा अवस्था में किसी समय जापानी इलैक्ट्रानिक
घड़ियां आठ सौ रुपए से कम में नहीं मिलती थीं। जबकि एक बाबू को मुश्किल से महीनेभर
का वेतन 400 से 500 रुपए मिलता था। आज उन्हीं घड़ियों को हम 20 से 30 रुपए में
खरीदकर खेलने के लिए बच्चों को देते हैं। आज भारत में 31 प्रतिशत दक्ष ड्राइवरों
की कमी है, इलैक्ट्रीशियन और फिटर जोकि हमारे घरों में काम करते हैं उन्हें भी उपयुक्त
ट्रेनिंग नही है, बाकी दक्ष कित्तों के बारे में सोचना तो हमारे बूते की बात ही
नहीं क्योंकि भारतीयों को तो केवल विदेशों में जाकर काम करने के लिए ही दक्ष होना
है। युवाओं को उपयुक्त प्रशिक्षण दिलाने के स्थान पर राष्ट्रभक्ति के नाम से
उन्हें एक खास चिंतन की ओर धकेला जा रहा है। भारत की राजभाषा हिंदी को लागु कराने
से संबंधित कखग युवाओं के मन में भरने से संबंधित भारतीय रणनीतिकारों को तो सपना
तक नहीं आ रहा । होली का सद्भावना संदेश भी किसी को नहीं भा रहा और जाति आधारित
राजनीति ही वर्तमान में सर्वोपरी है। क्या भारतीय रणनीतिकारों के लिए यह उचित नहीं होगा कि
अगले तीन वर्षों तक वे केवल विकास की ही बात करें तथा जनमानस तक विकास की सुविधाएं
पहुंचाने की ही बात करें।